Saturday 30 June 2012

उपन्यास




मित्रो, धारावाहिक उपन्यास परतें की आठवीं किस्त आपके समक्ष रख रही हूँ, इस उम्मीद और विश्वास के साथ कि आपको यह किस्त भी पसन्द आएगी और आप अपने विचार मुझसे नि:संकोच साझा करेंगे।

-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

8

जस्सी की किट्टी पार्टी वाली सहेलियाँ हर महीने कोई न कोई प्रोग्राम बनाती रहतीं। कभी फिल्म, कभी पिकनिक, कभी मुम्बई से बाहर लोनावाला या खंडाला...। इस महीने उन्होंने ताज महल होटल में लंच का कार्यक्रम रखा था और रास्ते में जहांगीर आर्ट गैलरी में पेंटिंग्ज़ की प्रदर्शनी को देखने का उनका इरादा भी था। सभी किट्टी सदस्यों को न तो चित्रकला की समझ थी और न ही प्रदर्शनी देखने की वे शौकीन थीं। लेकिन सबके साथ चलना उनको आता था। जहांगीर आर्ट गैलरी में दो चित्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनी लगी हुई थी। एक गणेश कुलकरणी की और दूसरी चित्रकार थी - ज्योति मरवाह।
      ''मरवाह तो पंजाबी होते हैं'' एक सदस्य ने दूसरी से कहा।
      इस किट्टी पार्टी की सभी सदस्या हाल में दायें-बायें फैल गईं। किसी चित्र को देखकर कभी 'वाह,वाह' करतीं और कभी 'एक्सलेंट' कहतीं। कहीं चुपचाप आगे बढ़ जातीं। कई चित्रों का विषय उनको बिलकुल समझ में नहीं आता। जस्सी ने 'ज्योति' नाम पढ़ा तो उसका माथा ठनका। वह जब ज्योति को मिलने कोलीवाड़ा में गई थी तो वह एक चित्र बना रही थी।
      ''हुँह ! वह भला इतनी बड़ी चित्रकार कहाँ हो गई होगी कि वह अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगा सके। उसके नाम के साथ 'मरवाह' लिखा है। न जाने उसका विवाह किसके साथ हुआ है।''
      जस्सी चित्र देखना छोड़ हॉल में ज्योति को ढूँढ़ने लगी। काफी भीड़ थी। गणेश कुलकरणी को उसने आसानी से ढूँढ़ लिया था। वह एक ग्रुप को अपने चित्रों के विषय में कुछ बता रहा था। उसने ज्योति को देखा तो उसे बड़े ध्यान से निहारती रही। उसने कॉटन की साड़ी बड़े सलीके से पहन रखी थी। पतली, लम्बी, तीखे नयन-नक्श वाली। न रंग गोरा था, न साँवला। वह किसी दर्शक को अपनी एक पेंटिंग के विषय में कुछ बता रही थी। उसके चेहरे पर हल्की-हल्की मुस्कान खेल रही थी। क्या यह वही ज्योति है ? इतने बड़े अन्तराल के पश्चात् ज्योति को देखकर वह पहचान नहीं पा रही थी।
      उसके दिल की धड़कन बढ़ गई थी। कोलीवाड़ा में देखी ज्योति के नैन-नक्श धुँधले हो गए थे। ज्योति के पास ही एक लड़की खड़ी थी। शायद यह उसकी बेटी थी। शक्ल-सूरत मिल रही थी। उसको पता चला था कि ज्योति की एक बेटी भी है। उसके दिल की धड़कन और अधिक बढ़ गई। उसकी सभी सहेलियाँ चित्र देखने में व्यस्त थीं। परन्तु वह पत्थर बनी केवल ज्योति को देखती जा रही थी। उसने ज्योति के पास जाकर उससे बात करने की सोची लेकिन वह अपने प्रशंसकों से घिरी हुई थी। उन सब के चेहरों पर एक मुस्कान बिखरी हुई थी। ज्योति की मुस्कान भी बड़ी दिलकश लग रही थी। थोड़ा हटकर एक सरदार जी के साथ खड़ी एक लड़की उनसे बातें करती हुई खिलखिला कर हँस रही थी। हो सकता है, यह सरदार ज्योति का पति हो और वह लड़की उसकी बेटी। सरदार बहुत स्मार्ट दिख रहा था। लगता है, ज्योति अपने परिवार में खुश है। यदि यह ज्योति वही ज्योति है और अपने परिवार में खुश है तो वह भला रघुबीर को क्यों मिलेगी ? यह सब मेरे मन का वहम है। रघुबीर तो बहुत ही व्यस्त रहता है। वह अधिकतर दौरे पर रहता है। फिर उसे ज्योति से मिलने की फुर्सत कहाँ !
      यही सब सोच कर वह सामने लगे चित्रों को देखने लगी। लेकिन आँखों के आगे जैसे धुँध-सी छाई थी। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। तभी उसकी सहेलियों ने उसे आ झिंझोड़ा।
      ''क्या हुआ ? कहाँ खो गई हो ? मरवाह का कौन सा चित्र तुम्हें अच्छा लगा ?'' उसकी सहेलियों ने बहुत से सवाल दाग दिए। एक स्त्री उसके कंधों को पकड़कर खड़ी हो गई।
      ''थोड़ा सिर में दर्द हो रहा है।'' उसके मुँह से इतना ही निकला।
