तेरे लिए नहीं
राजिन्दर कौर
5
एक
दिन इंदर दफ़्तर के किसी काम से अस्पताल की ओर ही जा रहा था। मैंने उसको कहा कि जाते
हुए वह मुझे वहाँ छोड़ दे और आते हुए लेता आए। मैंने घर में स्वाति
की पसंद की सब्ज़ी और मीठी सेवियाँ ले जाने के लिए बना ली थीं।
मुझे अपने कमरे के बाहर
खड़ी देखकर स्वाति एकदम दंग रह गई थी। वह चाय बना रही थी। समीप ही कोई सज्जन बैठे थे
जिन्हें मैं पहचानती नहीं थी। उनके हाथ में चाय का प्याला था।
स्वाति ने आगे बढ़कर प्यार से मेरे हाथ पकड़ लिए और बोली -
“सब ठीक है न ? आपकी तबीयत कैसी है ?“
“बहुत खूब !“
पास बैठे सज्जन उठ खड़े हुए। मुस्कराकर उसने चाय
का शुक्रिया किया और चले गए।
“मैंने तुझे डिस्टर्ब तो नहीं किया ?“ मैंने
पूछा।
““बिलकुल नहीं।“ उसने मुस्कराने की कोशिश
की।
“आज तेरे बालों में हमेशा की तरह फूल नहीं टंगे
हुए ?“
उसका दायां हाथ सहज ही गर्दन के पीछे चला गया,
“बस, यूँ ही।“
उसकी आवाज़ में उदासी थी।
“छोड़ आई, अणु को ?“
उसने हाँ में सिर हिलाया।
“कैसा रहा ?“
“अंजलि दीदी बहुत रोई। अणु भी रोती रही। माला
दीदी भी बहुत परेशान थी। पता चला कि जीजा जी अंजलि दीदी की दवा
लाकर नहीं देते। दीदी को मारते हैं। बेटियों पर गुस्सा करते हैं। आमदनी कम और परिवार
बड़ा। इतनी लड़कियाँ पैदा करने का दोष दीदी पर मढ़ते हैं। सारे बच्चों ने अपने पिता की
शिकायतें कीं। जब दोस्तों के साथ पीकर आते हैं तो घर में कोहराम मच जाता है।“
“अणु भी शायद इसीलिए वहाँ से आ गई हो ?“ मैंने
पूछा।
“भाभी जी, बच्चों पर घर के वातावरण का असर तो
पड़ता ही है। रात में जीजा जी घर आए तो वे बड़े जीजा जी के बारे में शिकायतें करने लग
पड़े। माला दीदी ने भी उसको बहुत कुछ सुनाया। अंजलि दीदी को लगातार दवा देने के बारे
में कहा। दोनों तरफ़ बड़ी तनातनी हो गई। जीजा जी बोले -अपनी बहन को साथ ले जाओ। बच्चों
को मैं खुद पाल लूँगा।“
स्वाति का चेहरा संजीदा था। कुछ देर चुप रहने के बाद बोली -
“भाभी जी, जब से मैं आई हूँ, मूड ठीक नहीं रहता।
रह रहकर दीदी का ख़याल आता है। उन मासूम बच्चों का...। जब से हम लखनऊ से लौटे हैं,
माला दीदी का ब्लॅड प्रैसर हाई चल रहा है। आपके आने से पहले जो आदमी यहाँ बैठा था,
सुजाता दीदी के लिए अखबार में इश्तहार दिया था, उसी सिलसिले में आया था।“
“कैसा लगा ?“
“उसके चार बच्चे हैं...। मुश्किल ही है।“ वह ठंडी आह भरकर चुप
हो गई। मुझे भी कुछ नहीं सूझ रहा। हमारे बीच एक लम्बी चुप पसर गई। अचानक स्वाति की
आवाज़ सुनकर मैं चौंक उठी। वह हौले-हौले गा रही थी -
कैसे कोई जिए
ज़हर है ज़िन्दगी, उठा तूफान वो
रात के सब बुझ गए दिए
कैसे कोई जिए...
पहले भी मैंने कई बार उसको गाते हुए सुना था।
दो-तीन बार हम कुछ लोग पिकनिक पर गए थे तो स्वाति और शीलम ने
बड़ी मौज में कितने ही गाने गाए थे। पर मुझे आज अहसास हुआ कि स्वाति की आवाज़ कितनी गहरी
है... कितनी दर्द भरी... दिल को कचोटने वाली...। गाना भी बहुत पुराना था, याद नहीं
आ रहा था किसका गाया हुआ है। मुझे लगा कि यह गाना गाते हुए स्वाति रो ही न पड़े। मेज़
पर रखे उसके हाथ को पकड़कर मैंने उसको दिलासा देना चाहा। उसके
हाथों को थपथपाया। आँखों से तसल्ली देनी चाही, पर वह गाए जा रही थी -
प्यासे पपीहे ने आस ही बांधी
उड़ गए बादल आ गई आंधी
हमने जो छोड़ा....
