Friday 31 August 2012

उपन्यास


मित्रो, परतें उपन्यास की बारहवीं किस्त आपके समक्ष है। धीरे-धीरे यह उपन्यास अब अपनी समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। आगे क्या होगा? यह जानने की उत्सुकता हर पाठक में होती है। यह उत्सुकता ही उपन्यास में गति पैदा करती है और पाठक को बांधे रखने में सफल होती है… खैर, आप मेरे इस उपन्यास में इतनी गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं, यह जानकर मुझे सचमुच बेहद खुशी हो रही है। पहले की भांति आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी मुझे।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

12

घूम घामकर संदीप रात में जब होटल लौटा तो माँ और पिता के चेहरे देखकर सब समझ गया।
      'आज पापा ने मम्मी के साथ बात कर ही दी है। हवा गरम है। अगर आज मैं कुछ कहूँगा तो गरम हवा मुझे भी झुलसा देगी।' यह सोचकर वह अपने कमरे में चला गया। अभी वह शंशोपंज में कपड़े बदल ही रहा था कि मम्मी कमरे में आ गई। मम्मी की आँखें सूजी हुई थीं और लाल थीं।
      ''मम्मी, तबियत तो ठीक है न ?'' वह चिंतित होकर बोला।
      ''तू मेरी तबियत को मार गोली। जो मैं पूछूँ, सब सच बताना।''
      ''आप बैठो तो सही। अब बोलो।'' उसने मम्मी को कंधों से पकड़ अपने साथ बिठाते हुए कहा।
      ''तू इस रश्मि से कहाँ मिला था ?''
      ''कालेज में।''
      ''कब ?''
      ''जब मैं वहाँ पढ़ रहा था।''
      ''किसने मिलवाया ?''
      ''एक ड्रामे में उस लड़की ने बहुत अच्छा रोल किया था। मुझे बहुत पसन्द आया तो मैं उसकी प्रशंसा करने लग पड़ा। फिर आहिस्ता आहिस्ता...।''
      ''तू जानता था कि वह किसकी बेटी है ?''
      ''नहीं, वो तो अब पता चला है, सारी बात का।''
      ''उसको पता था कि तू किसका बेटा है ?''
      ''नहीं, उसको कैसे पता चलता ? मैं उनके घर तो गया था दो बार, अन्य लड़के-लड़कियों के संग। उसकी मम्मी ने कभी पूछा ही नहीं था कि मैं कौन हँ। यह तो सब बायचांस ही हो गया है। सच मम्मी! विश्वास करो। इसमें पापा का या उसकी मम्मी का कोई हाथ नहीं।''
      फिर एक लम्बी चुप छा गई। संदीप ने माँ का हाथ अपने हाथ में पकड़ा हुआ था। अचानक जस्सी ने अपना हाथ छुड़ा कर कहा-
      ''तेरी शादी उस लड़की से हर्गिज़ नहीं हो सकती।'' उसकी आवाज़ में बड़ी तल्ख़ी थी।
      ''पर क्यों मम्मी ?''
      ''क्योंकि वह ज्योति की बेटी है।''
      ''पर कोई कारण...''
