Saturday 31 March 2012

उपन्यास





मित्रो, 18 मार्च 2012 को मैंने अपने उपन्यास ‘परतें’ के पहले चैप्टर की पोस्टिंग की थी। बहुत से मित्रो ने पढ़कर इस पर अपनी राय दी…मेरा उत्साह बढ़ाया… संगीता स्वरूप, अशोक आन्द्रे, प्रियंका, वन्दना, केसरा राम, अलका सारवत, कुडीकुडी, दर्शन दरवेश, रूपसिंह चन्देल, सुलभ जायसवाल, रमेश कपूर…आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद… आशा है आप भविष्य में भी अपनी राय से मुझे अवगत कराते रहेंगे और मेरा उत्साहवर्धन करते रहेंगे…
प्रस्तुत है, ‘परतें’ उपन्यास की अगली किस्त… यानी चैप्टर-2…


परतें
राजिंदर कौर

2
रघुबीर बी.ए. पास करके अपने भापा जी के साथ दादर होटल में जाने लग पड़ा था। वह जैमल सिंह का सबसे बड़ा पोता था। रघुबीर की दादी तृप्त कौर ने रघुबीर के विवाह की रट लगा दी थी। रघुबीर शुरू में तो टाल-मटोल करता रहा। फिर, उसने एक-दो लड़कियाँ देखकर नापसंद कर दीं।
एक दिन उसकी प्रेम बीजी ने बेटे को अपने पास बिठाकर बड़े लाड़-प्यार से मोह-ममता की दुहाई दी। अपने दादा-दादी की इच्छा को पूर्ण करने की गुहार लगाई और रघुबीर के मुँह से असली बात निकलवा ली। रघुबीर तो ज्योति से विवाह करना चाहता था।
''वह तो हमारी जात-बिरादरी की ही नहीं।'' बीजी ने तर्क दिया।
''क्या मतलब?'' हैरान होकर रघुबीर ने बीजी की ओर देखा।
''हम खत्री हैं और वह अरोड़ों की बेटी है।'' प्रेम बीजी बोली।
''बीजी, हद हो गई। हम सिक्ख हैं, वह भी सिक्ख हैं और सिक्ख धर्म में तो जात-पात का सख्त विरोध किया गया है।'' रघुबीर की आवाज़ में तल्ख़ी थी।
प्रेम बीजी ठंडा आह भरकर कुछ देर रघुबीर की ओर देखती रही। रघुबीर का गठीला लंबा शरीर और सुर्ख ग़ाल और ज्योति पतली-दुबली, गेहुंए रंग वाली।
''तू शीशे के सामने खड़ा होकर खुद को देख और साथ में उसको खड़ा कर। तेरे सामने वह क्या है?'' प्रेम बीजी बोली।
''बीजी, आपने तो उसका सिर्फ़ कद और शक्ल-सूरत ही देखी है। पर मैं उसका स्वभाव जानता हूँ। वह आपकी खूब सेवा करेगी। मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूँ।''
''तेरे दादा दी और भापा जी ने नहीं मानेंगे।'' प्रेम बीजी ने निराश होकर कहा।
''बीजी, आप चाहो तो उन्हें मना सकती हो...मैं भी ज़ोर लगाऊँगा।''
एक दिन अवसर देखकर प्रेम बीजी ने डरते-डरते इस विषय पर रघुबीर के पिता मनजीत सिंह से बात की। वह तो एकदम भड़क उठे।
''तुम जसपाल की पोती की बात कर रही हो? उनकी औकात क्या है? वे कोलीबाड़े की चाल में रहते हैं। गांधी मार्किट में छोटी-सी दुकान है कपड़े की।'' वह गुस्से में बोले।
''हम भी तो कोलीबाड़े में से उठकर यहाँ आए हैं। पहले बैरकों में रहे, फिर चाल में ! अपना समय भूल गए आप?''
