Monday 30 April 2012

उपन्यास







मित्रो, आपने मेरे उपन्यास परतें के प्रारंभिक तीन चैप्टर पढ़े। पिछ्ली बार की तरह इस बार भी कुछ मित्रो ने अपनी राय से मुझे अवगत कराया। मेरे लिए एक एक टिप्पणी बहुमूल्य है। बढ़ती उम्र और अस्वस्थता के कारण अधिक देर कंप्यूटर के सामने बैठना संभव नहीं हो पाता, पर फिर भी थोड़ा-बहुत समय निकालने का यत्य करती हूँ और मित्रों की टिप्पणियां देखने और उनका धन्यवाद करने की पूरी कोशिश करती हूँ। उपन्यास का चैप्टर- 4 आपके समक्ष रखते हुए फिर वही आशा मन में संजोये हूँ कि आप इसे पढ़कर अपनी राय से मुझे अवगत कराएँगे और मेरा उत्साहवर्धन करेंगे…
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिंदर कौर

4
सरदार जैमल सिंह अपना पुराना बजाजी का व्यवसाय ही करना चाहते थे। उन्हें इसी काम का अनुभव था। कपड़े की थोक मार्किट जो मूल चन्द जेठा मार्किट के नाम से जानी जाती थी, में उनकी बहुत जान-पहचान थी। वह लायलपुर से अक्सर ही इस मार्किट से माल लेने आया करते थे। परन्तु अब पल्ले में पूंजी न होने के कारण मन मसोस कर रह जाते।
      उधर उनके बड़े बेटे मनजीत सिंह ने अपने दोनों मामाओं के पास रेस्तराँ में काम करना शुरू कर दिया था। उसके मामा देश के बँटवारे से पूर्व ही बम्बई में आ गए थे। इस समय उनका रेस्तराँ पंजाबी पकवानों के लिए प्रसिद्ध हो गया था। मनजीत सिंह को जब इस काम में कुछ अनुभव प्राप्त हो गया तो उसने कोलीवाड़े में एक पंजाबी ढाबा खोलने की सलाह की। जैमल सिंह भी मान गए। उन्हें तो इस काम का कोई अनुभव नहीं था। मनजीत के मामाओं ने कुछ पूँजी लगाने का वायदा किया और मनजीत सिंह ने अपने दो छोटे भाइयों के साथ मिलकर एक ढाबा खोल लिया। तीनों भाइयों में लगन तथा हिम्मत बहुत थी। धीरे-धीरे ढाबा अच्छा चल निकला। ज्यों-ज्यों आमदनी बढ़ती गई, ढाबे के कारोबार में विस्तार और सुधार होता गया। काम करने वाले भी कई हाथ चाहिए थे। खाना बनाने वाले, बर्तन साफ करने वाले, परोसने वाले। ढाबे से अच्छा-खासा मुनाफ़ा होने लगा। अब छोटे भाइयों के भी रिश्ते आने लगे। एक भाई की सगाई तो पाकिस्तान में ही हो गई थी। इधर लड़की वाले शादी के लिए दबाव डाल रहे थे। जवान बेटियों को घर से जल्दी विदाकर माँ-बाप निश्चिंत होना चाहते थे। जैसे ही आमदनी बढ़ती गई, जैमल सिंह ने अपने दोनों पुत्रों की शादी कर दी।
      इन तीनों भाइयों को एक भागीदार मिल गया था। उसके साथ मिलकर इन्होंने कल्याण में एक और ढाबा खोल लिया था। वहाँ भी बहुत से शरणार्थी आकर बस गए थे। वहाँ पास ही सिंधी शरणार्थियों की एक नई बस्ती अस्तित्व में आ रही थी- 'उल्हास नगर'