      ''हाँ, मुख्य कारण तो यही है। तेरे पापा और ज्योति...।''
      ''मुझे सब पता है। पर वह तो कब का बीत चुका है। बहुत पुरानी बात है। उसका वर्तमान से कोई संबंध नहीं। वर्तमान से तो सिर्फ़ मेरा और रश्मि का संबंध है।''
      ''लेकिन मैं उस अतीत का फिर से ज़िन्दा होना कभी भी बर्दाश्त नहीं करूँगी।''
      ''आपको वहम है, मम्मी। आप इतना असुरक्षित क्यों महसूस करते हो। मम्मी, पापा की नज़रों में तुम्हारा जो स्थान है, उसे कोई दूसरा नहीं ले सकता।''
      ''मुझे तेरा भाषण नहीं सुनना। समझे! यह विवाह तो नहीं हो सकता। पक्की गांठ बांध ले आज से। लगा ले, ऐड़ी-चोटी का ज़ोर। लगता है, तू और तेरे पापा मेरे विरुद्ध मिल गए हो। मैं भी देखती हूँ...।''
      जस्सी ने रोना शुरू कर दिया। संदीप घबरा उठा। मम्मी का रोना वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह माँ को बांहों में लेकर बहुत देर तक शांत कराने की कोशिश करता रहा, पर जस्सी की सिसकियाँ और तेज़ होती चली गईं।
      ''मम्मी अब जाओ, सो जाओ। कल बात करेंगे।'' उसने माँ को बांहों से पकड़कर उठाया ओर दूसरे कमरे में छोड़ आया। वहाँ रघुबीर पहले ही विचारों में डूबा बैठा था।
      उस रात तीनों में से कोई भी नहीं सोया।
      दूसरे दिन जस्सी ने वापस जाने की जिद्द पकड़ ली। वह संदीप और रघुबीर के साथ कोई बात करने को तैयार नहीं थी।
      मुम्बई वापस लौटने के बाद जस्सी ने एक चुप धारण कर ली थी। वह दिन भर गुमसुम लेटी रहती। किसी काम में भी दिलचस्पी न लेती। सारा काम नौकरों के सहारे ही चल रहा था।
      रघुबीर की बीजी प्रेम ने एक दिन रघुबीर को समीप बिठाकर सारी बात उगलवा ली। पूरी बात सुनकर वह गंभीर हो गई। उसने इस बात का धुआँ भी रघुबीर के भापा जी के पास न पहुँचने दिया। एक दिन उसने संदीप को अपने कमरे में बुलाया और बहुत देर तक उसके साथ बातें करती रही।
      संदीप से ज्योति के घर का पता लेकर वह उसके घर पहुँच गईं। ज्योति को तो वह बहुत लम्बे अरसे के बाद देख रही थी। जब कोलीवाड़े में वे उनके पड़ोस में रहा करते थे, तब ज्योति अभी गुरु नानक स्कूल में ही पढ़ती थी। उसके बाद प्रेम का इधर से नाता ही टूट गया था। वह गई तो ज्योति को समझाने थी कि वह अपनी बेटी रश्मि को समझाए कि यह रिश्ता हो पाना कठिन है, पर ज्योति के घर में लगी पेटिंग्स, सलीके और सादगी से सजा हुआ अपार्टमेंट देखकर वह फूली न समाई। ज्योति का सीधा-सादा लिबास, कानों में छोटे-छोटे बुंदे, गले में छोटी-सी, पतली-सी चेन, एक हाथ में कड़ा, दूसरे में घड़ी। वह अपनी एक पेटिंग पूरी कर रही थी। रश्मि एक किताब पढ़ रही थी।
      'यह विवाह होकर रहेगा...।' यह वाक्य वह दिल ही दिल में दोहराती रही।
      घर वापस आई तो सीधे जस्सी के कमरे में चली गई।
      'कितना वजन बढ़ा लिया है। उस पर कितने गहनों का भार लाद रखा है। जिस्म थुल-थुल कर रहा है।' वह जस्सी को देखकर मन ही मन बुदबुदाती रही, लेकिन उससे बड़े प्यार से बोली-
      ''जस्सी बेटा, क्या हाल है ? क्या बात हो गई ? रघुबीर ने बताया कि तेरी तबीयत खराब हो गई ? डॉक्टर के पास गई ? ऐसे मायूस सी क्यों पड़ी है ?'' प्रेम जस्सी के सिर पर हाथ फेरते हुए सवाल पर सवाल कर रही थी।
      ''उठ बच्ची! तैयार हो। ज़रा बाहर ताज़ी हवा में चल। सब ठीक हो जाएगा। उठ मेरी बच्ची!''
