Saturday 15 December 2012

उपन्यास



जीवन में किस पल क्या हो जाए, कुछ पता नहीं। परंतु, वक़्त बड़े-बड़े ज़ख़्म भर देता है और ज़िन्दगी फिर अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है। उपन्यास परतें के अन्तिम अध्याय में आप ऐसा ही कुछ पाएंगे। मुझे खुशी है कि आपने मेरे इस उपन्यास को बड़े धैर्य के साथ धारावाहिक रूप में पढ़ा और अपनी प्रतिक्रियाओं के द्वारा मेरी हौसला-अफ़जाई करते रहे। मैं आप सबका दिल से आभार व्यक्त करती हूँ।
शीघ्र ही, एक नये उपन्यास के साथ आपसे फिर मुखातिब होऊँगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

19

अब ज़िन्दगी फिर से अपनी रफ्तार से चल पड़ी थी। जस्सी ज्योति के घर जाकर रश्मि और जसप्रीत से मिल आती। उनके घर जाकर वह पहले की भाँति तनाव-ग्रस्त न होती। उसके संग मिलकर खाना खाती। हँसती-चहचहाती। उनके अपने परिवार में भी सब कुछ सहज हो गया था। संदीप और रघुबीर फिर से जस्सी के साथ खुलकर बातें करते।
      मुंबई में होटल उद्योग से संबंधित एक बहुत बड़ी कांफ्रेंस होने वाली थी। दूर देशों के प्रतिनिधि आ रहे थे। रघुबीर का सारा होटल बुक हो चुका था। इसलिए रघुबीर, संदीप और अन्य सभी का रात में घर लौटने का समय निश्चित नहीं होता था।
      दूसरे होटल में जयपुर से किसी मारवाड़ी की बारात आकर ठहरी हुई थी। उन्होंने तीस कमरे बुक करवा रखे थे। तीसरे होटल में ज्वैलिरी की प्रदर्शनी थी। वहाँ बड़े-बड़े व्यापारियों की पत्नियों, माँओं, बेटियों की आवाजाही लगी हुई थी।
      एक रात घर वापसी पर संदीप ने रघुबीर से कहा, ''पापा, जसप्रीत ज़रा बड़ा हो जाए तो रश्मि को भी अपने काम में अपने संग लगाना चाहता हूँ। वह भी कुछ करना चाहती है। हमें भी काम करने वाले कुछ और हाथों की ज़रूरत है। क्या ख़याल है पापा?''
      ''ख़याल तो नेक है ! पर अभी तो जसप्रीत को उसकी अधिक ज़रूरत है।''
      ''पापा, आपने मम्मी को अपने साथ काम पर क्यों नहीं लगाया ?''
      ''बेटा, तब इसकी ज़रूरत नहीं समझी जाती थी। तब हालात ही कुछ और थे। फिर तेरी मम्मी ने कोई इच्छा भी नहीं ज़ाहिर की, काम करने की।''
      एक दिन खाने की मेज़ पर सब इकट्ठा हुए तो लगभग सभी ने कहा कि अब जसप्रीत को ले आना चाहिए। निर्णय हुआ कि संदीप एक-दो दिन में उसको ले आएगा। नानी के घर रहते हुए उसको करीब दो महीने हो गए थे।
      एक शाम काम से फुर्सत पाकर वह सीधा ज्योति के घर रश्मि को लेने के लिए चल पड़ा। ज्योति ने बहुत कहा कि वह खाना खाकर जाएँ, पर संदीप नहीं माना। उसने कहा, ''आज डिनर अपने होटल में खाकर जाएँगे। जसप्रीत को आज अपना होटल दिखा दें।''
      ''घर में सब प्रतीक्षा कर रहे होंगे।'' रश्मि बोली।
      ''कोई बात नहीं, मैं घर में फोन कर देता हूँ, मम्मी को।''
      होटल में पहुँचे तो वहाँ काम करने वाले सभी कर्मचारी जसप्रीत काके को देखकर गदगद हो गए। सबने उसका स्वागत किया।
      जसप्रीत रश्मि की बाहों में बड़ी-बड़ी आँखों से सबको देख रहा था। उसकी सेहत, उसके सुन्दर नयन-नक्श देख देखकर सब खुश हो रहे थे।
      खाना खाने के बाद वह बाहर निकले। एक ड्राइवर कार की चाबी लेकर उनकी कार गेट तक ले आया।
      ''आज जसप्रीत को थोड़ी-सी बीच की सैर भी करा दें।'' संदीप बड़े मूड में था।
      ''पर इतने छोटे बच्चे को बीच पर इस वक्त ले जाना ठीक नहीं। घर ही चलते हैं।'' रश्मि ने कहा।
      ''अरे ! समुंदर की ठंडी हवा का मजा इसको भी लेने दे। बस, एक चक्कर... कार में ही। बाहर लेकर नहीं जाएँगे।''
      संदीप ने ज़ोर दिया।
      वे अभी कुछ ही दूर गए थे कि एक मोड़ पर एक वैन ने आकर संदीप की कार को ओवर टेक करने की कोशिश की और वैन कार से टकरा गई। उस तरफ़ रश्मि जसप्रीत को लेकर बैठी थी। वैन वाले ने भागना चाहा, पर उसकी वैन भी उलट गई।
      उस वक्त बीच के उस हिस्से में इक्का-दुक्का ही लोग थे। फिर भी कुछ लोग दौड़कर हादसे की जगह पर पहुँच गए। बड़ी मुश्किल से संदीप को कार में से निकाला गया। वह बेहोश था। तब तक पुलिस भी आ गई। लोगों की भीड़ को हटा दिया गया। रश्मि और बच्चे को कार में से निकालते-निकालते समय लग गया क्योंकि कार का दरवाज़ा टक्कर से जाम हो गया था। एम्बूलेंस जब तक उन सबको अस्पताल लेकर पहुँची तब तक किसी ने उनके घर भी ख़बर कर दी थी।
      ख़बर मिलते ही जस्सी और रघुबीर अस्पताल पहुँच गए। उधर, ज्योति के घर भी ख़बर पहुँचा दी गई। ज्योति और जसदेव भी जितनी जल्दी हो सकता था, अस्पताल पहुँच गए।