      जैमल सिंह की आमदनी बढ़ने के साथ-साथ परिवार भी बढ़ रहा था। कोलीवाड़े के एक कमरे के फ्लैटों में इतने लोग समा नहीं सकते थे। उन्होंने कोलीवाड़े की चाल छोड़ दी और खार की एक नई बिल्डिंग में तीन फ्लैट खरीद लिए, बिल्कुल साथ-साथ एक ही मंज़िल पर। तृप्त कौर ने ही सलाह दी थी कि अब तीनों बहुओं को अलग कर दिया जाए। सबके बच्चे बड़े हो रहे थे। सबकी खाने-पीने की आदतें और उनके स्वभाव समय के साथ-साथ बदल रहे थे। इससे पहले कि परिवार में कोई मनमुटाव या परस्पर कोई रंजिश वगैरह हो, सबको अलग कर देना ही ठीक था।
      जैमल सिंह और तृप्त कौर का घर में बड़ा दबदबा था। उनके सामने तीनों बेटों तथा बहुओं में से किसी की भी ऊँची आवाज़ में बात करने की हिम्मत न होती थी। इन दोनों ने अपने बेड़े बेटे मनजीत सिंह के साथ रहना पसन्द किया था। तृप्त कौर अब दो समय गुरुद्वारे जाती। जपुजी साहब का पाठ करती। संध्या समय 'रहिरास' का पाठ ऊँचे स्वर में करती। वह चाहती थी कि घर के सभी सदस्यों के कानों में गुरुवाणी का अमृत पहुँचे। अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियों में तृत्प कौर का बड़ा असर-रसूख था। लोग इनके घर की एकता तथा प्यार का उदाहरण देते।
      कोलीवाड़े में जब पहला गुरुद्वारा बना तो उस गुरुद्वारे को बनाने में जैमल सिंह ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जब कल्याण का ढाबा चल निकला तो जैमल सिंह ने आसपास रहते सिक्खों को संगठित करके एक गुरुद्वारे की नींव रखी। जैमल सिंह का परिवार जब खार में आकर बस गया तो वहाँ के गुरुद्वारे में भी उनका बड़ा मान-सम्मान था। अब जैमल सिंह अपने पुत्रों के होटल कारोबार में ज्यादा रुचि नहीं लेते थे। वह गुरुद्वारों तथा शिक्षण-संस्थाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते, जबकि वह स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। देश के विभाजन से पूर्व वह अपने बजाजी के कारोबार के सिलसिले में लगातार बम्बई, अहमदाबाद तथा अन्य शहरों की यात्रा करते रहते थे। इसलिए उन्हें ज़िन्दगी का गहरा अनुभव था।
      जैमल सिंह का पोता रघुबीर सिंह देश-विभाजन के बाद कोलीवाड़ा, बम्बई के गुरु नानक स्कूल में पढ़ने लगा था। इस स्कूल की स्थापना का सीधा संबंध कराची में बनी गुरु नानक शैक्षिक सोसायटी के साथ था। इस स्कूल की स्थापना कराची से आए कुछ शराणार्थी अध्यापकों ने की थी। यह स्कूल भी सैनिकों के लिए बनी बैरकों में शुरू किया गया था। पहले तीन वर्ष शरणार्थी इस स्कूल में उर्दू और फारसी की पढ़ाई करते रहे क्योंकि देश-विभाजन के पूर्व पंजाब में उन्हें उर्दू पढ़ाई जाती थी। फिर, धीरे-धीरे उर्दू की जगह हिंदी तथा संस्कृत ने ले ली। गुरु नानक शैक्षिक संस्थान में जैमल सिंह भी बड़े उत्साह से हिस्सा लेते।
      पैसे में बड़ी ताकत होती है। पैसे के कारण जैमल सिंह तथा उसके बेटों की प्रतिष्ठा बढ़ गई। अब वे बम्बई की पंजाबी एसोसिएशन के भी सदस्य थे। तीनों बेटों के पास अपनी- अपनी कारें थीं।