      ये प्रेमभरे बोल सुनकर जस्सी फूट-फूटकर रोने लग पड़ी। उसका रोना थम ही नहीं रहा था। प्रेम उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दिलासा देती रही। ढाढ़स बँधाती रही। उसका माथा भी चूमा। उसके हाथ प्यार से दबाए। उठाकर उसका मुँह-हाथ धुलवाया और चाय बनाकर ले आई।
      उसने जस्सी को बाहर टैरेस पर ताजी हवा में अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया और सारी बात उससे उगलवा ली। सास को सारी बात बताकर वह हल्की हो गई। पूरी बात बता कर उसने एक लम्बा ठंडा नि:श्वास छोड़ा और चुप हो गई।
      प्रेम खामोश-सी सुनती रही।
      कुछ देर चुप रहने के पश्चात् जस्सी ने पुन: कहा, ''मुझे तो रघुबीर ने कभी प्यार किया ही नहीं। उसके दिल-दिमाग में तो ज्योति ही छाई रही...। बेटा भी बाप से मिल गया है। अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, मैं मर क्यों नहीं जाती...।''
      ''अरे! पागल कहीं की। मरें तेरे दुश्मन! फिर दिल छोड़ने वाली बातें लेकर बैठी है। तू अब रोना-धोना, ठंडी आहें भरना छोड़ दे। उठ, शेरनी बन।'' प्रेम बोली।
      जस्सी ने एकदम आँखें पोंछते हुए, सीधा बैठकर बड़े उत्साह में भरकर कहा, ''बीजी, फिर आप मेरा साथ दोगी न ? शुक्र है, आप मेरी हालत को समझते हो।'' उसके चेहरे पर अचानक रौनक आ गई थी। वह आशा भरी नज़रों से प्रेम बीजी के चेहरे की ओर देखते हुए बोली।
      प्रेम कुछ पल जस्सी को गौर से देखती रही, फिर बोली, ''जस्सी बेटी, प्यार लेने के लिए प्यार देना पड़ता है। कुर्बानी करनी पड़ती है। तू संदीप को प्यार करती है न ? तेरा एक ही बेटा है। उसका दिल तोड़कर न तू खुश रहेगी, न रघुबीर और न ही संदीप। अगर दूसरी परायी लड़की घर में आएगी, शायद वो भी खुश न रह सके। बच्चों की खुशी में ही माँ-बाप की खुशी होती है। तू अपने मन को समझा...।'' प्रेम निरंतर जस्सी के चेहरे के हाव-भाव देख रही थी। कुछ देर चुप रहने के बाद प्रेम बीजी फिर बोली-
      ''रघुबीर और ज्योति को लेकर तेरे दिल में जो वहम हैं, उन्हें निकाल दे। संदीप और रश्मि का इसमें भला क्या दोष है ? वो भला क्यों सज़ा भुगतें ? अब ज़माना बदल गया है। ज्योति अपने घर में सुखी है। उसका पति बड़ा प्यार करने वाला व्यक्ति है। तू ज्योति की तरफ से कोई चिंता न कर। यह गारंटी मेरी है।''
      जस्सी कुछ देर साँसें रोककर सिर झुकाकर चुपचाप सुनती रही और फिर बोली-
      ''भापा जी भी तो नहीं मानने वाले। रघुबीर के समय भी तो वे घर छोड़कर चले गए थे।''
      ''वो ज़माना और था। अब सबकुछ मेरे पर छोड़ दे। संदीप के खुशी के लिए मैं सब करुँगी। बस, तू खुशी खुशी सब स्वीकार कर ले। रोना-धोना छोड़ दे। अपने आप को ठीक कर। दुनिया देख किधर जा रही है।''
      जस्सी चुपचाप सब सुनती रही।
      रुपिन्दर चाची, प्रेम को बुलाने आ गई तो प्रेम जाते जाते फिर से जस्सी का सिर सहलाने लगी। उसका माथा चूमा और फिर वहाँ से चली गई।
      'क्या बीजी उनके साथ मिल गए हैं ? वो भी उनका साथ दे रहे हैं। क्या बीजी मेरे से खुश नहीं ? क्या उन्हें अभी भी ज्योति को लेकर अफ़सोस है ?''
