Tuesday 31 July 2012

उपन्यास



मित्रो, आप मेरे उपन्यास परतें की अब तक नौ किस्तें आपके समक्ष आ चुकी  हैं। और उन पर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ भी मुझे प्राप्त हो चुकी हैं। यह एक लेखक के लिए बेहद सुकून की बात होती है कि पाठक उसकी रचना को पसन्द कर रहे हैं। लीजिए, अब आपके समक्ष प्रस्तुत है, उपन्यास की दसवीं किस्त… फिर उसी उम्मीद और विश्वास के साथ कि आपको यह किस्त भी पसन्द आएगी और आप अपने विचार मुझसे नि:संकोच साझा करेंगे।

-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर
  
10

जब से जस्सी इस घर में आई थी, उसकी सांझ रघुबीर की छोटी चाची रुपिन्दर से अधिक थी। एक दिन चाची के कमरे में जाकर उसने सारी बात उसके साझा की और परेशानी बताई।
      ''तू चिंता न कर। मैं तेरे चाचा जी से बात करूँगी। वही पता लगाएँगे कि बात क्या है।''
      चाची के सामने अपना दुखड़ा रखकर उसका मन हल्का हो गया था।
      संदीप आजकल घर से बाहर कम ही निकलता था। वह अपने कमरे में इम्तिहानों की तैयारी में लगा हुआ था। उसके कमरे में से लगातार संगीत की आवाज़ आती रहती। कभी अंग्रेजी गाने, कभी हिंदी के गाने। उसका यही तरीका था। शाम को किसी वक्त क़ुछ समय के लिए बाहर निकल जाता, पर शीघ्र ही घर लौट आता।
      ''तुझे तो आजकल माँ से बात करने की फुर्सत ही नहीं।'' जस्सी प्यार से गिला करती।
      ''मम्मी, एक बार इम्तिहान खत्म हो जाएँ, बस फिर सारा वक्त आपके साथ।'' संदीप माँ के साथ लाड़ से बोला।
      ''सच ?'' जस्सी ने उसके सिर में प्यार से हाथ फेरते हुए उसे अपनी छाती से लगा लिया, माँ को ठंड पड़ गई।
      इम्तिहान ख़त्म हुए तो रघुबीर ने संदीप को अपने साथ काम पर ले जाना शुरू कर दिया।
      ''उसे कुछ दिन तो घर पर मेरे साथ रहने दो।'' जस्सी ने रघुबीर से कहा।
      ''उसे काम सिखाना है। उसके कंधों पर अभी कुछ जिम्मेदारी डालेंगे तभी बात बनेगी। मुझे भी बड़ा आसरा हो जाता है जब वह मेरे साथ होता है।''
      ''मैं तो सारा दिन घर में अकेली हो जाती हूँ।''
      ''तू अकेली ! हद हो गई ! भरा पूरा घर है... मम्मी, चाचियाँ, उनके बच्चे ! फिर तेरी किट्टी पार्टियाँ ! तेरे पूल लंच और गेट-टू-गैदर, तेरा ब्यूटी पार्लर, तेरी शॉपिंग ! तू कब अकेली होती है, घर में ?'' रघुबीर की आवाज़ में मज़ाक का पुट था।
      ''यह बात तुम नहीं समझ सकते। अपने अकेलेपन को मारने के लिए ही मैं यह सब चोंचले करती हूँ।''
      ''कोई क्रिएटिव काम कर ! कोई समाज सेवा ! किसी के काम आ। बड़ी दुनिया दुखी पड़ी है। कितने ज़रूरतमंद हैं।'' रघुबीर बोले जा रहा था।
      ''अच्छा-अच्छा। अपना लेक्चर बन्द करो। बहुत हो गया।'' वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई।
      एक दिन जस्सी ने संदीप को अपने पास बिठा लिया और बोली, ''बेटा तू तो कहता था कि इम्तिहानों के बाद तू मेरे साथ कुछ वक्त बिताएगा। फिर अब क्या हुआ ? तू तो मेरे साथ एक दिन भी आराम से नहीं बैठा।''
      ''मम्मी, आजकल बात क्या है ? पहले तो आपने कभी मुझे अपने पास बैठने के लिए, अपने साथ बातें करने के लिए नहीं कहा। आजकल मैं पापा...''
      उसकी बात को जस्सी बीच में ही काटती हुई बोली, ''विवाह के बाद तो तुझे मेरे लिए ज़रा भी वक्त नहीं मिलेगा। सोचती हूँ, अब ही जो वक्त तेरे पास बिता सकूँ, ठीक है। तेरे पापा भी तो बहुत ही बिजी रहते हैं।''