      आई.सी.यू. में से सबसे पहले डॉक्टर जसप्रीत को बाहर लेकर आए। वह बिलकुल ठीक था। संदीप और रश्मि अभी बेहोश ही थे।
      सारी रात यूँ ही बीत गई। ज्योति, जस्सी रो रोकर बेहाल थीं। हाथ जोड़-जोड़ कर परमात्मा से दुआ मांगतीं। रश्मि और संदीप मुंबई के सबसे अच्छे अस्पताल में बड़े योग्य डॉक्टरों की देख-रेख में थे। किसी चीज़ की कमी नहीं थी।
      दूसरे दिन शाम को रश्मि दम तोड़ गई। डॉक्टर ने उसको रीवाइव करने की बहुत कोशिश की, पर वह इतने ही साँस लिखवाकर आई थी।
      संदीप अभी भी बेहोश था। बीच-बीच में उसकी बेहोशी टूटती तो वह कुछ बुदबुदाता। ज्योति की हालत देखी न जाती। रश्मि का पोस्टमार्टम होना था।
      तीसरे दिन दोपहर में संदीप को होश तो आ गया, पर वह उठ नहीं सकता था। उसकी टांग और बांह में फ्रेक्चर था। पागलों जैसी हालत थी उसकी। वह रश्मि और जसप्रीत का नाम ले लेकर बेहाल था। शाम को जसप्रीत से उसको मिला दिया गया। उसको यही बताया गया कि रश्मि साथ वाले रूम में है।
      पूरा परिवार बेइंतहा पीड़ा से गुज़र रहा था। रश्मि की मौत की ख़बर आख़िर संदीप से कब तक छिपाई जा सकती थी। यह ख़बर सुनकर वह एकदम सुन्न हो गया। पत्थर की तरह। उसके पास जसप्रीत को लाया गया, पर तब भी वह पत्थर की मूर्ति बना रहा।
      ज्योति को दिलासा देने वाले शब्द झूठे लगते। किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि कोई क्या करे। जस्सी और रघुबीर का एक पैर अस्पताल में होता, दूसरा ज्योति की तरफ़ ! जसप्रीत को तो रुपिंदर चाची ही संभाल रही थी। जस्सी काके जसप्रीत को लेकर भी ज्योति की तरफ़ जाती, पर ज्योति को बहलाना बहुत ही कठिन कार्य था। ज्योति कभी विलाप कर कर रोती और कभी पत्थर बन जाती।
      संदीप को जब अस्पताल से घर लाया गया तो उसने एक ही रट लगा दी कि वह ज्योति मम्मी से मिलना चाहता है। रघुबीर और जस्सी, काके और संदीप को लेकर ज्योति के पास चले गए। वहाँ ज्योति और संदीप एक-दूसरे को देखकर फूट फूटकर रोये। लगता था कि यह रोना कभी ख़त्म नहीं होगा। सारी बिल्डिंग की दीवारें मानो हिल गई हों, मानो छत भी नीचे आ गिरेगी।
      जस्सी और रघुबीर की आँखें भी लगातार बरस रही थीं।
      जसप्रीत के रोने की आवाज़ ने सबका ध्यान बाँट दिया।
      ''मैं कुछ दिन ज्योति मम्मा के पास रहना चाहता हूँ।'' संदीप ने कहा।
      जस्सी बोली, ''बेटा, तेरी देखभाल तेरी ज्योति मम्मा से नहीं हो सकेगी। उनकी अपनी हालत भी ठीक नहीं।''
      ''फिर आप भी यहीं रह जाओ, जसप्रीत को लेकर।''
      जस्सी ने तुरंत यह बात मान ली।
      ''सारा कसूर मेरा है। रश्मि ने तो बहुत मना किया था। मैं ही उसको सी-बीच पर ले गया।'' संदीप बार-बार यही कहता रहता।
      घर के सदस्य उसको तसल्ली देते, ''जब आई हो तो बहाना बनना होता है। ईश्वर ने उसकी इतनी ही लिखी थी।''
      पर संदीप के मन को चैन न आता।
      ''मैंने अब रश्मि को तहेदिल से स्वीकार कर लिया था, पर मुझे यह साबित करने को मौका ही नहीं मिला।'' जस्सी मन ही मन सोचती और अपने आप को कोसती।
      रघुबीर अधिकतर चुप ही रहता। बहुत परेशान होता तो बीजी के पास जाकर बैठ जाता। अब वह होटल के कामों में बहुत कम दिलचस्पी लेता।
      एक रश्मि के जाने के बाद सारा घर उजड़ गया था। घर की सारी रौनक रश्मि अपने संग ले गई थी। किसी के चेहरे पर चमक नज़र न आती। भापा जी अरदास करने के समय भावुक हो जाते। उनकी आवाज़ भारी हो जाती। अरदास में रश्मि की आत्मा को वाहेगुरु के चरणों में स्थान देने की बात करते और बाद में सभी को इस असीम दुख को सहने की शक्ति देने के लिए अरदास करते।
      जस्सी तो जैसे बांवली हुई पड़ी थी।
      वह तो अपना बहुत सारा समय जसप्रीत को लेकर ज्योति के संग ही बिताती। उसको अपनी सहेलियाँ, किट्टी पार्टियाँ, महफ़िलें, मेकअप, गहने-जेवर सब कुछ भूल चके थे।
      ज्योति भी जसप्रीत को देख देखकर कुछ संभल रही थी। रश्मि के पिता जसदेव ने लंबे अरसे बाद फिर से काम पर जाना प्रारंभ कर दिया था।
      समय बहुत बलवान है। वह सबके ज़ख्मों को भरने का पूरा यत्न करता है। ज़िन्दगी जीने की प्ररेणा देता है।
      एक दिन भापा जी ने घर के सभी सदस्यों को इकट्ठा किया और इस दुख में से उभरने के लिए प्रोत्साहित किया।
      ''काम में लगा आदमी अपने दुखों को कुछ हद तक भूल जाता है।'' भापा जी ने ज़ोर देते हुए कहा।
      उधर बच्चे की किलकारियों ने ज्योति और जस्सी को अपने साथ बाँध लिया था।
      अब संदीप की दादी प्रेम और रुपिंदर चाची संदीप के लिए कोई योग्य लड़की तलाशने की योजनाएँ बनाने लगी थीं।
-समाप्त-