      ''अच्छा ! अब हम यहाँ से चल रहे हैं। तुम्हें कोई चित्र खरीदना हो तो बताओ।''
      ''खरीदना ?''
      ''हाँ, हम लोगों ने कुछ चित्र खरीदने के लिए बुक करवा दिए हैं।''
      ''आज तो कुछ सूझ नहीं रहा। तबीयत ठीक नहीं। फिर कभी सही।''
      ''चलो ठीक है।''
      वह पुन: ख़यालों में खोल गई। उनके होटल में भी बड़े-बड़े चित्र लगे हुए थे। उसने कभी ध्यान नहीं दिया था। न ही उसने कभी किसी चित्रकार का नाम ही पढ़ा था। उसके अपने घर के हॉल में भी दो चित्र लगे हुए थे...।
      वह इन्हीं उलझनों में ही फंसी थी कि उसकी सहेलियाँ वहाँ से चल पड़ीं। ताज महल होटल में उसका खाने में मन नहीं लग रहा था। सब बारी-बारी से उसकी तबीयत के बारे में पूछती रहीं। उन सबकी बातों का विषय आज की नुमाइश ही था। वे ताज महल होटल में लगे चित्रों की बातें भी कर रही थीं लेकिन जस्सी की आँखों के सामने तो अँधेरा-सा था - उसे सब कुछ धुँधला-धुँधला-सा दिख रहा था।
      जस्सी के बगल वाली कुर्सी पर बैठी एक साथिन बोली, ''जस्सी, इन्दिरा गांधी दुबारा चुनाव जीत गई है। क्या तुम अब भी उसे पत्र लिखती हो ?''
      जस्सी ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
      इन्दिरा गांधी का नाम सुनकर वह सदैव जोश में आ जाती थी और उसके बारे में बड़े उत्साह से बात करती थी। लेकिन आज वह ख़ामोश थी।
      ''तुम्हारे पत्रों का उत्तर इन्दिरा गांधी स्वयं थोड़ा ही देती है, उसके सेक्रेटरी आदि देते होंगे।''
      ''नीचे हस्ताक्षर तो इन्दिरा गांधी के ही होते हैं। फिर वह जो लिखवाती होगी, वही जवाब आता होगा। मेरे पत्र वह पढ़ती तो अवश्य होगी।'' जस्सी बोली।
      ''तुम उन पत्रों का क्या करती हो ?''
      ''एक फाइल में लगा देती हूँ। सारे खत मैंने संभाल कर रखे हैं।'' बड़े गर्व से जस्सी बोली। अब उसके चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ था।
      घर पहुँचकर सबसे पहले उसने हॉल कमरे में लगी दोनों पेंटिंग्स को देखा। नीचे लिखे चित्रकार के नाम पढ़े। वहाँ ज्योति से मिलते-जुले नाम बिल्कुल नहीं थे। उसे तसल्ली हो गई।
      रात को रघुबीर काम से घर काफ़ी देर से लौटा। जस्सी की आँखें नींद से भारी थीं। रघुबीर को देखकर वह उठकर बैठ गई। उसके दिमाग में बहुत से प्रश्नों ने हड़कंप मचा रखी थी। लेकिन उस समय उसने कोई भी बात छेड़ना उचित न समझा। यूँ तो अपने मन को काबू में रखना उसके लिए बहुत कठिन होता है, परन्तु आज की रात उसने 'चुप ही भली' का सोच कर बात आगे नहीं बढ़ाई।
      अगली सवेर रघुबीर बहुत देर से उठा। चाय का कप लेकर वह पुन: लेट गया। वह फिर से ऊँघ गया था। शायद अभी वह कुछ देर और सोया रहता लेकिन तभी उसके काम पर से फोन आने शुरू हो गए थे। जस्सी कमरे के कई चक्कर लगा चुकी थी।
      दोपहर को लंच के पश्चात् रघुबीर पुन: लेट गया।
      ''आपकी तबीयत तो ठीक है न ?'' जस्सी ने पूछा।
      ''थकावट बहुत लग रही है। पिछले कई दिन से आराम नहीं मिला।'' वह अंगड़ाई लेते हुए बोला।
      ''आज काम पर न जाओ। फोन कर दो और घर पर आराम करो।'' जस्सी ने सलाह दी।
      ''होटल में एक बहुत बड़ी पार्टी आई है, कैनेडा से। उनके लिए सारा प्रबंध करना है।''
      ''यह काम किसी दूसरे को दे दो, आज।'' वह रघुबीर के समीप बैठती हुई बड़े प्यार से बोली।
      ''देखता हूँ...।'' कहकर रघुबीर फोन करने लग पड़ा।
      कुछ देर आराम करने के बाद रघुबीर तैयार होकर काम पर चला गया। जस्सी को ज्योति के विषय में पूछने का अवसर ही न मिला।
      एक दिन दोपहर को संदीप घर आया तो उसके साथ तीन-चार युवक-युवतियाँ भी थीं। उसने अपनी मम्मी से सभी को मिलवाया। अचानक जस्सी की नज़र एक लड़की पर पड़ी तो उसको लगा कि यह तो वही लड़की है जो ज्योति मरवाह आर्टिस्ट के पास खड़ी थी, जहाँगीर आर्ट गैलरी में। वह ठिठक कर खड़ी हो गई और उस लड़की को गौर से देखने लग पड़ी। पहले भी संदीप के यार-दोस्त घर आते थे तो वह 'हैलो' कहने के बाद अन्दर से चाय-पानी का इंतज़ाम करवाकर भेज देती। पर आज उसको इस तरह खड़ी देखकर संदीप को कुछ आश्चर्य-सा हुआ।