      रघुबीर ने गुरु नानक स्कूल से पढ़ाई बहुत अच्छे अंकों से पास कर ली तो उसने समीप ही गुरु नानक खालसा कालेज में प्रवेश ले लिया। इस कालेज की स्थापना माटूंगा में सन् 1937 में हुई थी। डॉक्टर भीमराव अम्बेदकर के कहने पर सिक्खों ने इस कालेज की स्थापना की थी। डॉ. अम्बेदकर का कहना था कि पिछड़ी जाति के लोग सिक्ख धर्म अपना लेंगे। परन्तु जब उन्हें पता चला कि सिक्ख धर्म में भी जात-पात के बंधन हैं तो उन्होंने पिछड़ी जातियों को सिक्ख धर्म अपनाने से मना कर दिया। वैसे खालसा कालेज की इमारत का नक्शा डॉ. अम्बेदकर रोम, इटली से बनवाकर लाए थे। इस कालेज की शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी प्रसिद्धि थी। इस संस्था का नाम सम्मान से लिया जाता था।
      रघुबीर और ज्योति भी पहले गुरु नानक स्कूल और बाद में खालसा कालेज में इकट्ठे ही पढ़ते थे।
      देश-विभाजन के पश्चात् रघुबीर और ज्योति के परिवार कोलीवाड़ा में ही रहते थे। वे साथ-साथ खेलते-कूदते बड़े हुए थे। दोनों परिवारों में बड़ी गहरी सांझ थी। रघुबीर का परिवार खार चले जाने के बाद दोनों परिवारों की सांझ कम होती चली गई, लेकिन रघुबीर और ज्योति की परस्पर सांझ में कोई कमी नहीं आई। वह बढ़ती ही गई। उन्होंने तो शादी के वायदे कर लिए थे। परन्तु, हालात ने ऐसा मोड़ काटा कि दोनों ने टूटे दिलों से एक-दूसरे से अलविदा ले ली।
      इस अलविदा के कुछ दिन पश्चात् रघुबीर का जन्मदिन था। ज्योति ने उसे कार्ड भेजा और अपनी मित्रता और प्रेम से जुड़ी भावनाओं का इज़हार कुछ कविताओं में किया था। पत्र में उसने लिखा कि रघुबीर की दोस्ती ने उसे जो खुशी दी थी, उसकी ज़िन्दगी में जो उत्साह भरा था, उसकी खुशबू सदैव उसके साथ रहेगी। उसने लिखा - 'हमने मिलकर कई वर्ष एक-दूसरे की मैत्री का आनन्द प्राप्त किया, मिलकर हँसी बाँटी, आँसू बाँटे, एक-दूसरे का साहचर्य माना, अब दोस्ती निभाएंगे।'
      'दोस्ती' और 'प्रेम' की छोटी-छोटी कविताएँ पढ़कर रघुबीर भावुक हो गया।
      ज्योति ने पत्र के अन्त में लिखा था - 'तेरे प्यार ने मुझे कवि बना दिया...।'
      रघुबीर को अपने एक हिंदी अध्यापक की बात याद हो आई। वह कहते थे कि एक उम्र होती है जब प्रत्येक लड़की, लड़का प्यार में डूबता है, ठंडी आहें भरता है। या तो वह फिल्मी गाने गाता है, उदासी के, जुदाई के, दिल टूटने के या फिर स्वयं प्रेम कविता लिखने लग जाता है।
      उस पत्र के उत्तर में उसने ज्योति को एक पत्र लिखा-
      'मैं चाहता हूँ, मैं तुम्हारा हर दु:ख, सारी पीड़ा (जो मैंने तुम्हें दी है) पी लूँ। तुम्हारी आँखों के आँसू चूम चूम कर सुखा दूँ। तुम्हारे चेहरे पर सदैव कायम रहने वाली मुस्कान ला सकूँ। तुम्हें बहुत 'मिस' करता हूँ, ज्योति। जब भी तुम्हें ज़रूरत हो, बुला लेना।'