Saturday 1 December 2012

उपन्यास



मनुष्य-मन भी कैसा है। इस पल कुछ, अगले पल कुछ। जीवन भर मनुष्य को अपने आप से मुलाकात करने की फुसरत ही नहीं मिलती। वह अपने अन्दर झांकने का समय ही नहीं निकाल पाता और न ही अपने आप से बात कर पाता है। ऐसा भी संभव है कि वह अपने भीतर के अंधेरों, बुराइयों से डरता हो और कन्नी काटता रहता हो, इस आमने-सामने से ? परतें की पात्रा जस्सी भी तो यही करती रही। जब उसने अपने आप से मुलाकात की, अपने भीतर झांका और बातें की, तो उसे अपनी कमज़ोरियों का अहसास हुआ। हमें जीवन की भाग दौड़ में अपने आप से मुलाकात अवश्य करते रहना चाहिए।



उपन्यास परतें की 18 वीं किस्त आपके समक्ष है। आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर


18

हजूर साहिब पहुँच कर जस्सी की आँखों के आगे हर वक्त काके की प्यारी-सी शक्ल घूमती रहती। उसके नरम-नरम हाथ-पैर ! वह नींद में से कई बार हड़बड़ाकर उठ बैठती। प्रेम तो मुंबई जाने का अभी नाम ही नहीं लेना चाहती थी। उन्होंने सब गुरुद्वारों के दर्शन कर लिए थे। वे पाठ करतीं। पाठ सुनतीं। कीर्तन का आनन्द लेतीं। जस्सी का मन अक्सर उखड़ जाता। वह मुंबई फोन करके बच्चे का हाल पूछती रहती।
      ''बीजी, अब वापस चलना चाहिए। काके के बगैर मेरा दिल नहीं लग रहा। जब से वह पैदा हुआ है, मेरे पास ही रहता था। पता नहीं, रश्मि उसको कैसे संभालती होगी।'' जस्सी ने बीजी को वापस जाने के लिए मनाने की कोशिश की।
      ''रश्मि की मम्मी भी है न! संभालने दे उसको कुछ दिन। अब आए हैं तो कुछ दिन और यहाँ रह लें। कहाँ रोज़-रोज़ घर से निकलना होता है।'' बीजी ने जस्सी के दोनों हाथ पकड़ कर कहा।
      जस्सी चुप लगा गई।
      एक दिन प्रेम ने कहा, ''जस्सी बेटा, तूने मेरी एक इच्छा तो पूरी कर दी है। एक इच्छा और पूरी कर दे।'' बेहद अनुनय करते हुए वह बोली।
      ''आपका मतलब ?'' जस्सी ने हैरान होकर पूछा।
      ''यहाँ नज़दीक ही औरंगाबाद है। वहाँ मेरा भतीजा रहता है। मेरे स्वर्गवासी भाई की निशानी।'' बीजी का स्वर भारी हो गया था।
      ''मेरी इच्छा है, मैं उसको मिलती हुई जाऊँ। इतनी दूर आई हूँ। फिर कहाँ आना होगा मेरा इस तरफ़। अब तू मेरे संग आई है तो साथ तो पूरा निभाना पड़ेगा। ना मत करना।''
      जस्सी ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
      औरंगाबाद जाकर जस्सी का मन खूब लग गया। बीजी के भतीजे के बच्चे बहुत ही रौनक लगाने वाले थे। वह जस्सी को अजंता-एलोरा की गुफाएँ दिखाने ले गए। बीजी ने कहा, ''मैं अपनी जवानी में यहाँ के सभी स्थल देख चुकी हूँ। अब तो मैं इतना चल नहीं सकती, तू जा, देखकर खुश होगी।''
      वे दो दिन के लिए औरंगाबाद का प्रोग्रोम बनाकर आए थे, पर बीजी का भतीजा, उन्हें वहाँ से हिलने ही नहीं दे रहा था। कल, आज करते सप्ताह निकल गया।
      जस्सी ने संदीप को फोन करके कहा कि उसके मुंबई पहुँचने से पहले वह रश्मि और काके को जाकर ले आए।
      जस्सी और प्रेम जब मुंबई पहुँचीं तो रश्मि अभी भी मायके में थी। वह बहुत झुंझलाई पर, संदीप ने कहा, ''अभी वह अपनी मम्मी के पास कुछ दिन और रहना चाहती है तो रहने दो, मम्मी। अब आप कुछ दिनों के लिए आराम करो। जसप्रीत की नानी को सेवा करने का अवसर मिला है तो करने दो।''
      जस्सी चुप रही।
      उसने अपनी कुछ सहेलियों को फोन किए। एक सहेली से मिलने भी गई। लेकिन उसका दिल कहीं नहीं लगा।
      एक दिन वह रुपिंदर चाची के पास जा बैठी। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद बातों का विषय रश्मि और जसप्रीत पर केन्द्रित हो गया।
      ''तू इतनी उदास है, तो जाकर मिल आ उनसे।'' रुपिंदर चाची ने कहा।
      ''पर वहाँ वो माँ-बेटी भी तो होंगी।'' अकस्मात् जस्सी के मुँह से निकल गया। रुपिंदर आश्यर्चचकित-सी जस्सी की ओर देखती रह गई। जस्सी एकदम झेंप गई।
      ''तो क्या अभी भी उनके लिए तेरे दिल में कड़वाहट है ? घर में मैंने किसी को कहते सुना था कि तू हर वक्त जसप्रीत को अपने कब्ज़े में इसलिए रखती है ताकि तू ज्योति और रश्मि से बदला ले सके। मैंने यह बात मानी नहीं थी। परन्तु आज अचानक तेरे मुँह से यह जो निकला है... उफ्फ ! जस्सी तेरे से मुझे यह उम्मीद नहीं थी। दिल बड़ा कर। अपने दिल में से नफ़रत निकाल दे। यह नफ़रत तुझे ही नुकसान पहुँचा रही है। रघुबीर का अपना परिवार है, ज्योति का अपना परिवार। दोनों ने बहुत पहले अपने अपने रास्ते अलग कर लिए थे, परन्तु संयोग से रास्ते फिर आपस में मिल गए। पर उन्होंने तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा। तूने खुद ही संदीप और रघुबीर को अपने से दूर कर रखा है। मुझे तो लगता था कि दादी बनने के बाद तू बदल गई है...।'' रुपिंदर चाची बहुत कुछ कहती रही। जस्सी सब सुनती रही, बोली कुछ नहीं।