      ''क्या बात है मम्म ?''
      जस्सी उस लड़की के पास आकर खड़ी हो गई और बोली -
      ''तेरा क्या नाम है बेटी ? लगता है, तुझे मैंने कहीं देखा है।''
      वह लड़की मुस्करा पड़ी। उसकी मुस्कराहट बड़ी प्यारी थी।
      ''मेरा नाम रश्मि है।'' वह बहुत ही मीठी आवाज़ में बोली।
      ''बड़ा प्यारा नाम है। तुझे मैंने शायद जहाँगीर आर्ट गैलरी में देखा था, कुछ दिन पहले।''
      उस लड़की की मुस्कराहट और भी ज्यादा चमक उठी, ''हाँ, वहीं देखा होगा। मेरी मम्मी आर्टिस्ट हैं। उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी थी। मैं भी वहाँ गई थी।''
      ''तेरी मम्मी बहुत अच्छी चित्रकार है।'' जस्सी ने बात को आगे बढ़ाने के लिए कहा।
      ''तुम कहाँ रहते हो ? मैं तुम्हारी मम्मी से मिलना चाहती हूँ।''
      ''ज़रूर आंटी, ज़रूर। आओ हमारे घर...।''
      ''मम्मी, कोई चाय-वाय भिजवा दो। साथ में कुछ खाने को। बहुत भूख लगी है।'' संदीप उतावला-सा होकर बोला।
      जस्सी तो बात की तह तक जाना चाहती थी। परन्तु इतनी अधिक उत्सुकता दिखाना शायद ठीक नहीं था। वैसे भी, उस समय बच्चों के सामने।
      जब सब लड़के-लड़कियाँ चले गए तो उसने संदीप को अपने कमरे में बुला लिया और रश्मि के बारे में कितने ही सवाल करने लग पड़ी।
      ''मम्मी, आप उस लड़की के बारे में जानने के लिए इतने उतावले क्यों हो ? आपको फिर मिलवा दूँगा, उससे। जो भी जानना हो, पूछ लेना।'' वह माँ की घूरती नज़रों के सामने अपने आप को बेआराम महसूस कर रहा था और झट ही कमरे में से बाहर निकल गया।
      उस शाम रघुबीर समय से ही घर लौट आया। वह टी.वी. के सम्मुख बैठा समाचार सुन रहा था। उसके चेहरे पर से लगता था कि वह बड़े मानसिक तनाव में था।
      ''सब ठीक है न ?'' जस्सी उसके पास बैठती हुई बोली।
      ''बस, ठीक ही है।'' वह बड़ी बुझी-सी आवाज़ में बोला। जब उसका जस्सी से बात करने का मूड न होता, वह ऊँची आवाज़ में टी.वी. लगाकर ख़बरें सुनने लग पड़ता। जस्सी रघुबीर के और करीब होकर बैठ गई और उसके घुटने पर हाथ रखकर बोली।
      ''मैं कुछ दिन पहले एक नुमाइश देखने गई थी।''
      ''कपड़ों की या गहनों की ?'' रघुबीर ने बग़ैर जस्सी की ओर देखे पूछा।
      ''पेंटिंग्स की।''
      ''तुझे पेंटिंग्स में कब से दिलचस्पी हो गई ?'' टी.वी. की आवाज़ धीमी करके उसने हैरान होते हुए पूछा।
      ''बस, सहेलियों के संग चली गई। वहाँ एक चित्रकार थी- ज्योति मरवाह। उसकी बेटी भी उसके साथ थी। आज वही लड़की संदीप के साथ हमारे घर आई थी।''
      रघुबीर ने हैरानी से जस्सी की ओर देखा। जस्सी का हाथ अभी भी उसके घुटने पर था। जस्सी को उसके घुटने में कंपकंपी-सी महसूस हुई।
      कुछ पल बाद रघुबीर ने पूछा, ''फिर ?''
      ''फिर ? फिर क्या ! मेरी कई सहेलियों ने ज्योति की पेंटिंग्स भी खरीदीं पर, मुझे तो कोई समझ में ही नहीं पड़ती कि कौन सी अच्छी है।''
      ''हूँ...।'' कहकर रघुबीर ने हल्का-सा सिर हिलाया। टी.वी. पर पंजाब के बिगड़े हालात के बारे में समाचार आया। रघुबीर ने आवाज़ फिर ऊँची कर दी। पंजाब में एक शहर में बम फट गया था और कई लोग मारे गए थे। आजकल रोज़ ही पंजाब और दिल्ली से बमों के धमाकों की खबरें आती रहती थीं। वहाँ आतंकवाद ने पूरा जाल बिछा दिया था। जिनके रिश्तेदार पंजाब, हरियाणा और दिल्ली रहते थे, वे डरे-सहमे ही रहते। रघुबीर की बुआ लुधियाना थी, पर परिवार, घर और कारोबार छोड़कर जाने भी कहाँ।
      जस्सी ज्योति के विषय में जानना चाहती थी, उसके लिए हालात अब ठीक नहीं थे।
      परिवार के लोग एक साथ बैठते तो पंजाब के हालात के बारे में ही चर्चा होती रहती।
      परिवार के दूसरी व्यस्तताओं के कारण जस्सी की ज्योति को लेकर उत्सुकता भी मद्धम पड़ गई।
(जारी…)