      ''मम्मी, पापा को बहुत भाग दौड़ करनी पड़ती है। मैं आजकल उनके संग जाता हूँ तो सब देखता हूँ। उनके लिए इतनी टेंशन ठीक नहीं।'' संदीप मम्मी के पास बैठते हुए बोला।
      ''फिर क्या करना चाहिए ?''
      ''बस, घर में उनको टेंशन नहीं देनी चाहिए।'' माँ का हाथ अपने हाथ में पकड़कर माँ की ओर देखते हुए उसने कहा।
      ''घर में कौन देता है उन्हें टेंशन ?'' माथे पर हल्की-सी त्यौरी डालकर बेटे की ओर सीधे देखते हुए उसने पूछा।
      ''मैं तो यूँ ही साधारण बात कर रहा था।'' यह कह कर उसने रेडियो की आवाज़ ऊँची कर दी।
      ''तू तो ऐसे गाने पहले कभी नहीं सुनता था।'' जस्सी ऊँची आवाज़ में चिल्लाकर बोली।
      ''कभी कभी 'फार ए चेंज' अच्छे लगते हैं।'' और वह उस संगीत में मस्त हो गया। वह यह बात समझ गई थी कि बाप-बेटा जब बात का सिलसिला आगे नहीं बढ़ाना चाहते तो रेडियो या टी.वी. की आवाज़ ऊँची कर देते हैं।
      जस्सी एक दिन किसी फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रही थी तो उसने देखा कि बाप-बेटा घर जल्दी लौट आए हैं।
      ''मम्मी, एक खुशख़बरी है।'' आते ही संदीप बोला।
      जस्सी ने फिल्मी पत्रिका बन्द करते हुए प्रश्नभरी दृष्टि से दोनों की ओर देखा।
      ''बूझो तो मान जाएँ।'' संदीप के चेहरे पर शरारत टपक रही थी।
      जस्सी ने '' में सिर हिला दिया।
      ''ओ.के. मम्मी...'' माँ को कंधों से पकड़कर संदीप बोला, ''एक हफ्ते के लिए हम तीनों बाहर जा रहे हैं।''
      ''तुम लोग तो काम पर जाओगे। मैं वहाँ क्या करूँगी ? मुझे नहीं जाना।''
      ''मम्मी, हम छुट्टी पर जा रहे हैं। थोड़ा-बहुत काम है पापा को। अच्छा, बूझो, कहाँ जा रहे हैं हम ?''
      ''तू ही बता दे। बुझारतें क्यों डालता है।''
      ''वहाँ आपकी मौसी भी रहती है।'' संदीप जानबूझ कर बात को लटका रहा था।
      ''अच्छा ! तो बंगलौर जा रहे हो ? मैंने तो बंगलौर देखा हुआ है। विवाह से पहले कई बार मौसी को मिलने जाया करते थे। विवाह के बाद भी गई थी, जब तू छोटा था। तुझे कुछ याद है ?''
      ''बहुत थोड़ा-थोड़ा याद है।'' संदीप बड़े लाड़ से बोल रहा था।
      ''पापा बता रहे थे कि वहाँ से हम कई जगहें देखने जा सकते हैं - मैसूर, मैंगलोर, केरल...। जहाँ कहोगे, चलेंगे। मैं तुम्हारे साथ होऊँगा।'' वह चहक रहा था।
      ''आज माँ के लिए बड़ा प्यार उमड़ रहा है। क्या बात है ?'' जस्सी ने उसकी गाल पर चिकौटी काटते हुए पूछा।
      ''पापा बता रहे थे कि आप आजकल बहुत उदास और अकेले महसूस कर रहे हो।'' संदीप गंभीर होकर बोला।
      ''अच्छा ! तेरे पापा मेरे लिए भी कभी सोचते हैं ? शुक्र है।''
      संदीप को लगा कि मम्मी की आँखें नम हो गई हैं।
      ''मम्मी, आज आपकी पसंद के गाने लगा दूँ ?''
      तभी संदीप के एक दोस्त का फोन आ गया और वह उधर व्यस्त हो गया।
      जस्सी सोचने लग पड़ी। संदीप अभी छोटा था तो वे तीनों बहुत बार घूमने निकले थे, पर जब से संदीप बड़ी क्लासों में चला गया था और रघुबीर की व्यस्तताएँ बढ़ गई थीं, कहीं भी एक साथ घूमने जाना नहीं हो पाया था। वैसे तो जस्सी के लिए बंगलौर में कुछ नया नहीं था, पर उसको खुशी थी कि तीनों इकट्ठे होंगे। दूसरा वह एक मुद्दत के बाद अपनी मौसी को मिल सकेगी। जस्सी ने वहाँ जाने के लिए खुशी-खुशी 'हाँ' कर दी।
(जारी…)