      रात का अँधेरा पसर रहा था और जस्सी टैरेस पर गुमसुम बैठी, सोच-विचार में डूबी हुई थी।
      कुछ देर बाद बीजी का संदेशा मिला। वह बड़ी बेदिली से उठी तो देखा सारा परिवार बाबा जी के कमरे में था। वहाँ 'रहिरास' का पाठ चल रहा था। वह भी वहाँ जाकर बैठ गई, पर उसका मन पाठ में ज़रा भी नहीं लग रहा था।
(जारी…)

Wednesday 15 August 2012

उपन्यास




मित्रो, आज स्वतंत्रता-दिवस है, हिंदुस्तान की आज़ादी का दिन। परतंत्रता की बेड़ियों से छुटकारा दिलाने वाला दिन। हमारा देश अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद हो गया… पर क्या हम सही मायने में आज़ाद हुए… माना हमारे देश ने बहुत उन्नति की है, विकास भी हुआ है, परन्तु अभी भी गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, जातिवाद, ऊँच-नीच, सांप्रदायिकता, पारस्परिक वैमनस्य का कोढ़ हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा। आज आपसी भाईचारा और सौहार्द का वातावरण कम हुआ है, पैसे की भूख बढ़ी है, अपराध बढ़े हैं, स्त्री आज भी अपमानित है, बलात्कार हो रहे है, उन्हें जलाया-मारा जा रहा है, भ्रूण-हत्याएँ हो रही हैं… जब हमारे देश से यह सब खत्म होगा, तभी हम असल में आज़ाद होंगे… ये काम केवल सरकारों का ही नहीं है, हमारा और आपका भी इसमें योगदान ज़रूरी है। किसी भी देश का चरित्र सरकारों के बलबूते ही नहीं बनता, वहाँ की जनता भी उसे बनाती है।

मेरे उपन्यास परतें की अब तक दस किस्तें आपके समक्ष आ चुकी  हैं। उन पर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ भी मुझे प्राप्त हो चुकी हैं। यह एक लेखक के लिए बेहद सुकून की बात होती है कि पाठक उसकी रचना को पसन्द कर रहे हैं। लीजिए, अब आपके समक्ष प्रस्तुत है, उपन्यास की ग्यारहवी किस्त… फिर उसी उम्मीद और विश्वास के साथ कि आपको यह किस्त भी पसन्द आएगी और आप अपने विचार मुझसे नि:संकोच साझा करेंगे।

आप सबको स्वतंत्रता-दिवस की बधाई और शुभकामनाएं

-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर


11

बंगलौर में जब वे जस्सी की मौसी के घर पहुँचे तो मौसी ने जस्सी को कसकर बाहों में भर लिया और उसे गोल-गोल घुमाती रही। कभी आँखें भर लेती, कभी जस्सी के सिर पर प्यार भरा हाथ फेरने लगती। संदीप भी मम्मी-मौसी के परिवार के साथ खूब रच-बस गया।
      बंगलौर में रघुबीर को कुछ अपने काम थे। वह टैक्सी लेकर चला जाता। संदीप और जस्सी को मौसी ने एक कार और एक ड्राइवर दे दिया था। वे बंगलौर शहर के बाग-बगीचे, झीलें और मंदिरों का चक्कर लगाते रहते।
      जस्सी को नंदी हिल जाना बहुत पसंद था। वहाँ राह में चारों ओर हरियाली, बलखाती सड़कें, ठंडी हवाएँ थीं।  मुम्बई के भीड़-भाड़ वाले शोर से दूर वह बहुत खुश थी। संदीप ने ड्राइवर को हिंदी गानों की एक कैसेट लगाने के लिए दे दी थी। गाने बहुत पुराने थे, बड़े रोमांटिक और उदास भी।
      ''सीने में सुलगते हैं अरमान, आँखों में उदासी छाई है...।''
      जस्सी ने हैरानी से संदीप की तरफ़ देखा। वह मम्मी का हाथ पकड़कर मुस्करा पड़ा।
      अगला गाना था-
      ''मेरे गीतों में तुम... मेरे ख्वाबों में तुम...''