''अच्छा, तुम्हारी यह हिम्मत। आज तक तुम्हारी जुबान मेरे सामने कभी खुली नहीं। अब बेटे की शह पर लगी हो मुझे नसीहत देने।''
प्रेम रुआंसी हो गई।
''एक गुरसिक्ख परिवार है। उनके दिल्ली, बम्बई और पूना में तीन होटल हैं। वे अपनी बेटी के लिए कई दिनों से ज़ोर डाल रहे हैं। लड़की मैंने देख रखी है। बहुत सुन्दर है। रघुबीर के साथ जंचती भी है। बहाने से उसको दिखा दे। खार गुरद्वारे में या फिर गुरपूरब नज़दीक आ रहा है। तब दोनों को दादर में मिलवा देना।''
कुछ देर की चुप के बाद मनजीत सिंह पुन: बोला, ''कालबा देवी वाला गुरुद्वारा उनके घर के करीब ही है। उसे देखते ही रघुबीर ज्योति को भूल जाएगा। उसको कह दो, उसका मेल ज्योति से कभी नहीं हो सकता। अगर वह फिर भी न माने तो मैं खुद निपट लूँगा।”
प्रेम हत्प्रभ-सी यह सब सुनती रही। इससे पहले कि वह कुछ कहे, मनजीत सिंह घर से बाहर निकल गया।
अब घर में अजीब-सा वातावरण था। रघुबीर सुबह बग़ैर खाये-पिये घर से निकल जाता। रात में देर से लौटता। होटल में भी अपने भापा जी को देखकर इधर-उधर हो जाता।
दादा, दादी, चाचे, चाचियाँ सभी कारण जानने के लिए उत्सुक हो गए। आख़िर, बात को कितने दिन तक छिपाये रखा जा सकता था। घर में कानाफूसी होने लगी। रघुबीर का खाना, पीना, सोना कम होता गया। उसकी आँखें अन्दर धंसने लगीं। वह आज तक कभी भी अपने पिता या दादा जी के सामने ऊँची आवाज़ में नहीं बोला था।
एक दिन उसको दादा दी और भापा जी ने घेर लिया।
''देख बेटा, हम तेरा भला ही चाहते हैं। हमारे सारे खानदान की भलाई भी इसी में है।''
घरवालों ने सब नुक्ते समझा दिए। रघुबीर बुत-सा बना सब सुनता रहा। लेकिन अन्त में उसने फ़ैसला सुना दिया कि वह विवाह करेगा तो सिर्फ़ ज्योति से और वह उठकर बाहर चला गया।
जिस परिवार से रघुबीर के रिश्ते की पेशकश हुई थी, उनके साथ मिलकर वे एक और होटल खोलना चाहते थे। उनके साथ भागीदारी करना चाहते थे। रघुबीर इस बात से बड़ा हैरान था कि कोलीवाड़े में रहते समय ज्योति के परिवार से इनके परिवार की कितनी गहरी सांझ थी। आर्थिक हालात बदलते ही संबंध वैसे नहीं रहे।
एक रात जब रघुबीर के पिता घर नहीं लौटे तो घर में सभी घबरा-से उठे। एक अजीब-सा तनाव और सन्नाटा पसर गया। बम्बई जैसे महानगर में अब उन्हें कहाँ ढूँढ़ा जाए। पुलिस में उनके लापता होने की ख़बर करने पर खानदान के अपमान का भय था।
सबकी आँखें रघुबीर पर टिकी थीं। सबकी उंगलियाँ रघुबीर की तरफ़ उठ रही थीं। घर में इस तनाव का केन्द्र-बिन्दु वही था। रघुबीर के बीजी ने रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लिया था। दादी तो ज्योति का नाम लेकर उसे कोसती। दादा जी आशाभरी नज़रों से रघुबीर की ओर देखते। मनजीत सिंह का कोई अता-पता नहीं था।
रघुबीर ज्योति को जुहू बीच पर लेकर जाया करता था। उन दोनों को समुद्र के किनारे घूमना बहुत अच्छा लगता था। पूरे छह वर्ष वह ज्योति के संग घूमता रहा था। बम्बई के कोलीवाड़ा गुरू नानक स्कूल में उसकी मित्रता ज्योति से हुई थी। एक ही कक्षा में पढ़ते थे। उसके बाद, कालेज भी उनका एक ही था - खालसा कालेज, माटूंगा। बी.ए. करने के पश्चात् ज्योति ने स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में प्रवेश ले लिया था और रघुबीर अपने भापा जी और चाचाओं के साथ होटल के काम में मदद करने लग पड़ा था।