Saturday 16 June 2012

उपन्यास



मित्रो, मेरे इस चल रहे धारावाहिक उपन्यास परतें  पर आपकी टिप्पणियां पाकर मैं अभिभूत हो जाती हूं। आपका यह स्नेह-प्यार मुझे इस समय मेरी बीमारी की अवस्था में संजीवनी की भाँति काम कर रहा है…मैं अपना दु:ख, अपनी तकलीफ़ भूल जाती हूँ, भले ही कुछ समय के लिए भूलूँ…

उपन्यास की सातवीं किस्त आपके समक्ष है… पढ़ें, समय निकाल कर और लिखें कैसी लगी…
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

7

संदीप अपनी पढ़ाई में बहुत अच्छा चल रहा था। उधर रघुबीर के चाचा भी अलग अलग कोर्स कर रहे थे। कोई बिजनेस मैनेजमेंट कर रहा था तो कोई होटल मैनेजमेंट। उनकी बेटियाँ फैशन डिजाइनिंग और इंटीरीयर डेकोरेशन का कोर्स कर रही थीं।
      संदीप की स्कूल की पढ़ाई ख़त्म हुई तो आगे की पढ़ाई के लिए उसको इंग्लैंड या अमेरिका भेजने को लेकर घर में चर्चा चलने लगी। लेकिन, जस्सी संदीप को दूर भेजने के लिए रज़ामंद नहीं हुई। इसलिए उसने मुम्बई में ही एक कालेज में दाख़िला ले लिया।
      एक दिन जस्सी अपनी सहेलियों के साथ किट्टी पार्टी के सिलसिले में एक रेस्तरां में गई तो उसने संदीप को एक लड़की के साथ बैठे देख लिया। वह हैरान-परेशान हो गई। वह तो अभी संदीप को बहुत छोटा-सा, मासूम-सा बच्चा ही समझती थी। संदीप ने भी जस्सी को देख लिया था और कुछ झेंप-सा गया था। वह कुछ देर बाद वहाँ से उठकर चला गया था। उस दिन पार्टी में जस्सी का मन उदास हो गया था। शुक्र था कि उसकी किसी सहेली ने संदीप को नहीं देखा था। घर पहुँच कर वह संदीप की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा करने लगी।
      शाम को जब रघुबीर घर पर आया तो जस्सी ने सारी बात बताई। वह ठहाका लगाकर हँसने लगा।
      ''यह सब तो स्वभाविक ही है। यही उम्र तो होती है, दोस्ती की, इश्क की।'' रघुबीर चहककर बोला।
      ''आप पर ही गया है।''
      ''क्या मतलब ?''
      ''क्यों भूल गए उस लड़की को? क्या नाम था उसका? हाँ, याद आया -ज्योति। इसी उम्र में वह आपके साथ घूमा करती थी।''
      रघुबीर एकदम चुप हो गया।
      ''वैसे आपकी वो ज्योति अब है किस देश में?'' जस्सी की आवाज़ में अजीब-सा व्यंग्य, कसैलापन तथा ईर्ष्या झलक रही थी।
      रघुबीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उठकर दूसरे कमरे में चला गया। जस्सी बड़ी हैरान थी। वह विचारों में खो गई। इस दौरान वह ज्योति के विषय में लगभग भूल ही गई थी।
      'क्या रघुबीर अभी तक ज्योति को भूला नहीं था? क्या मेरे याद दिलाने से उसके घाव हरे हो गए है? इस प्रश्न का उत्तर वह सहज होकर क्यों नहीं दे रहा?' जस्सी इन प्रश्नों में उलझ कर रह गई।
      कई बार रघुबीर जब मुम्बई से बाहर बहुत दिन लगाकर आता, उस समय भी जस्सी उससे अजीब सवाल किया करती।
      ''वहाँ कोई दूसरी तो नहीं रखी हुई? इतने दिन आपको मेरी याद नहीं सताती? होटलों में तो बहुत लड़कियाँ आती रहती हैं, कभी...।'' वह आँखों में शरारत भरकर रघुबीर से ऐसे प्रश्न पूछती रहती। रघुबीर कभी मुस्करा देता और कभी बात का रुख बदल देता। लेकिन, आज रघुबीर द्वारा ज्योति का नाम सुनकर यूँ गंभीर हो जाना, उसे बड़ा अजीब लगा।
      रात को संदीप घर देर से लौटा। उसने जस्सी के सवालों का जवाब टाल दिया।
      ''मम्मा, वह तो मेरे साथ पढ़ती है। मेरी दोस्त है। बस, और कुछ नहीं।''
      जस्सी चुप हो गई। लेकिन सारी रात उसे रघुबीर की ख़ामोशी कांटे की तरह चुभती रही। उसने मन में ठान लिया कि वह ज्योति का पता ज़रूर लगाएगी। एक दिन असवर पाकर वह कोलीवाड़े वाले घर में पहुँची। पता चला कि ज्योति के माँ-बाप यह घर छोड़कर बांद्रा चले गए थे। आस-पड़ोस वाले उनके विषय में ज्यादा कुछ नहीं जानते थे। वह गांधी मार्केट, कपड़े की दुकान पर गई। वहाँ बहुत कुछ बदल गया था। उसके हाथ कोई ख़बर न लग सकी।