      ''तू ये पुराने गाने कहाँ से ले लाया है।'' जस्सी ने संदीप के चेहरे की ओर देखते हुए पूछा।
      ''ये गाने तो मैंने आपके लिए लगाए हैं।''
      ''अच्छा ! मेरा बड़ा ख़याल है। शुक्रिया।'' वह मुस्करा कर बोली।
      एक दिन वे बंगलौर के एक हिस्से में गए, जहाँ बरगद का एक बहुत ही बड़ा और पुराना पेड़ था। वह पेड़ तीन एकड़ ज़मीन में फैला हुआ था। जस्सी ने यह पेड़ पहले कभी नहीं देखा था। उस दिन रघुबीर भी उनके साथ था। उस पेड़ के लम्बे तने देख देखकर वे हैरान और खुश होते रहे।
      लाल बाग में फूल, पौधे, झाड़, झाड़ियाँ, पेड़ देखकर जस्सी बोली -
      ''संदीप, तू जानता है कि बंगलौर को 'गार्डन सिटी' कहते हैं।''
      ''सच, मम्मी बड़ा मज़ा आ रहा है। यहाँ की हरियाली देख मन प्रसन्न हो रहा है।'' संदीप बोला।
      एक दिन वह रघुबीर के साथ खरीदारी करने निकल गए। उन्होंने बीजी के लिए, चाचियों के लिए और प्रीती के लिए कांचीपुरम सिल्क के सूट और साड़ियाँ खरीदीं।
      टीपू सुल्तान का महल देखने गए तो जस्सी संदीप को टीपू सुल्तान की अंग्रेजों से टक्कर का सारा इतिहास बताने लग पड़ी।
      ''मम्मी, आपने तो राजनीति शास्त्र में पढ़ाई की है, आपको इतिहास का भी काफ़ी ज्ञान है। वैसे स्कूल में मैंने भी टीपू के बारे में पढ़ा है, पर कुछ भी याद नहीं।'' वह हँसने लग पड़ा।
      मैसूर में वृंदावन गार्डन के पानी के फव्वारे और झिलमिल रोशनी में तीनों मस्ती के रंग में घूमते रहे। मैसूर का राजमहल देखने के पश्चात् वे मंगलूर की ओर चले गए। राह में बहुत ही घने दरख्तों के झुंड देख वे हैरान रह गए। ड्राइवर ने बताया कि ये काली मिर्च, नारियल, सुपारी और कॉफ़ी के पेड़ हैं।
      बंगलौर वापस लौटे तो रघुबीर के एक दोस्त ने ताज पैलेस होटल में इन तीनों को रात के खाने के लिए आमंत्रित किया। रघुबीर का वह दोस्त स्वयं सरदार था, पर उसकी पत्नी कन्नड़ थी। उसी होटल में काम करते एक अन्य सरदार लड़के से मुलाकात हो गई। उसकी पत्नी गोवा से थी। उसने रघुबीर के परिवार को एक जोड़े से मिलवाया। आदमी बहुत बढ़िया, ठेठ पंजाबी बोल रहा था। बातों बातों में पता चला कि वह आदमी तमिल है। वह दिल्ली का जन्मा-पला था और पंजाबियों का पड़ोसी रहा था। यही कारण था कि वह पंजाबी इतनी अच्छी बोल सकता था।
      वहीं जस्सी को एक लड़की से मिलवाया गया जो उसी होटल में काम करती थी, नाम था - शबनम। थोड़ी सांवली थी, पर नयन-नक्श बहुत तीखे थे। खूब हँसती थी हर बात पर। वह बहुत शीघ्र जस्सी के साथ घुलमिल गई। उसने जस्सी को बताया कि उसको होटल की नौकरी ज्यादा पसन्द नहीं। न ही उसको अपनी अम्मी और बड़ी बहन की तरह बुर्का पहनना पसन्द है। उसके दो भाई सउदी अरब में हैं, पर वह वहाँ नहीं जाना चाहती।