Monday 16 July 2012

उपन्यास



मित्रो, धारावाहिक उपन्यास परतें की आप अब तक आठ किस्तें पढ़ चुके हैं। अब प्रस्तुत है नौवी किस्त… फिर उसी उम्मीद और विश्वास के साथ कि आपको यह किस्त भी पसन्द आएगी और आप अपने विचार मुझसे नि:संकोच साझा करेंगे।
 -राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर
9

रघुबीर के बड़े चाचा महिंदर सिंह के दो बच्चे थे - बेटा जसपाल और बेटी प्रीती। जसपाल होटल मैनेजमेंट का कोर्स पूरा कर चुका था और अपने परिवार के होटल उद्योग में ही काम कर रहा था। उसके विवाह की तैयारियाँ हो रही थीं। उसने अपने साथ काम करती एक लड़की चुन ली थी। अब घर में किसी ने ज्यादा 'किन्तु-परन्तु' नहीं किया था।
      विवाह की तैयारियों में जस्सी बहुत उत्साह ले रही थी। गहने, वस्त्र और अन्य कामों की तैयारियों में जस्सी की बहुत सलाह ली जा रही थी।
      मेंहदी की रात घर में खूब रौनक थी। संदीप के मित्र भी आए हुए थे। संदीप का कालेज में अन्तिम वर्ष था। परिवार में उम्र के हिसाब से इस शादी के बाद संदीप की बारी थी।
      बड़ी चाची स्वर्णा मजाक करने लग पड़ी - ''संदीप, अब आगे तेरी बारी है। इस साल अपना कोर्स खत्म कर ले। बस, फिर तेरी शादी कर देंगे।''
      ''अभी मुझे पढ़ तो लेने दो। अपने पैरों पर खड़ा हो लेने दो। अभी से शादी की रट न लगाओ।'' संदीप बोला।
      ''वाह, पैरों पर तूने क्या अलग खड़ा होना है। घर का कारोबार है। तूने भी वही करना है। अपना कारोबार अब इतना फैल गया है कि जितने हाथ हों, अच्छा है।'' महिंदर सिंह बोले।
      ''संदीप, तू बता, तुझे लड़की कैसी चाहिए ? अगर तू चाहे तो इस शादी के दौरान हम तुझे दो-चार लड़कियाँ दिखा सकते हैं। वे विवाह पर आ रही हैं। जिसकी ओर तू हाथ करेगा, वही तेरी।'' स्वर्णा ने हँसते हुए कहा।
      संदीप आगे कुछ नहीं बोला। बस, मंद-मंद मुस्कराता रहा।
      ''कहीं कोई लड़की पसन्द तो नहीं कर ली ?'' प्रीती चहकती हुई बोली।
      संदीप एकदम शरमा गया।
      ''चोरी पकड़ी गई। देखो, संदीप कैसे ब्लश कर रहा है। कौन है, भई ? कहाँ है ?'' सबके कान खड़े हो गए। सब की नज़रें संदीप के चेहरे पर टिक गईं। संदीप मंद-मंद मुस्कराता रहा। बोला कुछ नहीं।
      ''क्यों पीछे पड़ गए हो लड़के के ? उसे अभी पढ़ तो लेने दो।'' प्रेम बोली।
      ''अब कुछ नाच-गा लो।'' लुधियाने से आई सत्ती बुआ ने बात का रुख मोड़ दिया।
      लुधियाना से बुआ और उसका परिवार भी आया हुआ था। पंजाब में आतंकवादियों की ज्यादतियाँ, पुलिस का अत्याचार, लोगों का डर डरकर जीना, बहुत सारे लोगों का पंजाब छोड़कर दिल्ली में या अन्य किसी इलाके में जा बसना...। ये सब ख़बरें रोम खड़े कर देने वाली थीं। अख़बार और टी.वी. पर बंब फटने के समाचार आ रहे थे। कुछ भी सुरक्षित नहीं था। जिनके रिश्तेदार उस तरफ थे, उनकी जान कांपती रहती।