      पहली बार रघुबीर को अहसास हुआ कि उसे तो प्रेम-पत्र लिखना भी नहीं आता। उसके पास अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए पर्याप्त शब्द भी नहीं हैं।
(जारी…)

Sunday 15 April 2012

उपन्यास




मित्रो, ‘परतें’ उपन्यास के पहले दो चैप्टर मेरे इस ब्लॉग पर छपे और आपने पढ़कर अपनी राय से मेरी हौसला-अफ़जाई की, मैं आपकी शुक्रगुजार हूँ। दूसरे चैप्टर को पढ़कर जिन्होंने अपनी राय मुझ पहुँचाई, उनमें संगीता स्वरूप, अशोक आन्द्रे, प्रियंका, वन्दना, रश्मि प्रभा, शशि वैद्य, कुसुम, डा जेन्नी शबनम और रूप सिंह चंदेल जी का मैं धन्यवाद करती हूँ। आशा है, आप भविष्य में भी अपने राय से मुझे अवगत कराते रहेंगे और मेरा उत्साहवर्धन करते रहेंगे…
प्रस्तुत है, ‘परतें’ उपन्यास की अगली किस्त… यानी चैप्टर-3…
-राजिन्दर कौर

परतें
राजिंदर कौर



3
भारत-पाक विभाजन के पश्चात् रघुबीर सिंह का परिवार कुछ समय अमृतसर में रहा। फिर लुधियाना में धक्के खाता रहा। लेकिन, उनका काम कहीं भी न जम पाया। रघुबीर के दादा सरदार जैमल सिंह लायलपुर से अक्सर ही बम्बई अपने कपड़े की दुकान के लिए माल खरीदने जाते रहते थे। उनके दो साले देश विभाजन से पूर्व ही बम्बई में आ बसे थे।
एक दिन सरदार जैमल सिंह भी परिवार को लेकर अपनी किस्मत आजमाने के लिए बम्बई आ गए। लेकिन, रवाना होने से पूर्व उन्होंने अपनी पंद्रह-सोलह वर्षीय बेटी का विवाह लुधियाना में ही अपने एक परिचित परिवार में कर दिया। सरदार जैमल सिंह का बड़ा बेटा मनजीत सिंह विवाहित था और उसका पुत्र रघुबीर उस समय नौ-दस बरस का था। मनजीत सिंह से छोटे दोनों भाई लायलपुर से दसवीं पास करके अपने मामा के पास सरगोधा चले गए थे। उनके मामा की वहाँ बर्तनों की दुकान थी। मनजीत सिंह अपने पिता सरदार जैमल सिंह के साथ बजाजी की दुकान पर बैठता था।
जब देश का बँटवारा हो गया तो दोनों छोटे भाई सरगोधा से लायलपुर अपने माता-पिता के पास आ गए। देश के नेता यकीन दिला रहे थे कि किसी की जान-माल का कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन, देश के कितने ही हिस्सों में से क़त्ले-आम के समाचार लायलपुर पहुँचे। सब के दिल सहमे हुए थे। जान सूली पर टंगी हुई थी। रघुबीर के दादा जी पिछली बार जब बम्बई माल खरीदने गए थे तो वहाँ से एक रेडियो खरीद लाए थे। रेडियो द्वारा सारे देश की ख़बरें पहुँचती रहतीं।
महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के नाम अक्सर ही घर में सुने जाते।
अब रघुबीर का घर से बाहर निकलना बन्द हो गया था। गली में शाम को अक्सर ही वह दूसरे लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा, कंचे, छिप्पन-छिपाई खेलता था। अब वह घर में कैद होकर रह गया था।
