Tuesday 15 May 2012

उपन्यास










मित्रो, आपकी निरन्तर हौसला-अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। कुछ पाठको ने इच्छा व्यक्त की है कि इस उपन्यास को मैं हर सप्ताह दिया करूँ। मैं उनकी इस भावना की कद्र करती हूँ परन्तु यह मेरे लिए अभी संभव नहीं है। स्वास्थ्य इसकी इजाज़त नहीं दे रहा। उपन्यास का चैप्टर- 5 आपके समक्ष है। फिर वही आशा मन में संजोये हूँ कि आप इसे पढ़कर अपनी राय से मुझे अवगत कराएँगे और मेरा उत्साहवर्धन करेंगे…
-राजिन्दर कौर

परतें
राजिन्दर कौर
 5

रघुबीर और जस्सी के विवाह के बाद इस ख़ानदान की इज्ज़त, सम्मान तथा साख़ और बढ़ गई। जस्सी के परिवार व रघुबीर के परिवार दोनों ने मिलकर एक साझा होटल खोलने की योजना बना ली।
      रघुबीर की छोटी चाची और जस्सी की भाभी रिश्ते में बहनें थीं। चाची के मुँह से ज्योति का ज़िक्र हो गया। बात जस्सी तक पहुँच गई। जस्सी ने रघुबीर से ज्योति के विषय में पूछा तो उसने कुछ भी छिपाने की ज़रूरत नहीं समझी। हनीमून पर जस्सी बार-बार ज्योति का ज़िक्र करने लगती। रघुबीर को यह सब अच्छा न लगता लेकिन जस्सी किसी न किसी बहाने ज्योति को लेकर कोई व्यंग्य कर देती और हँसने लगती। उन दोनों में तनातनी हो जाती। वे एक सप्ताह में ही हनीमून से लौट कर घर आ गए। परिवार के लोग कुछ हैरान तो हुए लेकिन कारण किसी को पता न चला।
      रघुबीर को कुछ दिनों के लिए अपने चाचा के साथ किसी काम के सिलसिले में मुम्बई से बाहर जाना पड़ा।
      जस्सी हर समय ज्योति के विषय में सोचकर कुलबुलाती रहती। वह छोटी चाची से बातों ही बातों में ज्योति को लेकर जानकारी हासिल करती रहती। एक दिन अवसर पाकर उसने ज्योति का पता-ठिकाना ढूँढ़ लिया और उसे मिलने चली गई। उस दिन उसने अपनी सबसे मंहगी साड़ी निकाली और खूब सारे गहने पहन लिए। अपनी कार लेकर वह कोलीवाड़े की इमारत नंबर तीन का पता लगाकर ज्योति के घर पहुँच गई। ज्योति बिल्कुल सादे से कॉटन के सूट में बैठी एक पेंटिंग बना रही थी।
      उस सीधी-साधी लड़की को देखकर वह दंग रह गई। उसकी समझ में ही न आया कि वह उससे क्या बात करे। ज्योति दो गिलासों में चाय बनाकर ले आई। जस्सी उसकी बनाई पेंटिंग्स देखती रही और जल्दी ही उठकर वहाँ से लौट आई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि रघुबीर ने उसमें क्या देखा था। ज्योति को मिलने के पश्चात् वह निश्चिंत हो गई थी। उसे विश्वास हो गया था कि अब उसे कोई ख़तरा नहीं। उसे अपनी सुन्दरता पर और गर्व हो आया था।
      जब रघुबीर अपने काम से लौटा तो जस्सी बहुत सहज हो चुकी थी। उसने ज्योति का नाम लेकर रघुबीर पर कटाक्ष करने बन्द कर दिए थे। जस्सी को उड़ती-उड़ती एक ख़बर मिली थी कि ज्योति की शादी एक इंजीनियर से हो गई है और वह दुबई चली गई है।
      रघुबीर अपने काम में पूरी तरह व्यस्त हो गया था। जस्सी किट्टी पार्टियों में, जेवर-गहने बनवाने-तुड़वाने में, ब्यूटी-पार्लर, बुटीक आदि के चक्करों में पूरी तरह डूब चुकी थी। रघुबीर की माँ तथा चाचियाँ आर्थिक रूप में कई कठिनाइयाँ झेल चुकी थीं। वे फिजूल-खर्च करना पसन्द नहीं करती थीं लेकिन लोगों की देखा-देखी, वे भी इस रंग में रंग रही थीं। जस्सी अमीर घर से आई थी। उसे मायके से भी कुछ न कुछ मिलता रहता था इसलिए वह अपनी मर्जी से खर्च करती थी।