वैसे, वह ज्योति को बहुत पहले से जानता था, जब वे कोलीवाड़ा में रहा करते थे। साथ की बिल्डिंग में ज्योति का परिवार रहता था। वे भी देश विभाजन के बाद यहाँ आकर बस गए थे। इन दोनों परिवारों की परस्पर गहरी सांझ थी। दोनों सिक्ख परिवार थे। उस समय तो अरोड़ा, खत्री का प्रश्न कभी नहीं उठा था।
रघुबीर और ज्योति ने कई फिल्में संग-संग देखी थीं। कई फिल्मों में ऐसी ही स्थिति दिखाई जाती थी। तब उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि ऐसा सबकुछ उनके साथ भी होने वाला है।
एक दिन रघुबीर जब ज्योति को लेकर जुहू बीच गया तो उसने उसे घर की सारी स्थिति समझाई।
''मैं तेरा गुनाहगार हूँ,'' वह ज्योति से माफ़ी मांग रहा था। उसकी आँखें आँसुओं से भर उठी थीं।
''तुझे मुझे जो बुरा-भला कहना है, कह ले। गालियाँ दे, कुछ भी कर, पर रब का वास्ता, चुप न रह।''
परन्तु ज्योति एक शब्द नहीं बोली थी। समुन्दर की लहरें ऊँची उठनी आरंभ हो गई थीं। कुछ देर बाद ये लहरें किनारों के पार जाने लगीं।
''ईश्वर को हमारा इतना ही साथ मंजूर है। हम एक दूसरे को भुला नहीं सकते। हमेशा एक अच्छे दोस्त बनकर रहेंगे। जब भी कहीं मुलाकात होगी तो अच्छे दोस्त की तरह मिलेंगे।''
अचानक, ज्योति फूट फूटकर रोने लग पड़ी। आसपास घूमते लोगों की उसे कोई परवाह नहीं थी। पानी की लहरें पल पल ऊँची उठ रही थीं और शोर भी बहुत कर रही थीं।
रघुबीर स्वयं को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था। उसने ज्योति को कसकर अपने साथ लगा लिया। उसका हाथ बारबार दबाता रहा। कभी उसकी पीठ पर हाथ फेरता। लेकिन ज्योति का रोना कम नहीं हो रहा था।
चारों ओर अँधेरा पसरना शुरू हो गया था। वे दोनों एक दूसरे से सटकर, सबसे बेख़बर हुए बैठे थे। जब ज्योति रो-रोकर थक गई तो रघुबीर के कंधे पर सिर रखकर बोली-
''बीर, तुम मुझे कई बार पिकनिक काटेज में चलने के लिए कहते थे और मैं कहा करती थी, अभी नहीं, शादी के बाद। लेकिन आज मैं कहती हूँ, मुझे ले चलो। मैं बिछुड़ने से पहले एक भरपूर मिलन चाहती हूँ। उसके बाद पता नहीं ज़िन्दगी किस तरफ मोड़ ले ले। परन्तु इस मिलन की याद मैं सदैव अपने दिल में संजोकर रखूँगी।''
रघुबीर अवाक्-सा ज्योति को देखता रहा। फिर उसने ज्योति को और ज़ोर से भींच लिया।
रघुबीर ने ही ज्योति को बताया था कि जुहू के आसपास कुछ काटेज थे और वहाँ प्रेमी-युगल कुछ समय के लिए काटेज किराये पर लेकर...।
काटेज से वापसी पर टैक्सी में वे एक-दूजे के साथ लगकर बैठे थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। टैक्सी ड्राइवर शीशे में से हैरान नज़रों से उनको देख रहा था। ज्योति के ख़ामोश बहते आँसुओं को रघुबीर महसूस कर रहा था। कोलीवाड़ा पहुँचकर जब टैक्सी रुकी तो ज्योति कुछ देर रघुबीर से चिपक कर बैठी रही। फिर, अचानक उठकर चल पड़ी। उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। रघुबीर उसे जाते हुए देखता रहा। उसका दिल टुकड़े-टुकड़े होता रहा। एक बार उसके मन में आया कि वह टैक्सी से उतरकर ज्योति का हाथ पकड़ ले और उसे लेकर कहीं भाग जाए। खार तक पहुँचते-पहुँचते वह पता नहीं कितने आँसू बहा चुका था।