      मन ही मन वह बहुत बेचैन हो गई थी। उसे ज्योति के बारे में जानने की हमेशा उत्सुकता बनी रहती थी लेकिन वह रघुबीर के सामने ज्योति का नाम लेने से डरती थी। एक दिन बांद्रा वाले घर का पता उसे मिल ही गया। वहाँ जाने पर उसे मालूम हुआ कि ज्योति पिछले कई वर्षों से मुम्बई में ही थी। दुबई से लौट कर आए उसे एक अरसा बीत गया था। उसकी एक बेटी थी जो किसी कालेज में पढ़ती थी। ज्योति आजकल अंधेरी में सात बंगले के आसपास किसी एक फ्लैट में रहती थी।
      जस्सी सोचती कि रघुबीर को अवश्य मालूम होगा कि ज्योति कहाँ रहती है। शायद उसका उसके साथ सम्पर्क भी हो। दूसरे पल ही वह सोचती, वह तो साधारण-सी लड़की है। मेरे जैसी सुन्दर पत्नी के होते हुए वह किसी अन्य स्त्री की ओर कैसे आकर्षित हो सकता है। यूँ भी रघुबीर का ज्यादा समय तो गोवा में बीतता है।
      जस्सी स्वयं ही अपने आप से सवाल करती और स्वयं ही उनके उत्तर ढूँढ़ लेती।
      कई बार वह अपने करोड़पति बाप-दादा के विषय में सोचने लगती। उनके कारण ही रघुबीर के परिवार का होटल व्यापार इतना आगे बढ़ पाया है। रघुबीर को तो उसका शुक्रगुजार होना चाहिए। लेकिन ज्योति तो उसका 'पहला प्यार' थी। और कहते हैं कि पहला प्यार कभी भूलता नहीं।
      इन वर्षों के दौरान वह ज्योति को लगभग भूल-सी गई थी लेकिन आजकल उस पर एक ही भूत सवार रहता कि वह ज्योति के बारे में पता लगाए। वह रघुबीर की जेब, उसका पर्स, डायरी सभी जगह सुराग ढूँढ़ने का यत्न करती।
      एक दिन वह बोली -
      ''पता चला है कि ज्योति आजकल मुम्बई में ही रहती है।''
      ''फिर?''
      ''आप जानते हैं?''
      ''हाँ।''
      ''आपसे कभी मुलाकात हुई?''
      ''तुम यह सब क्यूँ पूछ रही हो?''
      ''जब से मुझे पता चला है कि वह इसी शहर में है, मुझे डर-सा लगने लगा है।''
      ''वह तो बहुत सालों से इधर ही है।''
      ''आपने कभी बताया नहीं।'' बड़ी चुभती हुई निगाहों से वह रघुबीर की ओर देखकर बोली।
      ''इसमें बताने वाली क्या बात है? तुम देखती हो, सुबह से शाम तक काम ही काम... अपनी सुध तो है नहीं। और तुम व्यर्थ के सवाल पूछती रहती हो।'' रघुबीर ने दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी पगड़ी संवारी और हेयर ड्रायर से दाढ़ी सुखाने लगा।
      जस्सी ख़ामोश रघुबीर की ओर देखती रही। उसके जाने के पश्चात् वह शीशे के सामने खड़ी होकर स्वयं को निहारने लगी। अपना निरीक्षण करने लगी। उसके बाल सलीके से क्लिप से बंधे हुए थे। आँखों के नीचे पड़ी झुर्रियों को दूर करने के लिए वह लगातार ब्यूटी-पॉर्लर जाती थी।
      ''मुझमें क्या कमी है? वह क्यों बेगानी नांद में मुँह मारेगा।'' लेकिन वह 'बेगानी' शब्द पर एकदम चौंक गई। पहले तो ज्योति ही उसकी अपनी थी। 'बेगानी' तो मैं ही हूँ।
      वह बड़ी उलझन में फँस गई थी। तभी उसने ज्योति की शक्ल याद करने की कोशिश की। वह सूखी-पतली-सी लड़की। उसमें क्या आकर्षण हो सकता है भला! वह आदमकद शीशे के सामने खड़ी थी। तभी उसे अहसास हुआ कि उसका वज़न बहुत बढ़ गया है। उसकी कमर और कमर का निचला भाग बहुत बढ़ गया था। रघुबीर उसे कई बार वज़न कम करने के लिए कह चुका है लेकिन उसने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। उसने उसी समय एक फ़ैसला लिया कि वह जिम में जाना शुरू करेगी। और अपना वज़न कम करेगी। वह उसी समय टेलीफोन डॉयरेक्टरी में से आसपास के जिम का फोन नंबर तलाशने लग पड़ी।
      फिलहाल, ज्योति का ख़याल उसके दिमाग से निकल गया था।
(जारी…)