      रघुबीर के दादा सरदार जैमल सिंह तथा दादी तृप्त कौर अब अपना अधिक समय घर में ही बिताते। वे सुबह-शाम पाठ करते। सुबह ड्राइवर उन्हें गुरुद्वारे ले जाता। वे दोनों मियाँ-बीवी अपना अधिक समय पाठ करने में व्यतीत करते। गुरू ग्रंथ साहिब का मिलकर 'सहज पाठ' करते। जब घर में किसी का जन्मदिन होता, उस दिन उस पाठ का समापन करते। रघुबीर की माँ प्रेम कौर कड़ाह-प्रसाद बनाती। उस दिन सब मिलकर खाना खाते। अक्सर दोनों चाचा, चाचियाँ और उनके बच्चे रघुबीर के घर ही एकत्र होते। दीवाली का त्योहार भी सब मिलकर मनाते। घर की छत पर सब मिलकर पटाखे चलाते। गुरुपर्व को सारा कुटुम्ब मिलकर गुरुद्वारे जाता।
      संध्या समय परिवार के जो जीव घर में होते, वे रहिरास के पाठ में अवश्य शामिल होते। प्रत्येक संक्रांति के दिन दादी तृप्त कौर अपने हाथों से कड़ाह-प्रसाद बनाती।
      इस परिवार के प्रेम-प्यार तथा एकता का लोग उदाहरण दिया करते।
      जस्सी गर्भवती थी। शुरू-शुरू में उसे कोई न कोई समस्या लगी ही रहती। कुछ भी हजम न होता। वह बहुत कमज़ोर तथा पीली पड़ गई। परन्तु तीन महीने बीतने के बाद उसका स्वास्थ्य सुधरने लगा।
      जस्सी की आदत थी, सुबह की चाय पीते हुए समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर अवश्य एक नज़र डालना। लेकिन उस दिन उसकी नींद बहुत देर से खुली थी। रघुबीर जस्सी को सुबह उठाता नहीं था। जस्सी की रात कई बार बेचैनी में बीतती थी। वह नाश्ता करके अपने भापा जी के साथ काम पर जा चुका था। जस्सी को समाचार पत्र आसपास दिखाई न दिया तो उसने समाचार सुनने के लिए रेडियो ऑन कर दिया।
      जस्सी एकदम भौंचक्की रह गई। चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया था। जस्सी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसके हाथ में पकड़ा हुआ दूध का कप काँपने लगा था। वह ऊँचे स्वर में चीखी, ''अरे ! यह क्या ?''
      पास ही, रसोई में काम करने वाली सावित्री भागती हुई जस्सी के पास आई और पूछने लगी- ''क्या हुआ भाभी ?''
      ''चीन ने हमारे देश पर हमला कर दिया है।''
      ''क्या ? चीन कौन ?'' सावित्री हैरत में पूछने लगी।
      ''कुछ नहीं। तुम जाकर काम करो।''
      जैमल सिंह और तृप्त कौर अभी तक गुरुद्वारे से लौटे नहीं थे। प्रेम बीजी भी कहीं दिखाई नहीं दे रही थीं। जस्सी उन्हें तलाशती हुई बाबाजी के कमरे में चली गई। वहाँ गुरू ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया हुआ था। बीजी अन्दर पाठ कर रही थीं।
      वह साथ वाले फ्लैट में रुपिन्दर चाची से मिलने चली गई। उसकी भूख तो जैसे मर ही गई थी।
      ''चाची जी, आपने सुना है, चीन के बारे में ?'' जस्सी बदहवास-सी हो गई थी।
      ''हाँ, तुम्हारे चाचा जी ने सुबह बताया था। वह बड़े परेशान हो रहे थे। चीन ने हमला क्यों किया है ?'' चाची हाथ का काम बीच में ही छोड़कर जस्सी के पास बैठती हुई पूछने लगी।