आख़िर, घरवालों के सम्मुख उसने हथियार डाल दिए।
दूसरे दिन भापा जी घर लौट आए। उस समय घर के हर सदस्य के चेहरे पर छाई चमक देखने वाली थी। कभी वे रघुबीर को देखते, कभी उसके भापा जी की ओर। भापा जी ने उसे गले लगा लिया और फूट फूटकर रोने लगे। ये शायद कृतज्ञता के आँसू थे। रघुबीर पत्थर-सा बना सारा नाटक देखता रहा।


(जारी…)

Sunday 18 March 2012

उपन्यास




मित्रो, गत 11 मार्च 2012 को मैंने अपने कुछ मित्रों की प्रेरणा से ब्लॉग की दुनिया में अपना पहला कदम रखा और इसकी छोटी-सी सूचना मित्रो से साझा की थी। इसका रेस्पांस इतना तीव्र गति से और इतनी बड़ी संख्या में मुझे मिलेगा, सच पूछो तो, मैंने कल्पना नहीं की थी। जिन मित्रो ने बधाई और शुभकामना संदेश भेजे, मैं उन सभी की हृदय से बहुत बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने मेरी हौसला-अफ़जाई की। इनमें से कुछ को मैं जानती हूँ, परन्तु अधिकांश से मेरा पहला परिचय हो रहा है। अविनाश वाचस्पति, हरकीरत हीर, दर्शन कौर दर्शी, डा जगबीर सिंह, इला, अशोक गुप्ता, चंडीदत्त शुक्ल, वन्दना, गुरमीत बेदी, बलबीर माधोपुरी, डा मोनिका शर्मा, रविशंकर श्रीवास्तव, डा. जेन्नी शबनम, राज भाटिया, रूपसिंह चन्देल, प्राण शर्मा, संगीता स्वरूप, प्रमोद ताम्बट, नीरज गोस्वामी, शिरीष कुमार मौर्य, रमेश कपूर, जग्गी कुस्सा, हरिसुमन बिष्ट, हीरेन, मृदुला प्रधान, सुनीता शर्मा, एम.ए.शर्मा ‘सेहर’, सुलभ जायसवाल, उड़न तश्तरी, देवेन्द्र गौतम श्यामसुन्दर अग्रवाल, सूरज प्रकाश और उमेश महादोषी …नि:संदेह इनमें से बहुत से हिंदी-पंजाबी के जाने-माने लेखक-कवि हैं और नेट पर ब्लॉगिंग और फेसबुक पर छोटी-छोटी सारगर्भित पोस्टिंग करने में बहुत सक्रिय हैं। मैं इन सभी का और उन सभी का भी जिन्होंने मेरे इस ब्लॉग की सूचना को देखा-पढ़ा, मैं दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ।
मित्रो, अच्छा साहित्य पढ़ना चाहे वह विश्व और भारत की किसी भी भाषा का हो, मेरी कमज़ोरी रहा है। मेरे पति कुलदीप बग्गा जी भी हिन्दी में लिखा करते थे। अब तक ढेरों कहानियाँ पंजाबी में लिखीं, बहुत-सी हिंदी और अन्य भाषाओं में अनूदित होकर भी प्रकाशित हुईं। कई संग्रह पंजाबी-हिंदी में छपे। पर मैंने महसूस किया है कि अपने लिखे को सम्भाल कर रख पाना(वह भी मेरी जैसी उम्र के लेखक के लिए तो ख़ासतौर पर) बहुत कठिन काम है। कुछ सुहृदय लेखक मित्र मिले, उन्होंने इस उम्र में समय का आधुनिक टेकनीक के माध्यम से अधिक से अधिक सदुपयोग करने का परामर्श दिया। यह भी एक सकारात्मक कार्य है, जिसमें आपकी लगन और मेहनत झलकती है और आपका मस्तिष्क कुछ सृजनात्मक कर रहा होता है…नहीं, तो हम अपना बहुमूल्य समय सो कर या इधर-उधर की व्यर्थ की बातें करके गवां देते हैं। एक ज़माना था कि हम कलम से लिखा करते थे (अब भी बहुत बड़ी संख्या में लेखक-कवि कलम से ही लिखते