रघुबीर की पंद्रह-सोलह वर्षीय बुआ सतनाम जिसे घर में सब 'सत्ती' कहकर बुलाते थे, वह भी सामने वाले घर में रहती अपनी सहेली अम्बों को मिलने नहीं जा सकती थी। बचपन में सत्ती अम्बो के साथ 'गुड़िया-गुड्डे' और 'घर-घर' के खेल खेला करती थी। अपनी गुड़िया का विवाह वह अम्बो के गुड्डे के साथ रचाती थी। गीटे खेलती थी। 'किकली' डालती थी। लेकिन अब घर में सत्ती के विवाह की चर्चा होने लग पड़ी थी। उसके दहेज का सामान घर में अभी से एकत्र होना शुरू हो गया था। आठ जमात पास करने के पश्चात् वह सिलाई-कढ़ाई तथा क्रोशिए का काम सीख रही थी। सुबह-शाम नियम से गुरवाणी का पाठ करती थी। कुछ महीने पहले तक वह अपने बीजी तृप्त कौर के साथ गुरुद्वारे भी जाती रही थी। प्रत्येक शाम गुरुद्वारे में भाई 'साखियाँ' सुनाते। कई साखियाँ सुनकर वह भावुक हो जाती और उसकी आँखें सजल हो उठतीं।
सरदार जैमल सिंह देश के बिगड़ते हालात के विषय में सुनते तो बड़े मायूस हो जाते।
''बहुत सारे लोग लायलपुर छोड़कर अमृतसर जा रहे हैं। हमें भी कुछ सोचना चाहिए। कई लोगों का कहना है कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा और जा लोग गए हैं, वे लौट आएँगे।''
विभिन्न प्रकार के कपड़ों से भरी बजाजी की दुकान, हवेलीनुमा भरा हुआ घर उनकी आँखों के सामने घूम जाता - क्या यह सब यहीं छूट जाएगा ? वह अपने तीनों बेटों, बेटी, बहू और पोते को देखते तो मन दु:खी हो जाता। फिर सोचते, जो होगा, सबके साथ होगा।
अभी वह इसी उधेड़बुन में ही थे कि एक दिन शहर के डिप्टी कमिश्नर ने ऐलान कर दिया कि सभी सिख परिवार शहर खाली कर दें। शाम के चार बजे से पहले शहर से बाहर नहर के उस पार खालसा कालेज में बनाए शरणार्थी कैम्प में चले जाएँ। यदि उन पर हमला हो गया तो उसकी जिम्मेदार सरकार नहीं होगी। घरों में ताले लगाकर सभी लोग घरों से बाहर निकल आए और काफ़िले की भीड़ में शामिल हो गए। एक के बाद एक सड़क पार करते हुए वे नहर के किनारे-किनारे पुल पार करके खालसा कालेज जा पहुँचे।
नहर पार करते हुए रघुबीर को इस नहर के किनारे मनाई पिकनिक याद हो आई। पिछले साल की ही तो बात थी। श्रावण के महीने हर वर्ष कई परिवार मिलकर, तांगों में सवार होकर यहाँ आए थे। घने शीशम के दरख्तों की छांव में बैठकर पूड़े, छोले, पूरियाँ खाते, झूले झूलते, आम चूसते, नहर के ठंडे पानी में नहाकर अपनी गरमी दूर करते। अब उसी नहर के किनारे पुलिस खड़ी थी।
रघुबीर को अभी तक याद था कि खालसा कालेज के एक बरामदे में वे फ़र्श पर सोये थे। न नीचे बिछाने के लिए कोई चादर थी, न ऊपर ओढ़ने को कोई कपड़ा।
वे कितने कठिन दिन थे ! भरे पूरे घर को छोड़कर खाली मैदान में सोना, न पीने के पानी का प्रबंध, न रोटी का जुगाड़। आठ-दस दिन यूँ ही जैसे-तैसे गुज़रे थे। रघुबीर को समझ में नहीं आता था कि सत्ती बुआ को सबकी नज़रों से छिपाकर क्यों रखा जा रहा था। उसके सिर पर से ज़रा-सा दुपट्टा सरक जाता तो परिवार का कोई भी सदस्य उसे तुरन्त घुड़क देता - 'सिर ढक।'