      जस्सी को रुपिंदर की बातों ने काफ़ी झिंझोड़ दिया था। वह अपने कमरे में आ गई। वह बहुत बेचैन हो गई थी। न कमरे में चैन, न बाहर टैरेस पर। उसने टी.वी. ऑन किया। दिल नहीं लगा। कुछ देर की छटपटाहट के बाद वह कार लेकर घर से बाहर निकल गई। बहुत देर तक यूँ ही कार में घूमती रही। उसे पता ही न चला कि कब वह मैरीन लाइन्ज़ पहुँच गई थी। वहाँ वह दीवार पर जाकर बैठ गई। समुद्र की उठती लहरों को देखती रही। उसके मन में एक तूफान मचा हुआ था। वह अपनी भावनाओं को समझने की कोशिश कर रही थी।
      ''क्या घर के सभी सदस्य मेरे भीतर उठते भावों को समझते थे, जानते थे ? क्या मैं जसप्रीत को इतना प्यार इसलिए करती थी कि रश्मि को चोट पहुँचे। क्या मैं यह सब कुछ जान-बूझकर कर रही थी या अनजाने में ?'' अपने मन की उथल-पुथल में वह उत्तर तलाशने की कोशिश कर रही थी।
      दूर क्षितिज पर सूर्य समुन्दर में समा रहा था। वह बडे गौर से डूबते हुए सूर्य को देखती रही। आसपास जहाँ तक नज़र जाती, आकाश में, पानी में लालिमा छाई थी। कुछ देर वह उस बिखरे सिंदूरी रंग का आनन्द लेती रही। यह दृश्य वह पहली बार नहीं देख रही थी। परन्तु जब भी वह इस दृश्य को देखती, उसका मन उदासी से भर जाता।
      अँधेरा पसरने लग पड़ा था। कुछ देर वह आँखें मूंदे बैठी रही। अचानक उसका ध्यान आसपास के लोगों की ओर गया। दूर-दूर तक दायें-बायें लोग दीवार पर बैठे थे। कुछ युगल, कुछ बच्चों के संग, कुछ अकेले। कुछ हटकर एक नारियलवाला नारियल बेच रहा था।
      जस्सी को एकाएक प्यास लग आई। वह उठी और नारियल लेकर नारियल पानी हल्के-हल्के सिप करने लगी। सींगदाने वाला करीब से गुज़रा तो उसने एक पैकेट खरीद लिया। उसे अपना पुराना ज़माना याद आ गया, जब वह कालेज की लड़कियों के साथ इसी तरह घूमने निकल जाती थी। लड़कियाँ कभी भेलपूरी, कभी पाव-भाजी, भजिया(पकौड़े) या सींगदाना, चना लेकर खाया करती थीं। वह समय कितना पीछे छूट गया था। वो सपनों की दुनिया पता नहीं कहाँ लुप्त हो गई थी।
      वह गुज़रे ज़माने की याद में ही खोई हुई थी कि करीब ही एक भिखारिन ने उसकी बांह को छुआ। उसने एक बच्चा गोद में उठा रखा था। दूसरे बच्चे को उसने उंगली लगा रखा था। वह कुछ मांग रही थी। उसकी आवाज़, उसके हाव-भाव, सबमें मिन्नत-याचना भरी हुई थी। कोई और समय होता तो वह डांट-डपट देती, पर आज उसके मन की स्थिति कुछ ऐसी थी कि उसने भिखारिन को नारियल लेकर दिया और कुछ पैसे भी दे दिए।
      वह पुन: वहाँ बैठकर अपने बारे में सोचने लग पड़ी।
      ''मैंने खुद ही अपने इर्दगिर्द मकड़ी का जाला बुन लिया है और उसी में फंसी पड़ी हूँ...। मैंने स्वयं ही अपने पुत्र को अपने आप से दूर किया है। रघुबीर भी मेरे बारे में क्या सोचता होगा।''
      रात काफ़ी घिर आई थी। आसपास भीड़ कम हो रही थी। परंतु उसका दिल वहाँ से उठने को नहीं हो रहा था। हवा में सुखद ठंडक थी। उसके मन को बड़ा सुकून मिल रहा था।
      ''मैं इस तरह बग़ैर बताये कभी घर से बाहर तो रही नहीं। शायद, मेरी खोज शुरू हो गई हो। मुझे घर लौट जाना चाहिए। घर में खबर कर देनी चाहिए। घर पहुँचने में भी तो वक्त लगेगा।''
      लेकिन, जस्सी न वहाँ से उठी और न ही उसने घर में फोन किया। इसी तरह कु समय और बीत गया। अचानक उसको लगा कि वह बीच पर अकेली रह गई है। उसने दायें-बायें दृष्टि घुमाई तो दीवार पर इक्के-दुक्के लोग ही बैठे थे। वह एकदम उठकर कार की ओर दौड़ पड़ी। राह में कई जगह ट्रैफिक जाम होने के कारण घर पहुँचने में उसको काफ़ी समय लग गया।
      घर पहुँची तो देखा, सारा परिवार हॉल में इकट्ठा हुआ पड़ा था। सबके चेहरों पर चिंता और घबराहट थी। उसे देखकर सभी उससे कुछ न कुछ पूछने लग पड़े-
      ''कहाँ गई थी ? क्या हुआ ?''
      ''तबीयत तो ठीक है न ?''
      उसको कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह क्या उत्तर दे।
      ''मैं बिलकुल ठीक हूँ।'' वह चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट लाकर बोली।
      रुपिंदर चाची उसके पास आकर बैठी और धीमे स्वर में पूछा-
      ''मेरी बात का बुरा मान गई थी ?''
      ''नहीं, चाची जी। ऐसी कोई बात नहीं।'' उसने चाची का हाथ दबाते हुए कहा।
      सब लोग चले गए तो संदीप मम्मी के पास आ बैठा, ''मम्मी, आप ठीक हो न ?''
      ''हाँ-हाँ, बिलकुल ठीक हूँ। वैसे ही आज ज़रा समुन्दर के किनारे चली गई थी।''
      ''रश्मि भी बड़ी चिंता कर रही थी। उसको मैंने फोन पर बता दिया है कि आप घर आ गए हो।''
      ''उसका नंबर मिला दे, मैं उसके साथ बात करती हूँ।''
      बहुत सहजभाव ने जस्सी रश्मि से बातें करती रही। काके का हाल पूछती रही। उसके बाद उसने ज्योति के साथ भी बड़ी देर तक बात की।
      घर के सभी सदस्यों ने राहत की साँस ली। रघुबीर अपने कमरे में आया तो जस्सी को अपने आलिंगन में लेते हुए बोला, ''तुमने तो हमें डरा ही दिया था।'' उस रात वे इस तरह मिले जैसे बरसों से बिछड़े हों।
(जारी…)