Tuesday 5 June 2012

उपन्यास











मित्रो, इस बार उपन्यास के अगले चैप्टर की पोस्टिंग में कुछ विलम्ब हुआ है, क्षमा प्रार्थी हूँ। स्वास्थ खराब होने और अस्पताल में भर्ती होने के कारण अभी शरीर में वो शक्ति और ऊर्जा नहीं है, फिर भी परतें उपन्यास की अगली किस्त यानी चैप्टर -6 आप सब के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ… आशा है, आप पूर्ववत अपना स्नेह-प्यार बनाए रखेंगे।
-राजिन्दर कौर

परतें
राजिन्दर कौर
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धीरे-धीरे घर में बुजुर्ग़ों की पदवी रघुबीर के भापा जी सरदार मनजीत सिंह तथा बीजी प्रेम कौर को मिल गई। उन दोनों की बुद्धिमत्ता, लगन, मेहनत और प्रेम-भावना का घर में पहले से ही बड़ा दबदबा था। मनजीत सिंह के छोटे भाई तथा मामियाँ सब उन पर बड़ा गर्व करते थे। मनजीत सिंह अभी होटल की जिम्मेदारियाँ बखूबी निभा रहे थे।
      अब 'सहज पाठ' की जिम्मेदारी, गुरू ग्रंथ साहिब का सुबह 'प्रकाश करना', संध्या के समय 'रहिरास' का पाठ तथा 'सुखासन', इन सबकी जिम्मेदारी मनजीत सिंह तथा प्रेम कौर पर आ गई थी।
      इस परिवार के होटल के काम का विस्तार हो रहा था। जस्सी का भाई तथा रघुबीर होटल ट्रेनिंग के लिए इंग्लैंड चले गए।
      रघुबीर वहाँ संदीप को बहुत मिस करता। अक्सर ही घर में फोन करके सबका हाल पूछता रहता।
      तभी, 1965 की जंग शुरू हो गई। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में कश्मीर को लेकर वाद-विवाद चलता ही रहता था। हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने से पूर्व बहुत सारे पाकिस्तानी भेस बदलकर कश्मीर में चोरी-छिपे प्रवेश कर गए थे। वे कश्मीर के लोगों को भारत के विरुद्ध भड़काने के लिए आए थे। पाकिस्तानी फौजें भी पीछे-पीछे आ धमकीं। उन्होंने टैंकों तथा जेट लड़ाकू हवाई-जहाजों से भारत पर हल्ला बोल दिया। पाकिस्तान को ये जंगी जहाज अमेरिका ने दिए थे। चीन भी उसे हथियार भेज रहा था और पाकिस्तानी फौजों को ट्रेनिंग भी दे रहा था।
      भारत का पूरा ध्यान अब युद्ध के मैदान की ओर लगा था। हवाई-हमलों का भय हर समय लगा रहता था। युद्ध के कारण लोगों का आना-जाना कम हो जाता और होटल व्यवसाय पर भी इसका प्रभाव अवश्य पड़ता।
      मनजीत सिंह के परिवार पर भी इस युद्ध का काफ़ी बुरा असर हुआ था। रघुबीर भी इंग्लैंड में बैठा घर-परिवार की बहुत चिन्ता करता। इधर जस्सी संदीप को लेकर बहुत चिंतित हो उठी थी।
      ''भापा जी, हिन्दुस्तानी फौजों को चाहिए कि पाकिस्तान को ऐसा सबक सिखाएँ कि वह फिर कभी कश्मीर की ओर मुँह न करे।'' जस्सी जोश तथा गुस्से में कहती।
      ''पाकिस्तान को अमेरिका और चीन की शह मिल रही है। यदि वे उसे हथियार न दें तो पाकिस्तान कुछ नहीं कर सकता।'' मनजीत सिंह कहते।
      ''कश्मीर समस्या का कुछ न कुछ हल ज़रूर निकलना चाहिए। लड़ाई जल्द खत्म हो तो तनाव से मुक्ति मिले।'' जस्सी समाचार पत्र तथा रेडियो से साथ चिपकी रहती और प्रत्येक ख़बर पर नज़र रखती।
      जब रघुबीर और जस्सी का भाई दोनों भारत लौटे तो देश में बहुत कुछ घट चुका था। पाकिस्तान से ताशकन्द समझौता, लाल बहादुर शास्त्री जी की आकस्मिक मृत्यु और इन्दिरा गांधी का प्रधान मंत्री की कुर्सी पर बैठना।