      उस रात डिनर के बाद जस्सी बहुत खुश थी, इतने प्रकार के लोगों से मिलकर।
      अगले दिन वह गोवा के लिए रवाना हो गए। संदीप उस दिन अकेला ही घूमने निकल गया। रघुबीर और जस्सी होटल में इकट्ठे बैठकर बात कर रहे थे। तभी रघुबीर ने कहा, ''तेरे साथ एक बात करनी है।''
      ''किस बारे में ? क्या ?'' वह घबराई हुई आवाज़ में बोली।
      ''तू तो पहले ही घबरा गई है। बात क्या सुनेगी।'' रघुबीर मुस्करा कर बोला।
      ''नहीं, नहीं। ऐसी कोई बात नहीं। तुम बताओ। कोई चिंता की बात तो नहीं ?'' वह उत्सुक निगाहों से उसकी ओर देखने लग पड़ी।
      रघुबीर ने अपनी एक बांह जस्सी के कंधे के गिर्द कर ली और बहुत संभल कर धीमे स्वर में बोला-
      ''संदीप ने मुझे बताया है कि वह किस लड़की को पसन्द करता है।''
      ''अच्छा! माँ को नहीं बताया।'' ठंडी आह भरकर वह बोली, ''कौन है वो ?''
      ''तू उससे मिल चुकी है।'' घूरती नज़रों से रघुबीर ने जस्सी की ओर देखते हुए कहा।
      ''अब बुझारतें न डालो। बताओ प्लीज़!'' वह मिन्नत-सी करते हुए बोली।
      ''उसका नाम रश्मि है।'' धड़कते दिल से रघुबीर ने बताया।
      ''हाँ, एक बार वो हमारे घर आई थी। लड़की तो प्यारी है देखने में, बोल चाल में भी अच्छी है। संदीप तो कह रहा था कि वह उसकी दोस्त है बस।''
      ''हाँ-हाँ, दोस्त ही थी। अब वह उसके साथ विवाह करना चाहता है।''
      ''पर वह है कौन ? उसके माँ-बाप कौन है ? कुछ बताया है उसने ?'' जस्सी उतावली-सी होकर पूछा।
      ''तू एक बार एक प्रदर्शनी देखने गई थी - जहाँगीर आर्ट्स गैलरी... यह उसी ज्योति मरवाह की बेटी है।''
      ''यह तो मुझे पता है। पर ये ज्योति कौन है ? वे लोग कौन हैं ? एक बार उनसे मिलकर पता तो करना ही पड़ेगा।'' जस्सी रघुबीर की ओर देखते हुए बोली।
      रघुबीर की चुप्पी और रघुबीर के चेहरे के भाव देखकर जस्सी का माथा अचानक ठनका - ''कहीं यह वही ज्योति तो नहीं तुम्हारे वाली ?'' अब जस्सी के चेहरे पर घबराहट, उलझन, तनाव साफ़ झलक रहा था। उसकी आवाज़ का सुर एकाएक ऊँचा हो गया था। वह बेसब्री से रघुबीर के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी।
      कुछ पल की ख़ामोशी के बाद बड़े धैर्य से रघुबीर ने जस्सी के ओर सीधा देखते हुए कहा-
      ''हाँ, यह वही ज्योति है।''
      कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया। एक लम्बा अरसा बीत गया।
      ''सो, जिसे तुम आप हासिल नहीं कर सके, उसके साथ रिश्ता गांठने का यह अच्छा तरीका है। वाह खूब! इसका मतलब, तुमने उसके साथ कंटेक्ट बनाए रखा। इतने वर्षों में मुझे कुछ भनक तक नहीं पड़ी। वाह, भई वाह! क्या कहने ? पहला प्यार! ज़िन्दाबाद!  मुझे तो पहले ही शक था।'' जस्सी की आवाज़ में तल्ख़ी थी, गुस्सा था, बेबसी थी। कुछ देर अंट-शंट बोलकर वह चुप हो गई। फिर रोने लग पड़ी। रघुबीर ने उसके साथ बात करनी चाही, पर उसने उसकी एक न सुनी। प्रत्युत्तर में चीखकर रघुबीर को उसने चुप करवा दिया।