हैं) परन्तु अब की-बोर्ड पर उंगलियों के सहारे लिखना ज्यादा सहज लगता है और अपने लिखे को काट-छांट कर पुन: फेयर करने के झंझट से बच जाते हैं इस नई तकनीक में। जितना चाहे एडिट करो… और एक स्थान पर सुरक्षित रखते रहो…न घर में अल्मारियों के मोहताज, न सीलन और दीमक का डर…(कुछ मित्रों ने बताया कि कंप्यूटर पर भी बहुत बड़ा खतरा होता है- वायरस का…पर, चलो, ये खतरे ही तो मनुष्य की ज़िन्दगी में चुनौती बन कर आते हैं)।
अपने ब्लॉग पर मैं अपना एक छोटा उपन्यास जो “परतें” शीर्षक से पंजाबी में वर्ष 2007 में छपा था, को हिंदी पाठकों के सम्मुख धारावाहिक रूप में रख रही हूँ। इसबार इस उपन्यास का पहला चैप्टर आपके सामने है। अच्छा है या खराब…जो भी है, आपके सामने है…किस्त-दर-किस्त… बीच बीच में अथवा इस उपन्यास की समाप्ति पर अपनी कहानियां भी क्रमवार देना प्रारम्भ करूँगी… बस, आपका हौसला, आपका प्यार-स्नेह मुझे मिलता रहेगा तो यह स्फूर्ति और उत्साह मेरे अन्दर बना रहेगा…
-राजिन्दर कौर



परतें
राजिंदर कौर

1
रघुबीर और जस्सी को हनीमून पर आये दो दिन हो चुके थे। रघुबीर को कश्मीर की अपनी पहली यात्रा बार-बार याद आ रही थी। जब पहली बार आया था, तब वह दस-ग्यारह वर्ष का था। उस समय के कुछ स्पष्ट, कुछ धुंधले-से चित्र उसके ज़ेहन में अंकित थे। वह जस्सी के साथ डल-लेक पर घूम रहा था और बड़े चाव से उसे अपनी पहली यात्रा के विषय में बता रहा था।
''जस्सी, यहीं पास ही हम एक होटल में ठहरे थे। तौबा ! सारी रात वहाँ खटमल ही काटते रहे। हमारा बहुत बड़ा परिवार एक साथ ही कश्मीर की सैर करने आया था - दादा दी, दादी जी, सारे चाचा, बुआ... सच, बड़ा मज़ा आया।'' रघुबीर दूर डल-लेक पर खड़े शिकारों की ओर देखकर बता रहा था।
''किसका मज़ा आया ? खटमलों का ?'' जस्सी हँसते हुए बोली।
''नहीं-नहीं, मेरा मतलब है कि सारा परिवार इकट्ठा आया था। खटमलों के कारण हमने दूसरे दिन ही वह होटल छोड़ दिया था और एक शिकारे में रहने के लिए आ गए थे। शिकारे में रहने का अपना अलग ही आनन्द था।'' रघुबीर चहककर बता रहा था।
''इसबार हम शिकारे में क्यों नहीं ठहरे ?'' जस्सी ने रघुबीर के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
''इसबार सब मना कर रहे थे। कहते हैं कि अब पुरानी बातें नहीं रहीं। पहले की तरह ईमानदारी नहीं रही। पिछले वर्ष मेरे कुछ दोस्त शिकारे में आकर ठहरे थे। एक का कैमरा चोरी हो गया था, दूसरे के पैसे और तीसरे के कुछ कपड़े। कश्मीर में गरीबी भी बहुत है।''
''और कहाँ कहाँ गए थे?'' जस्सी ने रघुबीर का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा।
''श्रीनगर से हम पहलगाम चले गए थे। वहाँ टेंट लगाकर खिद्दर नदी के किनारे पर ठहरे थे। घोड़ों की खूब सवारी की। मेरी आँखों में उस समय की बर्फ़ से ढकीं चोटियाँ अभी तक समायी हुई हैं। देवदार और चीड़ के पेड़, नदी की बर्फ़ सरीखे ठंडे पानी का गर्जन...। जस्सी, पहलगाम चरवाहों की घाटी कहलाती है। यह समुन्दर से सात हज़ार फुट की ऊँचाई पर है।'' रघुबीर आकाश की ओर देखते हुए बता रहा था, ''कल ही हम पहलगाम के लिए चल पड़ेंगे। ठीक है?''