      ''चीन ने बड़ा धोखा किया है, हमारे साथ। हमारी पीठ में छुरा मारा है। अभी हाल ही में हमारा चीन से समझौता हुआ था- पंचशील समझौता। शांति और अमन के लिए दोनों ने संधि की थी। अमेरिका और रूस दोनों हथियार इकट्ठे करने की दौड़ में लग हुए हैं। जिस ढंग से वे हथियार इकट्ठे कर रहे हैं, कभी भी फिर से युद्ध शुरू हो सकता है - तीसरा महायुद्ध। अभी तो दुनिया दूसरे महायुद्ध से नहीं उबर सकी। हमारा देश तो अमन चाहता है, तभी तो आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो पाएँगे। चाची जी, इसीलिए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बहुत से देशों को मिलाकर गुट-निरपेक्ष जैसा ग्रुप तैयार किया है।''
      रूपिन्दर चाची को 'गुट-निरपेक्ष', 'पंचशील' आदि के विषय में कोई ज्ञान नहीं था। न कभी वह समाचार पत्र पढ़ती थी, न ही रेडियो पर ख़बरें सुना करती थी। वह तो रेडियो पर 'बिनाका गीतमाला' सुनती या फिर 'हवा महल'। कभी-कभी बहनों का कार्यक्रम भी सुन लेती। घर में जब सारे भाई इकट्ठा होते तो उनके बीच होने वाली बातें उसके कानों में पड़ जाती, तभी उसे कुछ पता चल पाता।
      इतनी देर में प्रेम बीजी भी पाठ करके वहाँ पहुँच गईं। उन्हें सावित्री से पता चला था कि जस्सी पूरा नाश्ता भी करके नहीं गई और किसी बात पर बहुत परेशान है।
      बीजी को देखते ही जस्सी बोली, ''बीजी, चीन ने हमारे देश पर हमला कर दिया है। कुछ समय पहले ही चीन का प्रधान मंत्री चाओ-एन-लाई भारत आया था। उसका भव्य स्वागत किया गया था। 'हिन्दी-चीनी भाई भाई' के नारे गूँजते रहे थे, सारे देश में।''
      ''फिर उसने हमला क्यों किया ?'' बीजी ने हैरानी से पूछा।
      ''बस, ताकत दिखाने के लिए। पहले उन्होंने पड़ोसी देश तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया है, जबरदस्ती।''
      ''ज़ालिम के सामने किसी का ज़ोर नहीं चलता... अभी तो 1947 के ज़ख्म भी नहीं भरे। एक बार तो उजड़ कर शरणार्थी बनकर देख लिया है।'' बीजी दु:खी होकर बोले।
      ''बीजी, अब तिब्बत से बहुत से शरणार्थी हिन्दुस्तान आ रहे हैं। दलाई-लाला भी भारत की शरण में आ गए हैं।''
      ''वो कौन है ?''
      ''समझ लो उनका राजा या प्रधान।''
      ''बहुत बुरा हुआ। न जानें सरकारें चैन से राज क्यों नहीं चलातीं।''
      ''क्या हमारी सरकार सो रही थी ?'' चाची ने पूछा।
      ''पंडित नेहरू को विश्वास था, चीन की दोस्ती पर...।''
      ''अब हालात न जाने क्या मोड़ लेंगे।'' चाची ठंडी आह भरकर बोली।
      ''जस्सी, चलो अब नाश्ता कर लो। सुबह का कुछ खाया नहीं। तुम्हारी चिन्ता से लड़ाई बन्द तो नहीं हो जाएगी।''
      ''मेरी तो भूख ही मर गई है।'' मायूस होकर जस्सी वहाँ से उठी और पुन: रेडियो पर समाचार सुनने बैठ गई।
      थोड़ा-सा नाश्ता करके उसने रघुबीर को फोन किया लेकिन वह मिला नहीं। वह चाहती थी कि इस विषय पर किसी से बातचीत करे। तब तक दादा दी और दादी जी भी गुरुद्वारे से वापस आ गए थे। जस्सी दादा जी से चीन के हमले को लेकर बातें करने लग पड़ी।
      ''बेटी, बहुत बुरा हुआ। आज बाहर सभी लोग इसी विषय पर बातें कर रहे हैं। चीन ने विश्वासघात किया है। यूँ तो दोस्ती का ढोंग करता रहा, हिंदी-चीनी भाई भाई का नारा लगाता रहा...।'' जैमल सिंह की आवाज़ बड़ी मायूस थी। वह भी रेडियो पर ध्यान से समाचार सुनने लगे।
      संध्या के समय रघुबीर जल्दी घर आ गया। जस्सी बड़े उत्साह से उसके साथ इस हमले के विषय में बात करने लगी।