      इंग्लैंड से लौट कर रघुबीर, संदीप, जस्सी, भापा जी और बीजी को संग लेकर अमृतसर गया। रघुबीर के बीजी ने मन्नत मानी थी कि वह रघुबीर के बेटे को अमृतसर दरबार साहिब के दर्शनों के लिए अवश्य ले जाएँगे। लेकिन जाने का अवसर ही न मिला। दरबार साहिब के दर्शन तथा स्नान के पश्चात् वे सब लुधियाना आ गए। वहाँ रघुबीर की बुआ सत्ती रहती थी। उन्हें देखकर वह फूली न समाई। इस परिवार की पंजाब की फेरी बहुत लम्बी अवधि के बाद लगी थी। पंजाब के अन्य शहरों में वे अपने दूर-पास के सभी सगे-संबंधियों से मिलते हुए बम्बई वापस पहुँचे।
      अब इस परिवार ने गोवा में एक होटल खोलने का इरादा कर लिया था।
      हिन्दुस्तान 1947 में अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हो गया था लेकिन गोवा अभी भी पुर्तगाल के अधीन था। सन् 1498 में एक पुर्तगाली वास्कोडिगामा ने भारत के पश्चिमी तट पर कालीकट में आकर पड़ाव डाला था। उसी ने यूरोप से भारत का समुद्री मार्ग खोज निकाला था। उस समय भारत के गर्म मसालों के व्यापार पर अरब देशों ने कब्ज़ा जमा लिया था। अब पुर्तगाल ने धीरे-धीरे गोवा बन्दरगाह पर अपना अधिकार जमा लिया। सन् 1510 तक उन्होंने गोवा में अपना राज्य कायम कर लिया। उन्होंने बहुत से लोगों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए मज़बूर कर दिया था। कुछ लोग हिन्दू समाज में जाति-भेद के कारण दु:खी थी, इसलिए वे अपनी इच्छा से ईसाई बन गए। हिन्दू मंदिरों को तोड़कर चर्च स्थापित किए गए। जिसकी लाठी, उसकी भैंस।
      पुर्तगाली तथा भारतीयों में अंतर्जातीय विवाहों से जो संतान हुई, उसने गोवा के धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन में अपना विलक्षण योगदान दिया।
      जब गोवा में भी आज़ादी की लहर जोर पकड़ने लगी तो वहाँ की सरकार ने इस लहर को कुचलने की पूरी कोशिश की। सरकार के दमन-चक्र में आन्दोलन और अधिक तीव्र हो उठा।
      सन् 1961 में भारत सरकार ने गोवा की सरकार के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई करके उसे पुर्तगाली गुलामी से स्वतंत्र करवा दिया। पूरे 450 वर्ष पश्चात् गोवा ने आज़ादी की साँस ली।
      उसके पश्चात् गोवा विकास के मार्ग पर चल पड़ा। वहाँ पर्यटकों की संख्या बढ़ रही थी। गोवा का समुद्री किनारा, वहाँ की हरियाली तथा अन्य प्राकृतिक दृश्य, भारतीय और विदेशी यात्रियों को अपनी ओर खींचते थे। ऐसे अवसर पर वहाँ होटल उद्योग में बहुत वृद्धि हो रही थी।
      अब रघुबीर बहुत व्यस्त हो गया था। उसका एक पैर गोवा में होता तो दूसरा मुम्बई में। समय बीतता गया। जस्सी भी कई बार रघुबीर के साथ चली जाती।
      परिवार की सभी स्त्रियाँ जस्सी को दूसरा बच्चा पैदा करने की सलाह देतीं।
      ''क्या तुम सास की तरह एक पर ही विराम लगा रही हो ? कम से कम दो बच्चे तो होने ही चाहिएँ।''
      जस्सी हँसकर बात को टाल देती।
      तभी देश पर पुन: संकट के बादल मंडराने लगे। पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिमी पाकिस्तान के विरुद्ध आन्दोलन प्रारंभ हो गया। पूर्वी पाकिस्तान की मांग थी कि उसे स्वयं शासन करने का अधिकार दिया जाए परन्तु पश्चिमी पाकिस्तान उनकी मांगों को कुचल रहा था। सैनिक दमन ज़ोरों पर था। पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों ने पूर्वी पाकिस्तान के हज़ारों आन्दोलनकारियों को मौत के घाट उतार दिया। लाखों लोग पश्चिमी बंगाल में शरण लेने को विवश हो गए। इन शरणार्थियों को भारत में शरण देने के लिए देश पर बहुत बड़ी आर्थिक जिम्मेदारी आ पड़ी थी। उस समय भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी थीं। भारत के सामने बहुत बड़ा संकट उठ खड़ा हुआ था। भारत ने पूर्वी पाकिस्तान की आज़ादी के पक्ष में निर्णय लिया