''क्या अब भी हम टेंट में ही रहेंगे?'' जस्सी ने मुस्कराते हुए पूछा।
''नहीं, होटल में रहेंगे। तब पता क्या हुआ था? एक रात तेज़ आँधी चली और टेंट नीचे आ गिरा। हममें से किसी को चोट तो नहीं लगी, पर बीजी और दादी जी बहुत घबरा गए थे। पहलगाम के बाद हम गुलमर्ग गए थे। जस्सी, कश्मीर में पहाड़ों की सैर, घोड़े की सवारी, गरम पानी के झरने... सब अच्छी तरह याद हैं। बचपन कितना मस्त होता है। न फिक्र, न चिंता...।''
''अब किस चीज़ का फिक्र है?'' जस्सी ने रघुबीर की ओर सीधा देखते हुए पूछा।
''मैं यूँ ही सहज स्वभाव में एक बात कर रहा था।'' वह जस्सी का हाथ पकड़ते हुए बोला।
''आपको ज्योति की याद तो रह रहकर आ रही होगी। आपको यह अहसास तो हो रहा होगा कि आज इन बांहों में मेरी जगह ज्योति को होना था?'' जस्सी रघुबीर की आँखों में आँखें डालकर एक अजीब मसख़री में बोली।
रघुबीर को जस्सी की इस व्यंग्यभरी दृष्टि ने अन्दर तक बेध डाला। जस्सी के गिर्द लिपटी उसकी बाहों की पकड़ अपने आप ढीली पड़ गई और वह डल-लेक के किनारे खड़ा दूर चलते शिकारों की ओर एकटक देखने लगा।
''क्यो? ज्योति का नाम सुनकर आपका मन इतना उखड़ क्यों ग्या?'' वह रघुबीर से चिपट कर खड़ी हो गई।
''ज्योति का नाम सुनकर नहीं, तुम्हारा रवैया देखकर। तुम्हें सब तो बता दिया था, शादी से पहले ही। भूल जाओ अब इस काण्ड को। अब तू और मैं एक बंधन में बंध गए हैं। कहते हैं न, संजोग ऊपर से बनकर आते हैं।'' रघुबीर दूर कहीं देखता हुआ चुप हो गया।
''ओह! इतना बुरा मान गए। सॉरी! मेरा मतलब नहीं था। मैं तो यूँ ही मज़ाक कर रही थी।'' यह कहते हुए जस्सी ने आगे बढ़कर रघुबीर का हाथ पकड़ लिया और उसे लेकर आगे चलने लग पड़ी।
जस्सी रघुबीर को इस मूड में से बाहर निकालने के लिए खाना खाते समय चुटकुले सुनाने लग पड़ी-
''सुनो, आपको एक बात सुनाऊँ?''
रघुबीर ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
''एक आदमी डॉक्टर के पास गया और पूछने लगा, डॉक्टर साहब, मैं और चालीस साल जी सकूँगा? डॉक्टर ने उसकी ओर हैरानी से देखा और पूछा - तुम अपने मित्रों के साथ मौज मस्ती करते हो? आदमी ने 'न' में सिर हिला दिया। क्या तुम बाहर जाकर कभी पानीपूरी, समोसे, आलू-टिक्की, बरगर और पिज्जा वगैरह खाते हो? आदमी ने कहा- नहीं, कभी नहीं।''
''क्या तुम सिगरेट-बीड़ी पीते हो या तम्बाकू खाते हो? आदमी ने कानों को हाथ लगाकर कहा- तोबा! मैं तो इन चीज़ों के पास भी नहीं फटकता।''
''अच्छा, शराब कितनी पीते हो?''