      ''चीन छिपकर लड़ाई की तैयारी करता रहा। हमारी सरकार को इसकी ख़बर तक नहीं हुई।'' रघुबीर ने कहा।
      ''पंडित नेहरू तो जीओ और जीने दो के सिद्धान्त पर बल देते रहे।''
      रघुबीर जस्सी को शांत करने की कोशिश करता रहा।
      सारे देश की स्थिति डांवाडोल थी। बेशक लड़ाई केवल उत्तर भारत तक ही सीमित थी लेकिन इस लड़ाई का प्रभाव सारे भारत के आर्थिक जीवन पर हो रहा था। होटल उद्योग को भी धक्का लगा था।
      जस्सी के दिल में डर की एक अजीब-सी भावना बैठ गई। वह आधी रात को उठकर बैठ जाती। डर से उसका गला सूख जाता। बार-बार पानी के घूँट भरती रहती।
      ''लड़ाई तो यहाँ से बहुत दूर हो रही है, फिर तुम क्यों डरती हो ?'' रघुबीर जस्सी को धैर्य बंधाता।
      ''न जाने कब दुश्मन यहाँ तक पहुँच जाए।'' वह पेट पर हाथ रखकर सहमी हुई कहती।
      ''जो होगा, सबके साथ होगा। तुम डरोगी तो बच्चे पर भी असर पड़ेगा। खुश रहा करो। तुम तो बहुत बहादुर हो।'' रघुबीर उसे बाहों में भरकर दिलासा देता।
      जस्सी की इस मानसिक स्थिति की ख़बर तृप्त कौर के पास भी पहुँच गई। उसने जस्सी को रात को सोने से पहले 'कीर्तन सोहले' का पाठ पढ़ने की ताकीद की और एक शबद के बोल कागज़ पर लिख दिए -
      ताती वाउ न लगई प्रारब्रह्म सरणाई।
      चउगिरद हमारे रामकर, दुख लगै न भाई।

      जस्सी ने दादी की बात मानी या नहीं, यह तो किसी को पता न चला लेकिन शुक्र था कि लड़ाई कुछ दिन में ही समाप्त हो गई। और ज़िन्दगी पुन: अपने ढर्रे पर चलने लगी।
      समय आने पर जस्सी ने एक बड़े ही प्यारे और स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। सारे ख़ानदान में खूब खुशियाँ मनाई गईं। लुधियाना से रघुबीर की बुआ सत्ती विशेष तौर पर आई। जैमल सिंह और तृप्त कौर बहुत खुश थे। वे सोने की सीढ़ी चढ़ गए थे।
      जैमल सिंह जब पाठ करते तो तृप्त कौर प्रपौत्र संदीप को गोदी में लेकर बैठ जाती।
      बच्चा चालीस दिन का हुआ तो घर में 'अखंड पाठ' की समाप्ति हुई। घर आए रिश्तेदारों के लिए 'लंगर' की तैयारी की गई।
      दूसरे दिन रात को डिनर-पार्टी रखी गई। उसमें विशेष अतिथियों को आमंत्रित किया गया।
      संदीप की आमद से सारा घर खुशियों से भर गया था।
      अभी संदीप तीन महीने का ही था कि एक दिन सुबह जैमल सिंह सोकर उठे ही नहीं। वह नींद में ही चुपके से यह दुनिया त्याग कर चले गए। न वह बीमार थे, न उन्होंने किसी से सेवा करवाई। घर में शोक की लहर छा गई। लेकिन लोग इस मृत्यु पर खुशी प्रकट कर रहे थे कि वह चलते-फिरते गए हैं। न किसी को कष्ट दिया, न स्वयं कष्ट भोगा।
      तृप्त कौर ने एक चुप्पी साध ली। वह अपना ज्यादा ध्यान पाठ करने में लगाए रखतीं। धीरे-धीरे उनका खाना-पीना कम होता चला गया। रात को उन्हें नींद भी बहुत कम आती। सारी बहुएँ, बेटे, बच्चे उनको खुश रखने का पूरा यत्न करते। आख़िर, लुधियाना से रघुबीर की बुआ सत्ती को बुलाया गया। लेकिन तीन महीने पश्चात् उसी तारीख़ को जिस दिन जैमल सिंह गुज़रे थे, तृप्त कौर भी 'बाबा जी के कमरे में' सदैव के लिए सो गईं।
      तेहरवीं के दिन सबकी जुबान पर दादी-दादा के प्यार की कहानियाँ थीं।
      घर में बुज़ुर्गों की कमी को बहुत महसूस किया गया लेकिन वक्त बड़े-बड़े ज़ख्म भर देता है।
(जारी…)