और पूर्वी पाकिस्तान में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए बनी 'मुक्ति वाहिनी' का साथ देना शुरू कर दिया। इस बात से चिढ़ कर पाकिस्तान ने हिन्दुस्तान के पश्चिमी हिस्सों पर हवाई आक्रमण आरंभ कर दिए। भारतीय सेना भी पूरी तरह तैयार थी। जल, थल और वायु - तीनों सेनाओं ने पाकिस्तानी सैनिकों को पूर्वी पाकिस्तान से बाहर खदेड़ दिया। पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना और 'मुक्ति वाहिनी' के सामने हथियार डाल दिए। सन् 1971 में पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान की गुलामी से स्वतंत्र हो गया और नया देश 'बांग्ला देश' के नाम से जाना जाने लगा।
      इस युद्ध में भारत की विजय तो हुई थी लेकिन जान-माल की बहुत भारी क्षति भी हुई। देश की आर्थिक स्थिति पर इस युद्ध का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा था। दूसरा श्रीमती इन्दिरा गांधी की ताकत बहुत बढ़ गई थी।
      जस्सी इन्दिरा गांधी की बड़ी भक्त थी। वह अक्सर ही इन्दिरा गांधी को पत्र लिखती रहती। सन् 1971 की जीत के पश्चात् वह उसकी बहुत बड़ी प्रशंसक बन गई थी। वह अपनी सहेलियों तथा घर के सदस्यों के सामने उसके गुण गाती रहती।
      घर में टी.वी. पर वह नियम से रात के समाचार अवश्य सुना करती।
      ''तुम्हें राजनीति में बहुत रुचि है। अगले चुनाव में तुम भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाओ।'' एक दिन रघुबीर ने मज़ाक में कहा।
      ''आप मेरा मज़ाक उड़ा रहे हें या सचमुच ही आप चाहते हैं कि मैं ...।''
      ''मेरी कहाँ हिम्मत कि मैं तुम्हारा मज़ाक उड़ाऊँ...।'' रघुबीर हँसते हुए बोला।
      एक रात अचानक लोगों पर जैसे बम्ब गिरा हो। पूरे देश में आपात काल की घोषणा कर दी गई। सारा देश सन्नाटे में आ गया।
      यद्यपि 1975 में देश में बहुत-सी राजनीतिक और आर्थिक समस्याएँ थीं। सन् 1971 की जंग की जीत के बाद इन्दिरा गांधी के हाथ में जो शक्ति आ गई थी, वह उसके सिर पर चढ़ गई थी। आपातकाल की घोषणा करके तो वह तानाशाह ही बन बैठी। नागरिकों के अधिकार स्थगित कर दिए गए। कई विरोधी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया। इस के अतिरिक्त उसने अपने छोटे बेटे संजय गांधी के हाथ में बहुत-सी शक्ति दे दी। वह सरकार के सभी कार्यों में हस्तक्षेप करने लगा। वह प्रत्येक अधिकारी को अपना आदेश सुनाने लगा।
      रघुबीर, उसके चाचा, उसके भापाजी घर में इन्दिरा गांधी और संजय गांधी के विरुद्ध बोलते तो जस्सी इन्दिरा गांधी के पक्ष में खड़ी हो जाती। वह आपातकाल के पक्ष में तर्क देती।
      ''भारत में लोकतंत्र नहीं चल सकता। कठोर कानून बनेंगे, तभी लोग सुधरेंगे।'' जस्सी ने इन्दिरा गांधी को प्रशंसा भरे पत्र लिखे।
      परिवार के लोग उसके साथ बहस करके अपना दिमाग खराब न करते। लेकिन रघुबीर के साथ उसकी तनातनी इसी बात को लेकर हो जाती। संजय गांधी ने परिवार नियोजन के लिए जो तरीके अपनाये, उन तरीकों से लोग उसके विरुद्ध हो गए।
      इन्दिरा गांधी सत्ता के नशे में मगरूर हो गई थी। सन् 1977 में उसने आम चुनावों की घोषणा कर दी। उसे यकीन था कि वह भारी बहुमत से जीत जाएगी। परन्तु लोग उसकी तानाशाही से इतने दु:खी हो चुके थे कि उसकी इन चुनावों में जबरदस्त हार हुई। अब पाँच विरोधी दलों ने मिलकर जनता दल के मोरारजी देसाई को देश का प्रधान मंत्री बना दिया।
      जस्सी का उत्साह कुछ कम हो गया था लेकिन उसका विश्वास अभी भी इन्दिरा गांधी पर वैसा ही रहा।
(जारी…)