''मैं तो छूता भी नहीं।''
''तेरी प्रेमिकाएँ कितनी हैं?''
''एक भी नहीं।'' उसने ज़ोर देकर कहा।
''फिर कोठे-वोठे पर तो जाता ही होगा?''
आदमी कुर्सी पर से एकदम उछल पड़ा और बोला, ''डॉक्टर साहब, भगवान का नाम लो। आप मुझसे यह ऊट-पटांग से सवाल क्यों पूछ रहे हो?''
डॉक्टर ने कहा, ''मेरी तो यह समझ में नहीं आ रहा कि तुम और चालीस वर्ष जीकर क्या करोगे?'' जस्सी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। रघुबीर ने शायद पूरी बात सुनी भी नहीं थी। वह उसे हँसते देखकर हँसने की कोशिश करने लगा, पर उसे ज्यादा सफलता नहीं मिली। सारी शाम रघुबीर का मूड उखड़ा ही रहा। रात को नींद भी टूट टूट कर आती रही।
रघुबीर की जस्सी के साथ सगाई हुई तो जस्सी ने स्वयं फोन करके रघुबीर को मिलने पर ज़ोर दिया था। जस्सी मैरिन लाइन्स के सामने वाली लाइन में 'भारत-महल' में रहती थी। रघुबीर खार रोड में रहता था। तब उसके पास अपनी अलग कार भी नहीं थी। वह लोकल गाड़ी पकड़कर चर्च गेट पहुँच गया था। जस्सी अपने भाई की कार ड्राइव करके रघुबीर को 'गेट-वे-ऑफ इंडिया' ले गयी। वहाँ लोगों की बड़ी भीड़ थी। कुछ देर वे दोनों वहाँ बैठे रहे। समुद्र की लहरों को दीवार से टकराते देखते रहे। वहाँ से वे 'फ्लोरा फाउन्टेन' के एक रेस्तरां में चाय-कॉफी पीने बैठ गए। इधर-उधर की बातों के बाद जस्सी ने पूछा, ''यह ज्योति कौन है ?'' रघुबीर एकदम चौंक गया। वह बड़े गौर से जस्सी की ओर देखने लगा। जस्सी के माथे पर पड़ी भृकुटि से कुछ अन्दाज़ा लगाने की कोशिश करने लगा।
''किस सोच में पड़ गए? मैंने आपसे पूछा है कि ज्योति कौन है?''
''तुम्हें उसके बारे में किसने बताया?'' रघुबीर ने सर्तक होकर पूछा।
''उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?''
''फिर उसने यह भी बताया होगा कि ज्योति कौन है?''
''बस यही बताया है कि वह आपकी गर्लफ्रेंड...।'' रुक रुककर जस्सी बोली।
''फिर तुम क्या जानना चाहती हो?'' रघुबीर ने पूछा।
''क्या अब भी आप...?'' जस्सी ने बात पूरी नहीं की।
''देख जस्सी ! सही बात यह है कि मैं ज्योति को बचपन से जानता हूँ। उसके साथ शादी भी करना चाहता था, पर घर के लोग नहीं माने। अब ज्योति के साथ गर्लफ्रेंड वाली कोई बात नहीं रही।'' रघुबीर ने ठंडी आह को दबाते हुए अपने स्वर और चेहरे को बिलकुल सहज रखने की कोशिश करते हुए कहा।
''फिर भी आपके दिल में कसक तो होगी ही कि...।''
रघुबीर ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। वह कॉफी के छोटे-छोटे घूंट भरता रहा।
कुछ देर की चुप्पी के बाद जस्सी बोली, ''कल आओगे? कोई मूवी देखने चलेंगे।''
''कल तो डैडी के साथ एक काम के सिलसिले में जाना है। फिर कभी सही।''
''आपने कभी मैरीन-लाइन्ज़ में बैठकर समुद्र का आनन्द लिया है?'' जस्सी ने पूछा।
''एक अरसा हो गया है। कभी हम अपने दादा जी के साथ वहाँ जाते थे।''
''चलो, आपको ले चलूँ।'' जस्सी की आवाज़ में उत्साह था।
कुछ समय के लिए वे समुद्र के किनारे घूमते रहे। उन्होंने सींगदाने (मूंगफली) की दो पुड़ियाँ खरीदीं और दीवार पर बैठकर एक एक दाना चबाते रहे। उन्होंने आपस में बातचीत जारी रखने की बहुत कोशिश की लेकिन कोई भी बात आगे नहीं बढ़ सकी।
रघुबीर जस्सी से उसकी पढ़ाई के विषय में पूछने लगा। उसने राजनीति विज्ञान से बी.ए. की थी। वह एम.ए. भी इसी विषय से करना चाहती थी लेकिन पापा उसके विवाह के लिए जल्दी मचाने लगे।
''तुम्हें राजनीति में तो बहुत रुचि होगी?'' रघुबीर ने हँसते हुए पूछा।
''थोड़ी बहुत रुचि तो है ही। सुबह समाचार पत्र ज़रूर देखती हूँ।''
''बहुत खूब!''