      यह शादी निबट गई। सब फिर से अपने अपने काम में लग गए। सब रिश्तेदार अपने अपने घरों को चले गए।
      रघुबीर और उसके पिता मनजीत सिंह घर पहुँचते ही पहले टी.वी. लगाकर समाचार सुनते। अतिवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था।
      तभी, एक दिन टी.वी. पर 'आप्रेशन ब्लू स्टार' की ख़बर सुनकर सब सुन्न रह गए। अमृतसर दरबार साहिब पर फौजी हमला हो गया था। जून का महीना। गुरु अर्जुन देव जी का शहीदी गुरपर्व था। अमृतसर के आसपास के गाँवों के हज़ारों श्रद्धालू दरबार साहिब के दर्शनों के लिए हर साल की तरह आए हुए थे। शहर में कर्फ्यू था। हज़ारों श्रद्धालू फौजी कार्रवाई का शिकार हो गए। बेकसूर भोले-भाले यात्री गोलियों का शिकार हो गए। यह ख़बर सुनकर, पढ़कर हिंदुस्तान अथवा विदेशों में बसते सिक्खों के दिल छलनी-छलनी हो गए।
      मनजीत सिंह और प्रेम दिन रात ख़बरें देखते और मन ही मन कलपते, खीझते रहते। लुधियाना में सत्ती को लगभग रोज़ ही फोन करके उनका हालचाल पूछते रहते। उसे बार-बार ताकीद करते कि वे बम्बई आ जाएँ। सत्ती अकेली तो नहीं थी। वह भरे-पूरे परिवार में रहती थी। वह बार बार यही कहती-
      ''मेरी फिकर न करो, जो होगा, सबके साथ है। होनी को कोई नहीं टाल सकता।''
      जस्सी जो हर वक्त इंदिरा गांधी के हक में बोलती थी, 'ब्लू स्टार' वाली घटना ने उसका भी दिल तोड़ दिया। उसने गुस्से में इंदिरा गांधी को एक ख़त लिखा। अब जवाब कहाँ से आना था। उसने कसम खाई कि अब वह कभी भी उसको ख़त नहीं लिखेगी।
      जस्सी पंजाब में घटित इस दुखांत का कारण समझने की कोशिश करती, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आता था।
      एक दिन जस्सी ने संदीप से पूछ ही लिया था, ''रे, तू उस वक्त बोला नहीं था ? कहीं कोई लड़की पसन्द तो नहीं कर ली तूने ?''
      ''मम्म, तुम भी... हद हो गई।''
      जस्सी, संदीप के चेहरे के हाव-भाव देख रही थी। वह सचमुच शरमा रहा था।
      ''विवाह के नाम पर तो तू लड़कियों की तरह शर्माता है। विवाह पर उस दिन जिन लड़कियों का जिक्र चल रहा था, उनमें से एक लड़की मुझे बहुत पसन्द है। तू उसको एक बार देख तो ले।'' जस्सी बोली।
      ''अभी मुझे पढ़ने दो मम्मी।''
      ''पर एक बार लड़की पर नज़र डाल ले या उसको एक बार मिल ले। यदि तुझे पसन्द हो तो रोका कर देंगे। विवाह की जल्दी नहीं। क्यूँ ? क्या ख़याल है ?''
      ''नहीं, मैंने लड़की नहीं देखनी।''
      ''पर क्यों ?''
      ''मैंने एक ढूँढ़ ली है।''
      जस्सी चौंक उठी। उठकर खड़ी हो गई। दो सेकेंड के लिए मानो उसका साँस रुक गया हो।
      ''अच्छा ! कौन है वो ?'' जस्सी ने घबरा कर पूछा।
      ''समय आने पर बताऊँगा।'' और वह घर से बाहर निकल गया।