      रघुबीर को यह तो पता था कि जस्सी इस बात को आसानी से हज़म नहीं कर सकेगी, पर उसको यह भी विश्वास था कि अब उम्र के साथ साथ जस्सी में ठहराव आ गया होगा और वह इस बात को धैर्य से सुनेगी और समझने की कोशिश करेगी।
      जस्सी सिसकियाँ लेकर रो रही थी। रघुबीर ने बहुत कोशिश की उसको शांत करने की, पर बिलकुल नाकाम रहा।
      सिसकियों भरी आवाज़ कुछ कम हुई तो रघुबीर ने बोलना शुरू किया -
      ''मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि ज्योति की बेटी भी उसी कालेज में पढ़ती है, जिसमें संदीप पढ़ रहा था। मैंने तो ज्योति की बेटी को देखा तक नहीं। अब जब संदीप ने मुझे उस लड़की के बारे में बताया तो मुझे बड़ा शॉक लगा। मैं ज्योति के टच में बिलकुल नहीं था। मैं अपने कारोबार में इतना व्यस्त हो गया था... फिर ज्योति की अपनी ज़िन्दगी थी।'' रघुबीर बोलते बोलते रुक गया। अब जस्सी की सिसकियाँ बन्द हो गई थीं। परन्तु अभी भी वह आँखों पर बांह रखकर बगैर हिले-डुले बिस्तर पर अधलेटी हालत में पड़ी थी।
      जस्सी ने कोई हुंकारा न भरा तो रघुबीर ने फिर कहना प्रारंभ किया - ''इतने दिनों से मैं संदीप को संग लेकर घूम रहा हूँ। यही बात समझाने का यत्न कर रहा हूँ कि वह उस लड़की का ख़याल छोड़ दे, पर वह मेरी बात ही नहीं सुनता। वह कहता है कि वह कोर्ट मैरिज कर लेगा।'' रघुबीर ठंडी आह भरकर फिर चुप हो गया।
      जस्सी न हिली, न डुली। न उसने आँखों पर से अपनी बांह हटाई।
      ''मुझे विवश होकर अपने बारे में सारी बात संदीप को बतानी पड़ी। वह यह सुनकर और ज्यादा जिद्द में आ गया है। मैं खुद परेशान हूँ...। क्या मैं भी भापा जी की तरह घर छोड़कर चला जाऊँ ? कोई ऐसा नाटक करूँ ताकि वह पिघल जाए और उस लड़की को भुला दे...।'' रघुबीर बोलते बोलते थककर चुप हो गया। जस्सी की ओर से उसे कोई हुंकारा न मिला तो वह भी आँखें मूंद कर करवट लेकर लेट गया।
      कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। तब जस्सी ने अपनी चुप तोड़ी।
      ''अब बाप-बेटा मेरे सामने कहानियाँ न घड़ो। मैं सब बात समझ गई हूँ। तुम उस चुड़ैल को भुला नहीं सके तो अन्दर ही अन्दर संदीप और उसकी लड़की को करीब लाने की योजनाएँ बनाते रहे ताकि ज्योति के साथ खुलकर मिल सको। तुमने मुझे कभी प्यार ही नहीं किया, तभी मुझसे खिंचे-खिंचे से रहते हो। मैं संदीप का उस लड़की से विवाह हर्गिज़ नहीं होने दूँगी। मैं ज़हर खा लूँगी। उस लड़की को अपने घर में कभी भी घुसने न दूँगी। सुन लो... मेरी यह बात भी पत्थर पर लकीर की तरह है।''
      रघुबीर चुप ही रहा। क्या कहता ?
(जारी…)