Thursday 15 November 2012

उपन्यास



मित्रो, हमारा देश भारत भिन्न-भिन्न पर्वों-त्योहारों का देश है। इन पर्वों-त्योहारों को सभी जातियों, वर्गों के लोगों द्बारा जब एक साथ मनाते देखती हूँ तो भीतर एक खुशी की लहर दौड़ जाती है। दो दिन पूर्व ही दीपपर्व दीपावली का त्योहार मनाया गया। अंधेरे से लड़ने की ताकत देता यह रौशनी का त्योहार छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको एक कर देता है। सोचती हूँ, त्योहारों को मनाने की बात जब सोची गई होगी, उसके पीछे शायद यही मंतव्य रहा होगा कि समाज का हर प्राणी, चाहे वह किसी भी जाति का हो, रंग का हो, छोटा हो, बड़ा हो, सबको एक ही खुशी के सूत्र में पिरोना है। पर एक दिन हम भेदभाव मिटा कर रंगों की होली खेल लेते है, एक दिन परस्पर मिल बैठ कर रौशनी का पर्व दीपावली मना लेते है, पर वर्ष के शेष दिनों में यह परस्पर प्रेम, सौहार्द की भावना हमारे भीतर नहीं रहती। हमारे भीतर से  ये नफ़रत, द्बेष, ईर्ष्या, ऊँच-नीच का भाव हमेशा हमेशा के लिए निकले तभी सच्ची दीवाली है, सच्ची होली है।



उपन्यास परतें की 17 वीं किस्त आपके समक्ष है। आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