कैम्प में रोज़ नई ख़बरें आतीं - शरणार्थियों की भरी हुई गाड़ी में होते क़त्लेआम, छुरेबाजी की ख़बरें... शरणार्थियों के काफ़िलों पर होते हमलों की ख़बरें।
''लोग पागल हो गए हैं। धर्म के नाम पर वहशी हरकतें कर रहे हैं।'' जैमल सिंह दु:खी होकर कहते।
''हम घर कब वापस जाएँगे, दादा जी ?'' रघुबीर अपनी मासूम आवाज़ में पूछता। वह रुआँसे होकर पोते को सीने से लगा लेते।
मनजीत सिंह कहता, ''भापा जी, हमें यहाँ से निकलने का कोई रास्ता निकालना चाहिए।''
कैम्प में जैमल सिंह ने इधर-उधर से खोज-ख़बर लगानी प्रारंभ कर दी। पता चला कि भारतीय फौज के ट्रक प्रत्येक जीव के लिए पाँच-पाँच सौ रुपया लेकर वाहगा सरहद पार करवा रहे हैं। जैसे-तैसे जुगाड़ होता गया, पैसे वाले लोग पैसा देकर ट्रकों पर सीमा पार जाने लगे। जिनके पास पैसे नहीं थे, वे काफ़िलों के साथ चल पड़े। अपनी ही फौज के अफ़सर और जवान मुसीबत में फँसे अपने ही भाई-बँधुओं से यूँ पैसे वसूल करेंगे, यह तो सोचा ही नहीं जा सकता था। लेकिन, मरता क्या न करता। प्रश्न किसी भी तरह जान बचाने का था।
रघुबीर ने बाद में कालेज में देश के बँटवारे के विषय में बहुत कुछ पढ़ा था। लेकिन उसके बालमन में जो छवि बन गई थी, वह कभी मिटाई नहीं जा सकती थी। उसने लायलपुर नहर के किनारे जो लाशें देखी थीं, अमृतसर से आते हुए उसने ट्रकों ओर काफ़िलों में लोगों की जो हालत देखी थी, वह दहशत उसके मन से कभी न निकल सकी। लाखों की संख्या में शरणार्थियों की अदला-बदली, लाखों लोगों का बेघर होना, लाखों औरतों की इज्ज़त-आबरू का लुटना, यह सब मनुष्य इतिहास की बहुत बड़ी त्रासदी थी।
हाथ में ख़ास पूँजी ने होने के कारण कोई भी नया काम शुरू करना कठिन था। बहुत सारे शरणार्थियों ने छोटे-मोटे काम करके रोजी-रोटी का साधन जुटा लिया था। लेकिन, जैमल सिंह छोटे-मोटे काम करना अपना अपमान समझते। अमृतसर से लुधियाना आकर भी उन्होंने पैर जमाने की कोशिश की, परन्तु सफलता नहीं मिली। लायलपुर में ही सत्ती के रिश्ते की एक जगह बात चल रही थी। सत्ती सुन्दर भी बहुत थी। सत्ती की दादी तृप्त कौर गहनों की एक पिटारी किसी तरह बचाकर ले आई थी। जवान लड़की को इन हालात में संभालना आसान नहीं था। इसलिए सत्ती की शादी लुधियाना में ही बहुत सादे ढंग से कर दी गई थी। सत्ती का जब पता चला कि उसके माता-पिता, भाई-भाभी सब दूर बम्बई शहर जा रहे हैं, तो वह बहुत रोई-चिल्लाई।
बम्बई में जैमल सिंह के कई रिश्तेदारों ने कोलीवाड़ा की बैरकों में डेरा जमाया हुआ था। जैमल सिंह का परिवार भी वहीं एक बैरक में आकर टिक गया।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान कल्याण, चैंबूर और कोलीवाड़ा में अंग्रेज सरकार ने कैम्प बनाए थे। इन बैरकों को फौजियों के लिए बनाया गया था। युद्ध समाप्त हुआ तो देश का बँटवारा हो गया। पाकिस्तान से उजड़कर आए शरणार्थियों को बसाने के लिए इन बैरकों में प्रबंध किया गया। कोलीवाड़ा में अधिकतर शरणार्थी पेशावर, हज़ारा तथा फ्रंटीयर इलाके से आकर बसे थे। सिन्धी शरणार्थी कल्याण तथा चैंबूर की बैरकों में आकर बसे थे।
