मित्रो, आप मेरे उपन्यास ‘परतें’ की अब तक नौ किस्तें आपके समक्ष आ चुकी हैं। और उन पर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ भी
मुझे प्राप्त हो चुकी हैं। यह एक लेखक के लिए बेहद सुकून की बात होती है कि पाठक
उसकी रचना को पसन्द कर रहे हैं। लीजिए, अब आपके समक्ष प्रस्तुत है, उपन्यास की दसवीं
किस्त… फिर उसी उम्मीद और विश्वास के साथ कि आपको यह किस्त भी पसन्द आएगी और आप
अपने विचार मुझसे नि:संकोच साझा करेंगे।
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिन्दर कौर
10
जब से जस्सी इस
घर में आई थी, उसकी सांझ रघुबीर की छोटी चाची रुपिन्दर
से अधिक थी। एक दिन चाची के कमरे में जाकर उसने सारी बात उसके साझा की और परेशानी बताई।
''तू चिंता न कर। मैं तेरे चाचा
जी से बात करूँगी। वही पता लगाएँगे कि बात क्या है।''
चाची के सामने अपना दुखड़ा रखकर
उसका मन हल्का हो गया था।
संदीप आजकल घर से बाहर कम ही निकलता
था। वह अपने कमरे में इम्तिहानों की तैयारी में लगा हुआ था। उसके कमरे में से लगातार
संगीत की आवाज़ आती रहती। कभी अंग्रेजी गाने, कभी हिंदी के गाने।
उसका यही तरीका था। शाम को किसी वक्त क़ुछ समय के लिए बाहर निकल जाता, पर शीघ्र ही घर लौट आता।
''तुझे तो आजकल माँ से बात करने
की फुर्सत ही नहीं।'' जस्सी प्यार से गिला करती।
''मम्मी, एक बार इम्तिहान खत्म हो जाएँ, बस फिर सारा वक्त आपके
साथ।'' संदीप माँ के साथ लाड़ से बोला।
''सच ?'' जस्सी ने उसके सिर में प्यार से हाथ फेरते हुए उसे अपनी छाती से लगा लिया,
माँ को ठंड पड़ गई।
इम्तिहान ख़त्म हुए तो रघुबीर ने
संदीप को अपने साथ काम पर ले जाना शुरू कर दिया।
''उसे कुछ दिन तो घर पर मेरे साथ
रहने दो।'' जस्सी ने रघुबीर से कहा।
''उसे काम सिखाना है। उसके कंधों
पर अभी कुछ जिम्मेदारी डालेंगे तभी बात बनेगी। मुझे भी बड़ा आसरा हो जाता है जब वह मेरे
साथ होता है।''
''मैं तो सारा दिन घर में अकेली
हो जाती हूँ।''
''तू अकेली ! हद हो गई ! भरा पूरा
घर है... मम्मी, चाचियाँ, उनके बच्चे !
फिर तेरी किट्टी पार्टियाँ ! तेरे पूल लंच और गेट-टू-गैदर, तेरा
ब्यूटी पार्लर, तेरी शॉपिंग ! तू कब अकेली होती है, घर में ?'' रघुबीर की आवाज़ में मज़ाक का पुट था।
''यह बात तुम नहीं समझ सकते। अपने
अकेलेपन को मारने के लिए ही मैं यह सब चोंचले करती हूँ।''
''कोई क्रिएटिव काम कर ! कोई समाज
सेवा ! किसी के काम आ। बड़ी दुनिया दुखी पड़ी है। कितने ज़रूरतमंद हैं।'' रघुबीर बोले जा रहा था।
''अच्छा-अच्छा। अपना लेक्चर बन्द
करो। बहुत हो गया।'' वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई।
एक दिन जस्सी ने संदीप को अपने
पास बिठा लिया और बोली, ''बेटा तू तो कहता था कि इम्तिहानों के
बाद तू मेरे साथ कुछ वक्त बिताएगा। फिर अब क्या हुआ ? तू तो मेरे
साथ एक दिन भी आराम से नहीं बैठा।''
''मम्मी, आजकल बात क्या है ? पहले तो आपने कभी मुझे अपने पास बैठने
के लिए, अपने साथ बातें करने के लिए नहीं कहा। आजकल मैं पापा...''
उसकी बात को जस्सी बीच में ही
काटती हुई बोली, ''विवाह के बाद तो तुझे मेरे लिए ज़रा भी वक्त
नहीं मिलेगा। सोचती हूँ, अब ही जो वक्त तेरे पास बिता सकूँ,
ठीक है। तेरे पापा भी तो बहुत ही बिजी रहते हैं।''
''मम्मी, पापा को बहुत भाग दौड़ करनी पड़ती है। मैं आजकल उनके संग जाता हूँ तो सब देखता
हूँ। उनके लिए इतनी टेंशन ठीक नहीं।'' संदीप मम्मी के पास बैठते
हुए बोला।
''फिर क्या करना चाहिए ?''