17

एक दिन डॉक्टरों ने सीज़ेरियन करने का फ़ैसला कर लिया। सारा परिवार अरदास कर रहा था। प्यारा-सा, गुलगुला-सा बच्चा इस दुनिया में आ गया। उस समय जस्सी भी अस्पताल में ही थी। नर्स ने सबसे पहले बच्चे को जस्सी की गोदी में दे दिया। वह खुशी में फूली नहीं समा रही थी। उसके अन्दर ममता की लहरें उमड़-उमड़ पड़ रही थीं। उसकी आँखें खुशी के आँसुओं से छलछला आईं। उसने लपक कर रश्मि का माथा चूम लिया, एक बार नहीं, तीन-चार बार। दूर खड़ी ज्योति को उसने कसकर बांहों में भर लिया।
      ''हूबहू मेरे संदीप पर गया है...'' वह बार-बार यही वाक्य दुहरा रही थी। पूरा परिवार भी जस्सी के इस उमड़ते प्यार पर बहुत खुश था।
      रश्मि नर्सिंग होम से घर आई तो जस्सी दिन-रात बच्चे को अपने पास ही रखती। बस, दूध पिलाने के लिए वह बच्चे को रश्मि की गोद में देती। बच्चे की मालिश करना, उसे नहलाना-धुलाना, सब उसने अपने ऊपर ले लिया। वह टी.वी. सीरियल, किट्टी पार्टियाँ, ब्यूटी पार्लर, सहेलियों के साथ गप्प-शप्प, सबकुछ भूल गई थी। अब घर में उसके गुनगुनाने की आवाज़ें, लोरियों के स्वर गूंजते रहते। इतना खुश जस्सी को कम ही किसी ने देखा था।
      बच्चा चालीस दिन का हुआ तो परिवार ने अखंड पाठ का भोग घर में रखवाया। पहला अक्षर '' निकला। लड़के की पड़दादी यानी प्रेम ने कहा, ''बच्चे का नाम जसप्रीत रखो।''
      पास खड़ा संदीप बोला, ''दादी जी, आजकल छोटे नाम रखने का रिवाज़ है।''
      ''ठीक है, तू जस बुला लिया करना। नहीं तो प्रीत। लड़के की पड़दादी को जसप्रीत नाम पसन्द है तो यही ठीक है। इसी नाम की अरदास कर दो।'' रघुबीर बोला।
      ''रश्मि की सलाह भी ले लो।'' पास से रुपिंदर चाची भी बोली।
      ''जो बड़े कहें, सिर माथे पर...।'' रश्मि मुस्करा कर बोली।
      रात में डिनर अपने होटल में ही रखा गया। खाना, पीना, नाचना। देर रात तक जश्न मनाया गया। इस सारे जश्न के दौरान जस्सी ने काके जसप्रीत को अपनी गोदी से अलग नहीं किया।
      रुपिंदर ने प्रेम से पूछा, ''आपने काके का नाम जसप्रीत क्यों रखा है। कोई खास कारण है ?''
      ''तू समझ ही गई है।'' प्रेम ने मुस्करा कर कहा।
      ''पर फिर भी...।'' रुपिंदर ने सवालिया नज़रों से प्रेम की ओर देखा।
      ''जस्सी का प्यार देखा है तूने काके के लिए ?'' प्रेम ने रुपिंदर की ओर घूरती आँखों से देखते हुए पूछा।
      ''हाँ, वो तो देख रही हूँ। वह सिर्फ़ दूध पिलाने के लिए रश्मि के पास ले जाती है बच्चे को।'' रुपिंदर कुछ सोचती हुई बोली।
      ''ज्योति ने काके को अपनी गोदी में लेना चाहा तो जस्सी ने मुस्करा कर कुछ बहाना बना दिया। बाद में बस थोड़ी देर के लिए उठाने दिया। ज्योति बेचारी मायूस होकर चुप-सी अलग होकर बैठ गई।'' प्रेम बोली।
      ''जस्सी को ऐसा नहीं करना चाहिए था'' रुपिंदर उदासी भरी आवाज़ में बोली।
      कुछ दिन पश्चात् ज्योति ने फोन करने शुरू कर दिए कि वह रश्मि और काके को लेने आना चाहती है। जस्सी कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देती। रश्मि ने भी मायके जाने की इच्छा प्रकट की, पर जस्सी ने उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। विवश हो रश्मि ने संदीप से कहा तो संदीप मम्मी से बोला,
''मम्मी, कुछ दिन के लिए रश्मि को मायके छोड़ आते हैं। उसकी मम्मी भी बहुत कह रहे हैं।''
''अच्छा तो तू सिफारिश लाया है ? किसकी है ? अपनी बीवी की या अपनी सास की ?''
      संदीप माँ की आवाज़ में भरी कड़वाहट को भाँप गया था।
      'तो क्या मम्मी के मन में अभी भी कड़वाहट है, रश्मि के लिए ? रश्मि की मम्मी के लिए ? पर अब काके को लेकर वह तो बहुत खुश हैं। हर वक्त चहकते रहते हैं। काके के पैदा होने के बाद से तो उनका रंग-ढंग, तौर-तरीका सब बदल गया है।'
      उसने यही बात रघुबीर से की तो वह बोले, ''रश्मि ने तेरी माँ से तुझे छीना है, अब उसने रश्मि का पुत्र उससे छीनकर हिसाब बराबर कर दिया है।''
      ''क्या मतलब ?'' संदीप के चेहरे पर परेशानी साफ़ झलक रही थी।
      ''बस, तेरी मम्मी शुरू से ही काबिज़ स्वभाव की रही है।''
      ''पर रश्मि की मम्मी भी बच्चे के साथ कुछ वक्त बिताना चाहती है।''
      ''कुछ सोचते हैं, घबरा नहीं बेटे।'' रघुबीर ने चेहरे पर मुस्कराहट लाने की कोशिश करते हुए कहा।
      कभी वो भी वक्त था जब अपनी हर समस्या के लिए संदीप मम्मी की अदालत में जाकर अपील करता था, पर अब मामला बिलकुल उलट था। मम्मी से उसके डायलॉग नपे-तुले होते। पर अपने पापा के साथ उसका संबंध पिता-पुत्र वाला कम और दोस्तों वाला अधिक था।
      उस रात काम से वापस आकर रघुबीर अपनी बीजी के पास चला गया। सारी बात सुनकर बीजी हँसने लग पड़े।
      ''चलो, देखते हैं। भेजेगी कैसे नहीं रश्मि को।'' थोड़ी देर के अंतरात के बाद बीजी आँखों में शरारत भरकर बोले,
''कहे तो काके की नानी को यहीं ले आएँ।''
रघुबीर बीजी के इस मज़ाक पर बड़ा हैरान हुआ, पर बीजी को मुस्कराते देख वह भी मुस्करा पड़ा।
''आजकल बीजी भी मूड में हैं। पड़दादी का दर्जा जो मिल गया है।'' रघुबीर मंद मंद मुस्कराता अपने कमरे में आ गया।
दो-तीन दिन बाद प्रेम जस्सी के पास गई। काका सो रहा था। जस्सी चाय की चुस्कियाँ भर रही थी।
कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद प्रेम बोली,
''जस्सी बेटा, क्या रश्मि की मम्मी ने इसको मायके नहीं ले जाना ? कमाल है, काका ढाई महीने का हो गया है, पर अभी तक वे लेने नहीं आए।''
''बीजी, उनके तो खूब सन्देशे आ चुके हैं। मेरा ही मन नहीं मानता, बच्चे को अपने से अलग करने को।'' जस्सी के चेहरे को प्रेम गौर से देख रही थी। उसके चेहरे पर ममता के साथ-साथ एक विजय-भाव भी था।
''जस्सी, मैंने एक मन्नत मांगी थी। हज़ूर साहब के दर्शन करने की। तू मेरे साथ चल। हम वहाँ हफ्ता भर रहेंगी। साथ ही गुरू लंगर की सेवा करेंगी। रघुबीर के भापा जी तो जाने को तैयार नहीं। लड़के कामकाज वाले हैं। देखना, इंकार न करना। तेरे साथ ही जाने का मन है। रश्मि जब मायके जाए, तब का प्रोग्राम बना लेंगे। जल्दी बताना।''
जस्सी सोच में पड़ गई- 'बीजी, मेरे साथ ही क्यों जाना चाहते हैं ! वह तो बड़ा ज़ोर देकर कह रहे हैं ! मना कैसे करूँ ? चलो, एक हफ्ते की ही तो बात है।'
उसने रश्मि को भेजने का प्रोग्राम बना लिया और बीजी के साथ हजूर साहिब जाने की तैयारी करने लग पड़ी।
(जारी…)

Saturday 3 November 2012

उपन्यास



मित्रो, उपन्यास परतें की 16वीं किस्त आपके समक्ष है। कभी कभी हम जीवन में अपनी कुछ ग़लतफ़हमियों का शिकार होकर ज़िन्दगी के बहुत से खूबसूरत पलों को अपने से दूर कर देते हैं और जब होश आता है तो सिवाय पश्चाताप के कुछ हाथ नहीं आता। अपनी रीढ़ को सीधा रखना और गर्दन न झुकाना बेशक स्वाभिमान का पर्याय माना जा सकता है, पर जीवन में ऐसे बहुत से बेशकीमती पल होते हैं, जिन्हें पाने के लिए, उनका आनंद लेने के लिए, ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाने के लिए, हमें अपनी रीढ़ को कुछ लचीला भी बनाना पड़ता है। आखिर जस्सी ने अपनी जिद्द को छोड़ अपनी बहू रश्मि को अपनाना शुरू किया, यह परिवर्तन जीवन का ही एक अहम हिस्सा है। ऐसे परिवर्तन जीवन में न हों तो जीवन शुष्क और उबाऊ हो जाएगा।
आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर
16