कोलीवाड़ा में कोली जाति के मछुआरे रहते थे। उनकी झोपड़ियाँ, उनका रहन-सहन और लिबास देखकर लगता था कि वे बड़ी गरीबी की हालत में ज़िन्दगी बिताते हैं। कोली स्त्रियाँ कमर पर एक धोती लपेट कर रखतीं और उसी सूती धोती के एक पल्ले से अपनी छाती को ढक लेतीं। वे ब्लाउज नहीं पहनती थीं। उनकी टांगें भी नंगी होतीं। पंजाब से आए शरणार्थियों को उनका यह पहरावा बड़ा अजीब-सा लगता। पंजाबी स्त्रियाँ तो सिर से दुपट्टा उतारना भी बुरा समझती थीं। कई कोली स्त्रियाँ तो वक्ष को ढंकना भी आवश्यक न समझतीं। कोली लोग मछली पकड़ने, बेचने का काम तो करते ही थे, साथ में, वे बड़े-बड़े ड्रमों में शराब भी बनाते। शाम को वे स्वयं भी वह शराब पीते और चोरी छिपे बेचते भी। रात को कोली इलाके में शराब की गंध सारे वातावरण में मिल जाती और जबरन नाक में आ घुसती। शराब पीकर मर्द-औरतें मिलकर खूब नाचते-गाते।
वैसे कोली समूह के लोग बम्बई के मूल निवासी थे। वे सिर्फ क़ोलीवाड़ा में ही नहीं रहते थे। उनकी बस्तियाँ कोलाबा, चौपाटी, वर्ली, माहिम, बांद्रा, डांडा और वर्सोवा में भी थीं। इनमें से कुछ इलाके पहले पुर्तगालियों के अधीन हो गए थे और कुछ अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन। 1858 के बाद ये सारे इलाके भारत के दूसरे प्रदेशों की तरह सीधे अंग्रेजी सरकार के अधीन हो गए थे।
जैसे-जैसे बम्बई शहर का विकास होता गया, वह बहुत बड़ा व्यावसायिक और औद्योगिक केन्द्र बनता चला गया। कोली लोग कुछ विशेष बस्तियों तक ही सीमित होकर रह गए।
शरणार्थी कोली लोगों को हैरानी से देखते तो कोली भी उनको वैसे ही कोतुहल भरी नज़रों से देखा करते। कोली लोगों को एक लाभ यह हुआ कि उनकी मछली की बिक्री बढ़ गई। शरणार्थियों के कुछ लड़के उनकी बनाई शराब को भी छिपकर पीने लग पड़े थे।
कोलीवाड़ा में सड़कों की हालत बहुत खराब थी। बारिश के दिनों में चारों ओर पानी भर जाता। धीरे-धीरे सरकार ने शरणार्थियों के लिए चार-चार मंज़िल की इमारतों का निर्माण शुरू कर दिया। जिन शरणार्थियों को इन इमारतों में फ्लैट अलॉट हो गए, वे बैरकें छोड़कर इनमें आकर बस गए। फ्लैट में एक कमरा, बाल्कनी और एक रसोई थी। प्रत्येक मंज़िल पर सामुहिक शौचालय तथा स्नानघर बनाए गए थे। इनकी सफ़ाई की जिम्मेदारी कोई न लेता। इन सामुहिक शौचालयों तथा स्नानघरों की सफ़ाई को लेकर अक्सर इन लोगों में परस्पर लड़ाई हो जाती।
लेकिन, शरणार्थियों ने हालात के साथ समझौता कर लिया था। उनके हौसले पस्त नहीं हुए थे। वह जीने के नये रास्ते खोजने में जुट गए थे।
(जारी…)