''बस, घर
में उनको टेंशन नहीं देनी चाहिए।'' माँ का हाथ अपने हाथ में पकड़कर
माँ की ओर देखते हुए उसने कहा।
''घर में कौन देता है उन्हें टेंशन
?'' माथे पर हल्की-सी त्यौरी डालकर बेटे की ओर सीधे देखते हुए
उसने पूछा।
''मैं तो यूँ ही साधारण बात कर
रहा था।'' यह कह कर उसने रेडियो की आवाज़ ऊँची कर दी।
''तू तो ऐसे गाने पहले कभी नहीं
सुनता था।'' जस्सी ऊँची आवाज़ में चिल्लाकर बोली।
''कभी कभी 'फार ए चेंज' अच्छे लगते हैं।'' और वह उस संगीत में मस्त हो गया। वह यह बात समझ गई थी कि बाप-बेटा जब बात का
सिलसिला आगे नहीं बढ़ाना चाहते तो रेडियो या टी.वी. की आवाज़ ऊँची कर देते हैं।
जस्सी एक दिन किसी फिल्मी पत्रिका
के पन्ने पलट रही थी तो उसने देखा कि बाप-बेटा घर जल्दी लौट आए हैं।
''मम्मी, एक खुशख़बरी है।'' आते ही संदीप बोला।
जस्सी ने फिल्मी पत्रिका बन्द
करते हुए प्रश्नभरी दृष्टि से दोनों की ओर देखा।
''बूझो तो मान जाएँ।''
संदीप के चेहरे पर शरारत टपक रही थी।
जस्सी ने 'न' में सिर हिला दिया।
''ओ.के. मम्मी...'' माँ को कंधों से पकड़कर संदीप बोला, ''एक हफ्ते के लिए हम तीनों बाहर जा रहे हैं।''
''तुम लोग तो काम पर जाओगे। मैं वहाँ क्या करूँगी ? मुझे नहीं जाना।''
''मम्मी, हम छुट्टी पर जा रहे हैं। थोड़ा-बहुत काम है पापा को। अच्छा, बूझो, कहाँ जा रहे हैं हम ?''
''तू ही बता दे। बुझारतें क्यों डालता है।''
''वहाँ आपकी मौसी भी रहती है।'' संदीप जानबूझ कर बात को लटका रहा था।
''अच्छा ! तो बंगलौर जा रहे हो ? मैंने तो बंगलौर देखा हुआ है। विवाह से पहले कई बार मौसी को मिलने जाया करते थे।
विवाह के बाद भी गई थी, जब तू छोटा था। तुझे कुछ याद है ?''
''बहुत थोड़ा-थोड़ा याद है।'' संदीप बड़े लाड़ से बोल रहा था।
''पापा बता रहे थे कि वहाँ से हम कई जगहें देखने जा सकते हैं - मैसूर, मैंगलोर, केरल...। जहाँ कहोगे, चलेंगे। मैं तुम्हारे साथ
होऊँगा।'' वह चहक रहा था।
''आज माँ के लिए बड़ा प्यार उमड़ रहा है। क्या बात है ?'' जस्सी ने उसकी गाल पर चिकौटी
काटते हुए पूछा।
''पापा बता रहे थे कि आप आजकल बहुत उदास और अकेले महसूस कर रहे हो।'' संदीप गंभीर होकर बोला।
''अच्छा ! तेरे पापा मेरे लिए भी कभी सोचते हैं ? शुक्र है।''
संदीप को लगा कि मम्मी की आँखें नम हो गई हैं।
''मम्मी, आज आपकी पसंद के गाने लगा दूँ ?''
तभी संदीप के एक दोस्त का फोन आ गया और वह उधर व्यस्त हो गया।
जस्सी सोचने लग पड़ी। संदीप अभी छोटा था तो वे तीनों बहुत बार घूमने निकले थे, पर जब से संदीप बड़ी क्लासों
में चला गया था और रघुबीर की व्यस्तताएँ बढ़ गई थीं, कहीं भी एक साथ घूमने जाना नहीं हो पाया था। वैसे तो
जस्सी के लिए बंगलौर में कुछ नया नहीं था, पर उसको खुशी थी कि तीनों इकट्ठे होंगे। दूसरा वह एक
मुद्दत के बाद अपनी मौसी को मिल सकेगी। जस्सी ने वहाँ जाने के लिए खुशी-खुशी 'हाँ' कर दी।
(जारी…)