एक दिन सुबह-सवेरे रश्मि की तबीयत बहुत खराब हो गई। डॉक्टर को घर बुलाया गया तो पता चला कि घर में एक नया जीव आने वाला है। सब बहुत खुश थे। अब संदीप सुबह के समय काम पर देर से जाता। वह अपने हाथों से फल काटकर रश्मि को देता। शाम को भी जल्दी लौटने की कोशिश करता। एक दिन संदीप के जाने के बाद जस्सी रश्मि को मुँह चिढ़ाकर बोली-
      ''हूँह ! मेरा बेटा तो जोरू का गुलाम हो गया।''
      रश्मि चुपचाप उठकर अपने कमरे में चली गई। न चाहते हुए भी उसकी आँखे सजल हो उठीं।
      एक दिन जस्सी अवसर मिलते ही बोली, ''तू क्या दुनिया से हटकर बच्चा पैदा करने वाली है। आजकल महारानी की तरह सेवा करवा रही है।''
      रश्मि प्रयत्न करती कि ये बातें वह दिल पर न लगाए, पर ऐसे कटु वचन उसको अन्दर तक ज़ख्मी कर देते। वह आजकल अपना अधिक से अधिक समय संगीत की तरफ लगाती।
      ''मैं कुछ दिन के लिए मम्मी-पापा के पास जाना चाहती हूँ।'' एक दिन रश्मि ने संदीप से कहा।
      ''क्यों ?''
      ''मेरा दिल कर रहा है। जब से विवाह हुआ है, मैं कभी भी एक दिन से अधिक मम्मी के पास नहीं रही। प्लीज़...।''
      ''ओ.के.। तैयार हो जाना। शाम को छोड़ आऊँगा।''
      जस्सी ने तो यह बात अनसुनी कर दी। पर जाने से पहले वह दादी जी को मिलने गई तो उन्होंने कहा, ''बेटा, तेरे बग़ैर घर में रौनक ही नहीं रहेगी। पर तेरा दिल है तो चली जा। फिर जल्दी आ जाना।'' उसका माथा चूमते हुए दादी ने कहा।
      शाम को संदीप रश्मि को उसके मायके छोड़ आया। ज्योति बहुत खुश थी। अब ज्योति और रश्मि अपना सारा वक्त एकसाथ बितातीं। रश्मि के पिता सवेरे ही काम पर निकल जाते। ज्योति और रश्मि की पसंद लगभग एक-सी ही थी। वह कभी किसी चित्रकला प्रदर्शनी में जा रही होतीं, तो कभी किसी संगीत सम्मेलन में।
      शाम के समय संदीप फुर्सत पाकर अक्सर ही रश्मि की ओर चला जाता। कई बार रात भी वहीं ठहर जाता। घर में अपनी मम्मी को ख़बर अवश्य कर देता। रश्मि के पापा और संदीप की बातों का विषय अधिकतर क्रिकेट या राजनीति होता। रघुबीर फोन करके रश्मि का हाल पूछ लेता। रश्मि दादी जी और चाचियों को अक्सर ही फोन करती रहती, परन्तु जस्सी मम्मी को फोन न करती। अंदर ही अंदर उसका दिल चाहता कि कभी जस्सी मम्मी फोन करके उसका हाल पूछ लें, पर उसकी यह इच्छा पूरी न हुई।
      एक रात खाने की मेज़ पर जब सभी बैठे थे तो मनजीत सिंह जस्सी की तरफ़ देखकर बोले-
      ''जस्सी बेटे, रश्मि को कब ला रहे हो ?''
      जस्सी बोली, ''न वो मेरे से पूछ कर गई है, न ही मेरे कहने पर आएगी।''
      ''तू एक बार कहकर तो देख।'' प्रेम ने कहा।
      ''इस हाल में उसका खुश रहना चाहिए, नहीं तो बच्चे पर असर पड़ेगा।'' रघुबीर बोला।
      ''यहाँ उसको नाखुश कौन करता है ? अगर वह वहाँ अधिक खुश है तो वहीं रहे, अभी।'' जस्सी बुदबुदाती हुई वहाँ से उठकर चली गई।
      जस्सी, सास-ससुर के सामने ऐसे कभी नहीं बोली थी, मुँह बेशक फुलाये रखे। सब एक दूसरे के चेहरों की ओर हैरानी से देखते रहे। कुछ पल की चुप्पी के बाद संदीप बोला-
      ''मैं एक दो दिन बाद रश्मि को ले आऊँगा।''
      ''मुझे भी संग ले चलना संदीप बेटे।'' प्रेम बोली।
      दो दिन बाद संदीप और प्रेम रश्मि को लेने गए तो उसका अभी आने को दिल नहीं कर रहा था, पर दादी जी को वह कुछ कह ही नहीं सकी।
      घर आकर फिर वही रूटीन शुरू हो गई। रश्मि गानों के कैसेट लगाकर सुनती रहती। जब दादी के पास आकर बैठती तो कीर्तन की कैसेटें लगा देती।
      इस बार वह मम्मी के पास रहकर क्रोशिया चलाना सीख आई थी। वह गाने सुनते हुए क्रोशिये से एक महीन लैस बनाती रहती। जब लैस बन गई तो दादी को देते हुए बोली-
      ''दादी जी, यह लैस मैंने आपके लिए बनाई है। दुपट्टे पर लगवा लेना।''
      चाची ने उसका माथा चूमकर उसको गले से लगा लिया।
      ''बहुत सुन्दर है। पर बेटी, इसे मम्मी को देना था। वो खुश हो जाती।''
      ''दादी दी, मम्मी जी मुझसे कभी खुश नहीं हो सकते। चाहे मैं अपनी जान...।'' रश्मि की आवाज़ भारी हो उठी थी।
      ''न बेटा, ऐसे अशुभ बोल मुँह से मत निकाल। ईश्वर की कृपा से सब ठीक हो जाएगा।'' दादी ने उसको अपने गले से लगाकर कस लिया। रश्मि फूट फूटकर रोने लग पड़ी।
      दादी ने रश्मि को सदैव हँसते-चहकते ही देखा था। उसके चेहरे पर कभी मलाल नहीं देखा था। उसको इस प्रकार हिचकियाँ भरकर रोते देख दादी का दिल दहल गया। उस दिन उसने रश्मि को अपने कमरे में ही खाना मंगवाकर खिलाया। वहीं दादी की कमरे में ही दोपहर को रश्मि की आँख लग गई।
      रश्मि को सोता छोड़कर वह जस्सी के कमरे में चली गई। वह टी.वी. पर कोई कार्यक्रम देख रही थी। जस्सी भौंचक्क-सी सास के चेहरे की ओर देखने लगी।
      ''जस्सी, तू जो व्यवहार रश्मि के संग कर रही है, वो ठीक नहीं। न उसके लिए, न ही उसके बच्चे के लिए। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। वैसे यह बता कि तू उसको किस बात की सज़ा दे रही है। अच्छा तो यही है कि तू उसको गले लगा ले, नहीं तो संदीप भी तेरा नहीं रहेगा। यह बात याद रखना। ज़िन्दगी दिल में गाँठें बाँधकर नहीं चल सकती। तू समझदार है। रश्मि की कद्र कर। वह गुणवान लड़की है। प्यार करेगी तो प्यार पाओगी। मेरी ये बातें पल्ले बाँध ले...।''
      खड़े खड़े ही एक ही साँस में प्रेम यह सब कहकर बाहर चली गई। जस्सी हैरान-सी बुत बनी, कुछ देर बैठी रही। भारी मन से उठकर वह टैरेस पर आई और कितनी ही देर बाहर सड़क पर टकटकी लगाकर ट्रैफिक और आते-जाते लोगों को देखती रही। चौराहे पर ट्रैफिक जैम था। कुछ देर बाद हरी बत्ती होने पर बसें, कारें, टैक्सियाँ फिर अपनी गति से चलने लगीं। जस्सी की आँखों में से अपने आप आँसू बह निकले। कितनी ही वह चुपचाप रोती रही। जब मन कुछ हल्का हुआ तो टैरेस पर चहल-कदमी करने लग पड़ी। धूप के साये ढल रहे थे।
      वह अपने बारे में सोचने लगी। संदीप विवाह के बाद उससे बहुत दूर हो गया था। आजकल वह अपने पापा के अधिक करीब हो गया था। रघुबीर भी उससे खिंचा खिंचा-सा रहता।
      'क्या इस सबका कारण मैं हूँ ?' उसके मन में एक लम्बा मंथन चलता रहा। उस रात न तो उसके गले से रोटी नीचे उतरी और न ही सारी रात वह सो सकी।
      दूसरे दिन नाश्ते की मेज़ पर जब जस्सी ने रश्मि के टोस्ट पर मक्खन लगाकर दिया तो सब हैरान होकर उसकी ओर देखने लगे। प्रेम के चेहरे पर एक मंद मंद मुस्कान खेल रही थी - बड़ी प्यारी-सी मुस्कान।
      उस दिन के पश्चात् जस्सी रश्मि की 'सतिश्री अकाल' का जवाब देने लग पड़ी थी। अब वह रश्मि के साथ कोई बात भी साझी कर लेती। खाने की मेज़ के इर्द-गिर्द जो तनाव घूमता रहता था, वह लगभग गायब हो गया था।
      रश्मि को सातवां महीना लगा तो 'रीतों' के लिए वह अपने मायके चली गई। ज्योति ने रश्मि की ससुराल की सभी स्त्रियों को अपने घर पर बुलाया। घर में खूब रौनक हो गई। जस्सी भी ज्योति के पास बैठकर सहज भाव से बातें करती रही। घर के शेष सदस्य उसमें आए इस परिवर्तन पर हैरान भी थे और खुश भी।
      रश्मि के आठवां महीना लगा तो अचानक एक दिन उसके सिर में तेज़ दर्द उठा। डॉक्टर को बुलाया गया तो पता चला कि ब्लॅड प्रैशर बहुत हाई था। डॉक्टर ने नमक कम करने के लिए, खुश रहने के लिए और सैर करने के लिए कहा।
      अब संदीप काम पर देर से जाता। घर जल्दी लौट आता। रघुबीर खुद भी रश्मि का हाल पूछने के लिए विशेष तौर पर उसके कमरे में चला जाता। जस्सी भी रश्मि के समीप बैठ कर उसके साथ बातचीत करती, हँसकर बोलती। बीच बीच में रश्मि के मम्मी-पापा भी उसका हालचाल पता करने आ जाते।
      अभी नौवां महीना लगा ही था कि रश्मि की तबीयत ज्यादा खराब रहने लग पड़ी। उसको नर्सिंग होम दाख़िल करना पड़ा। पूरे कुटुम्ब को रश्मि की बहुत चिंता थी। ज्योति भी रश्मि के पास नर्सिंग होम में आ गई। वह उससे एक पल के लिए भी दूर न होती। संदीप ने भी काम पर जाना छोड़ दिया था। शाम के वक्त बारी बारी से घर के सभी सदस्य रश्मि को मिलने जाते। जस्सी भी शाम को रोज़ चक्कर लगाती। प्यार से रश्मि के सिर पर हाथ फेरती। उसका माथा चूमती।
      ब्लॅड-प्रैशर को नीचे लाने के सभी यत्न हो रहे थे। रश्मि को खुश रखने के सारे गुर अपनाए जा रहे थे। हफ्ते बाद उसका ब्लॅड-प्रैशर नार्मल हो गया तो सब ने सुख की साँस ली।
(जारी…)