      'ये बाप-बेटा गीले साबुन की तरह मेरे हाथ में से फिसल जाते हैं। आराम से बैठकर तो बात ही नहीं करते। इसके बाप ने भी तो ज्योति पसन्द की थी। घर के लोग माने नहीं थे। और अब पता नहीं घर के सब लोग क्या रुख अपनाते हैं। लड़की पता नहीं कौन है ! मराठी है या गुजरातिन। हिंदू है या क्रिश्चियन ! कुछ देर वह मन ही मन कलपती रही। फिर टी.वी. लगाकर बैठ गई। उसे कोई भी प्रोग्राम पसन्द नहीं आया।
      रात में रघुबीर घर आया तो उसने सारी बात उसे बताई। वह चुपचाप सब सुनता रहा और फिर बहुत ही गंभीर हो गया। कुछ देर सोच में डूबा रहा।
      ''है कहाँ संदीप, इस वक्त ?''
      ''अभी घर नहीं लौटा।''
      ''घर आए तो मुझे बताना।'' रघुबीर के चेहरे पर तनाव था। जस्सी ने बात को और आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा।
      रात भर रघुबीर बिस्तर पर करवटें बदलता रहा।
      ''यदि रघुबीर का यह हाल है तो घर के बाकी लोग कैसे रियेक्ट करेंगे। यदि मुझे लड़की जंच गई तो मैं अपने बेटे के हक में डट जाऊँगी। घर के बाकी लोग जो चाहे करें। मेरे बेटे की खुशी पहले नंबर पर है। फिर अभी पीछे ही जसपाल की शादी भी तो उसकी पसन्द की लड़की से हुई है।'' जस्सी यही सब सोचते हुए सो गई।
      सवेरे जब जस्सी की आँख खुली तो रघुबीर वहाँ नहीं था। तभी उसको रघुबीर की आवाज़ संदीप के कमरे में से सुनाई दी। वे दोनों खड़े होकर धीमे स्वर में बातें कर रहे थे। वह वहाँ पहुँची तो वे दोनों चुप लगा गए। जस्सी को लगा कि दोनों में बहुत तनातनी हो चुकी है।
      ''चलो आओ, चाय तैयार है। आ जाओ बाहर।'' कहकर जस्सी वहाँ से चली आई। कुछ देर जस्सी उन दोनों की प्रतीक्षा करती रही, जब वे नहीं आए तो नौकर को बुलाने के लिए भेजा। उन दोनों ने चाय वहीं मंगवा ली। कुछ देर बाद रघुबीर तैयार होकर चुपचाप निकल गया।
      संदीप अपने कमरे में अंग्रेजी गानों की कोई टेप लगाकर सुन रहा था। उन गानों के शब्द तो कुछ पल्ले नहीं पड़ रहे थे, पर संगीत बड़ा उदासी भरा था। 'संदीप तो बड़ा ज़ोश-ख़रोश वाला संगीत सुनता है, बड़ा शोर-शराबे वाला। फिर आज वह उदासी भरा संगीत क्यों सुन रहा है। लगता है, बाप-बेटे का किसी बात पर झगड़ा हुआ है।' जस्सी बेटे के कमरे में गई, उसके साथ बात करने के ख़याल से, पर वह पढ़ाई का बहाना बनाकर बात टाल गया। सारा दिन बेचैनी में ही गुज़रा। रात में रघुबीर घर लौटा तो उसने उससे भी बात जाननी चाही, परन्तु उसने भी आगे से उसे चुप करवा दिया।
      'ये बाप-बेटा कभी भी मेरे साथ दिल की बात साझी नहीं करते।'
      उस रात वह लेटी-लेटी कितनी देर मन ही मन कलपती रही।
      उस दिन के बाद बाप-बेटा रोज़ ही एकसाथ बैठने लग पड़े। दोनों के बीच कुछ वार्तालाप होता रहता। पर जस्सी के आने पर या तो वे चुप हो जाते या झट ही बात का विषय बदल लेते या फिर टी.वी. की आवाज़ एकदम ऊँची कर लेते।
(जारी…)