मैरीन लाइन्ज़ पर लोगों की भीड़ लगातार बढ़ रही थी। कुछ लोग दीवार पर बैठे थे, कुछ दीवार के साथ बने फुटपाथ पर घूम रहे थे। सींगदाना, गुब्बारे और बच्चों के खिलौने बेचने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। सूर्य अस्त होने की तैयारी कर रहा था। वह धीरे-धीरे पानी में उतर रहा था। समुद्र का पानी लाल रंग में बदल रहा था।
''कितना सुन्दर दृश्य है !'' रघुबीर ने कहा।
''मैं तो यह दृश्य अक्सर ही अपनी खिड़की में से देखती रहती हूँ।''
''सच? और प्रात: सूर्योदय का?'' रघुबीर ने जस्सी की ओर देखते हुए पूछा।
''ऊँ हूँ । मैं लेट लतीफ हूँ। सुबह जल्दी नहीं उठती। मम्मी-डैडी सैर करने जाते हैं। वे मुझे उठाने की बहुत कोशिश करते हैं।'' जस्सी ने अपने होंठ काटते हुए कहा।
रघुबीर चुप रहा।
''मम्मी बहुत समझाती है कि अब देर से उठने की आदत छोड़ दूँ। विवाह के बाद यह नहीं चलेगा। सुना है, आपके दादी-दादा आपके पास ही रहते हैं। उनको सुबह देर से उठना पसन्द नहीं।''
''तुम्हें हमारे परिवार के विषय में बहुत कुछ पता है। कौन है, तुम्हें यह सब बताने वाला?'' रघुबीर ने हँसते हुए पूछा।
''मैंने एक जासूस छोड़ा हुआ है।'' जस्सी भी हँसकर बोली।
''फिर तो तुमसे बहुत डर कर रहना पड़ेगा।''
''बेशक।''
सामने सूर्य धीरे-धीरे सरक कर पानी में समा रहा था। पानी की लाली बहुत गहरी हो गई थी।
''चलो, नारियल पानी पियेंगे।'' जस्सी ने रघुबीर का हाथ पकड़कर उसे उठाते हुए कहा।
''ज़रा दाईं ओर देखो।'' जस्सी ने धीमे स्वर में रघुबीर से कहा।
एक युवा युगल एक दूसरे के मुँह से मुँह जोड़कर बैठा था। रघुबीर देखकर हल्का-सा मुस्कराया।
घर वापस जाते हुए वह बहुत सोचता रहा कि जस्सी को ज्योति के विषय में किसने बताया होगा, लेकिन उसको कुछ समझ में नहीं आया।

जारी…)

Sunday 11 March 2012

ब्लॉग की दुनिया में पहला कदम



मित्रो, ब्लॉग की दुनिया में यह मेरा पहला कदम है। अपने इस ब्लॉग से माध्यम से मैं आपसे अपनी कुछ बातें, कुछ रचनाएं साझा किया करूंगी। पता नहीं, वे आपको अच्छी भी लगती हैं कि नहीं। पर उम्मीद तो की ही जा सकती है। जल्द ही आपसे अपनी नई पोस्ट के माध्यम से मुखातिब होऊँगी…
-राजिन्दर कौर