Monday 15 October 2012

उपन्यास



मित्रो, यह आपका प्यार ही है जो मुझे अपने उपन्यास परतें को किस्त-दर-किस्त आपके समक्ष प्रस्तुत करने की शक्ति और हौसला दे रहा है। अब तक 14 किस्तें आप पढ़ चुके हैं, अब 15वीं किस्त आपके सम्मुख है। आपका हुंकारा ही इसकी निरन्तरता को बनाए हुए है और भविष्य में भी बनाए रखेगा, ऐसी मुझे आशा है। अपनी राय से अवश्य अवगत कराइएगा।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

15

संदीप और रश्मि हनीमून से लौटे तो उनके चेहरे खुशी में चमक रहे थे। वे परिवार के सभी सदस्यों के लिए कुछ न कुछ सौगात लेकर आए थे। वह नई देखी जगहों के बारे में बड़े उत्साह से बता रहे थे। ज्यादा बोलने वाला तो संदीप ही था, पर रश्मि भी बीच बीच में कुछ न कुछ बता रही थी।
      दूसरे दिन उन्होंने रश्मि के मायके जाने का कार्यक्रम बना दिया था। ज्योति का फोन आया था कि मम्मी, पापा को संग लेकर आएँ। पर जस्सी ने जाने से साफ़ इंकार कर दिया था। उसके न कर देने पर रघुबीर ने भी न जाने का कोई बहाना खोज लिया था।
      कुछ दिन पश्चात् ज्योति के घरवालों ने रघुबीर के पूरे परिवार को खाने पर बुलाया - दादा, दादी, चाची, चाचा और उनके बच्चे ! जस्सी उस दिन भी न जाने का बहाना खोजने लग पड़ी थी, पर प्रेम ने डांट दिया था और उसको जाना पड़ा।
      वहाँ पहुँचकर वह आगे बढ़कर ज्योति से नहीं मिली। बस, यूँ ही रस्मी-सा हाथ हिला दिया और रुपिंदर चाची के पास बैठ कर हँस-हँस कर बातें करती रही। जस्सी के इस व्यवहार पर लगभग हर किसी की नज़र पड़ी। संदीप और रश्मि ने भी देख लिया था। रात को घर आए तो संदीप ने मम्मी को कुछ नहीं कहा परन्तु पापा से उसने अवश्य कहा-
      ''पापा, आज मम्मी वहाँ रश्मि के परिवार के साथ कितना रूखा सलूक कर रही थीं।''
      ''बेटा, फिक्र न कर। धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। बस, मम्मी का ख़याल रखना। रश्मि से भी कहना कि वह मम्मी की तरफ़ विशेष तौर पर ध्यान दे। उसका दिल जीत ले।'' रघुबीर ने पुत्र को अपने सीने से लगाते हुए कहा।
      कुछ दिन बाद संदीप रघुबीर के साथ काम पर जाने लग पड़ा। रश्मि दोपहर को जस्सी के पास आकर बैठ जाती। जस्सी रश्मि से कोई एक आध बात करती और जानबूझ कर किसी काम का बहाना बनाकर वहाँ से उठ जाती। रश्मि अपनी समझ के अनुसार हर प्रकार से जस्सी का दिल जीतने की कोशिश करती, पर जस्सी ने तो रश्मि के विरुद्ध मन में गाँठ बाँधी हुई थी। मौका-बेमौका कोई न कोई चुभती बात कह देती। कभी व्यंग्य में ताना दे देती। रश्मि रुआंसी हो उठती, परन्तु कहती कुछ नहीं थी।
      कुछ दिन बाद उसने जस्सी के कमरे में जाना बन्द कर दिया। कभी कभी वह संदीप की दादी प्रेम के पास जाकर बैठ जाती। वहाँ कई अवसरों पर स्वर्ण और रुपिंदर चाची भी आ जातीं। उनके बच्चे भी आ जाते। वे सब रश्मि के साथ खूब लाड़ जताते। रश्मि को गाने के लिए फरमाइश करते रहते। वहाँ उसका समय हँसते-खेलते बीत जाता। जस्सी को भी सन्देशा भेजा जाता, आने का, पर वह सिर दर्द का या कोई और बहाना बना देती। संदीप, रघुबीर और प्रेम किसी न किसी ढंग से जस्सी को समझाने का यत्न करते, पर उसके कानों पर जूं न रेंगती।
      धीरे धीरे रश्मि अपने कमरे में सिकुड़ कर रह गई। संदीप के जाने के बाद वह कुछ समय योगा करती। कुछ देर के लिए टी.वी. पर अपनी पसंद का कोई प्रोग्राम देखती। उसको रोने-धोने वाले कार्यक्रम पसंद नहीं थे। दोपहर को खाना खाने के पश्चात् वह कोई किताब लेकर बैठ जाती। साथ ही, मद्धम स्वर में कोई गाना लगा लेती। संदीप दिन में तीन-चार बार फोन करके उसका हाल-चाल पूछता रहता। उसकी मम्मी का फोन भी दिन में एक बार अवश्य आता या फिर वह स्वयं कर लेती। शाम को कई बार वह घर से बाहर निकल जाती। बुक-सेंटर से कुछ पत्रिकाएँ खरीद लाती। रात में खाने के बाद संदीप के साथ बीच पर लंबी सैर के लिए निकल जाती। वहाँ वे अपनी पसंद की आइसक्रीम खाते और चहलकदमी करते हुए घर लौट आते। संदीप काम के सिलसिले में जब मुंबई से बाहर जाता तो कई बार रश्मि को संग ही ले जाता।
      जस्सी यद्यपि रश्मि की शक्ल देखकर मुँह मोड़ लेती, पर फिर भी बाहर जाने से पहले रश्मि जस्सी को बताकर जाती।
      विवाह के बाद शुरू-शुरू में वह मम्मी के इस तरह के व्यवहार से दुखी हो जाती। कई बार अकेले में रो भी पड़ती, पर धीरे-धीरे उसने हालात से समझौता कर लिया था। समय बीतने पर उसने अपने आप को एक गैर-सरकारी समाज सेवी संस्था से जोड़ लिया था। वहाँ वह ज़रूरतमंद लोगों के लिए काम करके बहुत संतुष्ट रहती थी।
      सप्ताह में दो बार वह सेमी-क्लासिकल संगीत सीखने चली जाती।
      ''रश्मि बेटी, तू कौन सी संस्था में काम करने जाती है ? ज़रा समझा तो।'' एक दिन प्रेम ने प्रेम से उसका सिर सहलाते हुए उसको करीब बिठाकर पूछा।
      ''दादी जी, यह संस्था बेघर, अनाथ बच्चों के लिए काम कर रही है। मैं भी वहाँ जाकर उनका हाथ बंटाती हूँ। मुझे यह काम बहुत अच्छा लगता है।''
      ''इसका तुझे क्या लाभ है ?''
      ''मेरी आत्मा को सुख मिलता है। मेरे पास वक्त है। साधन हैं। वहाँ जाकर देखो तो पता चलता है कि अनाथ होने का क्या अर्थ है, गरीबी क्या है। उनका दुख-दर्द देखकर, सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।''
      ''तू तो बेटा, बड़ा नेक काम कर रही है। परमात्मा तुझे सुख दे। तू खुश रहे। पर तू कभी किसी किट्टी पार्टी या ताश क्लब में क्यों नहीं जाती? आजकल तो सभी लड़कियों की दिलचस्पी इन्हीं चीजों में अधिक है। फिर हर हफ्ते पार्लर जाना, शॉपिंग करना...।''
      रश्मि समझ गई कि दादी जी का इशारा जस्सी की ओर है।
      ''ये तो अपने-अपने शौक हैं, दादी जी।'' रश्मि ने सहज भाव से कहा।
      ''मुझे तेरे शौक बहुत पसंद हैं बेटी। जीती रह। खुश रह।''
      उस शाम प्रेम ने घर के सभी सदस्यों को खुशी-खुशी रश्मि की इन रुचियों के बारे में बताया।
      रघुबीर रश्मि के प्रति अपना स्नेह जस्सी की अनुपस्थिति में ही जतलाता। रश्मि इस बात को समझ गई थी।
      संदीप के दादा जी सं. मनजीत सिंह कभी-कभी रश्मि को पास बिठा लेते और उससे इन संस्थाओं के बारे में पूछते। कभी वह संगीत के विषय में भी पूछ लेते।
      ''तू गुरबाणी के शबद भी गाने सीख ले। फिर हम घर में ही एक रागी जत्था तैयार कर लेंगे। क्या ख़याल है ?'' वह हँसते हुए कहते।
      ''ख़याल तो बहुत अच्छा है। कुछ शबद तो मैंने मम्मी से बचपन में सीखे थे। अभी भी याद हैं।''
      ''अब जब खुले भोग का पाठ डालेंगे तो तू शबद सुनाना।''
      ''जी ! ज़रूर ।''
      ''रश्मि बेटा, तूने खुश कर दिया है। परमात्मा तुझे भाग लगाए। आज तो आत्मा प्रसन्न हो रही है।''
      मनजीत सिंह रश्मि के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले।
      एक दिन छुट्टी वाले दिन पूरा परिवार इकट्ठा हुआ बैठा था तो रघुबीर के भापा जी बोले-
      ''रघुबीर, तू बड़ा खुश किस्मत है जिसे इतनी सयानी और गुणवंती बहू मिली है। बड़ी सलीके वाली, मीठा बोलने वाली। दूसरों के दुख बांटने वाली।''
      फिर हर कोई एक-दूजे से बढ़कर उसकी प्रशंसा के पुल बांधने लगा। जस्सी वहाँ से उठकर पता नहीं कब चली गई।
      दूसरे दिन नाश्ते के बाद जब सभी उठकर चले गए तो जस्सी रश्मि की ओर देखकर बोली-
      ''बड़ा इम्प्रैशन जमा लिया है सब पर। पर इन बातों का मेरे पर कोई असर नही होने वाला।'' यह कहकर दनदनाती हुई वह अपने कमरे में चली गई। रश्मि कुछ पल सुन्न-सी खड़ी रही। अचानक उसकी दृष्टि खाना बनाने वाले लड़के पर पड़ी जो उस समय सहानुभूतिभरी नज़रों से उसको देख रहा था।
      रश्मि नज़रें झुका कर अन्दर चली गई।
 (जारी…)