तभी पर्दा सरका और एक मरीज़ हाथ में पर्ची लिए
अंदर आ दाखि़ल हुआ। स्वाति को कुछ पल संभलने में लग गए। पास रखे गिलास में से उसने
पानी पिया और अपने काम में लग गई।
मैं पास रखी एक पत्रिका के पन्ने पलटने लग पड़ी।
पर मुझे उसमें कुछ भी नहीं दिख रहा था। स्वाति के गाए गाने की तुकें दिमाग में घूम
रही थी - ‘कैसे कोई जिए... रात के सब बुझ गए दिए...।’
वह जब अपने काम से खाली हुई तो बोली, “भाभी जी,
कल कैनेडा से एक परिवार आ रहा है। आपको बताया था जब माला दीदी अमृतसर में अकेली रहती
थी। उसकी नई नई नौकरी लगी थी, तब वह परिवार पड़ोस में रहता था। सिक्ख परिवार है। माला
दीदी की शादी पर भी आए थे। जब दीदी का अबॉर्शन हुआ था, दीदी बहुत
बीमार थी तो उन्होंने दीदी की बहुत देखभाल की थी। फिर जब बबली पैदा हुई तो भी उन्होंने
दीदी के लिए जो किया, शायद ही कोई किसी के लिए कर सकता है। जीजा जी की पोस्टिंग जब
अमृतसर से बाहर हो गई थी तो रात में उस परिवार में से कोई न कोई औरत दीदी के पास आकर
सोती। इस सिक्ख परिवार ने दीदी के साथ खूब निभाई...। बबली के विवाह पर वे नहीं आ सके।
अब देखना दीदी की सेहत भी कुछ ठीक हो जाएगी। सुजाता दीदी भी बहुत खुश है। सुजाता दीदी
अमृतसर माला दीदी के पास रहने जाती तो सुजाता दीदी के साथ भी उनकी बड़ी आत्मीयता हो
गई। जब वे कैनेडा से आते हैं तो हम बहुत मजा करते हैं। खूब घूमते हैं। वो सुजाता दीदी
को भी घुमाने ले जाते हैं। उसके लिए बहुत सारे उपहार लेकर देते
हैं। वो जितने दिन हमारे पास रहेंगे, सुजाता दीदी खूब बनठन कर रहेगी। आज उसने अपनी
साड़ियाँ प्रेस करके टांग ली होंगी। सच, भाभी जी वो परिवार इतना रौनकी है, आप मिलोगे
तो लगेगा कि आप उन्हें बरसों से जानते हो।“
“बहुत खुशी की बात है।“ मैंने स्वाति से खुश
होते हुए कहा।
“भाभी जी, आपको राज की एक बात बताऊँ ? दीपक के
घरवालों से मेरी इतनी गहरी सांझ का एक कारण यह भी है कि वे सरदार हैं। जब नई नई मैं
इस अस्पताल में आई तो दीपक जी ने यहाँ मेरा दिल लगाने में बहुत मदद की। दीपक जी में
से मुझे अमृतसर वाले परिवार की झलक दिखाई देती। भाभी जी, उनका परिवार भी आपके परिवार
की तरह पाकिस्तान से शरणार्थी बनकर इधर आया था। आहिस्ता आहिस्ता फिर से अपने पैरों
पर खड़े हो गए। उनके बीजी हमें बँटवारे के समय की बातें सुनाया करते थे। दीदी ने जब
अमृतसर की नौकरी छोड़कर दिल्ली आने का निर्णय किया तो वो परिवार बहुत रोया। अब वे हमें
कैनेडा में कई बार बुलाते रहते हैं, पर जाना कोई सरल तो नहीं...। बबली की शादी पंजाबी
परिवार में हुई है तो ज्यादा अखरा नहीं।“
मैंने शुक्र किया कि अब वह ठीक मूड में आ गई
थी। वह घोर उदासी में से निकल आई थी।
“स्वाति, सिक्खों का और मराठियों का बहुत पुराना
रिश्ता है।“
मैंने मुस्कराकर कहा।
“वह किस तरह ?“
“तूने भगत नामदेव का नाम सुना है ?“
स्वाति ने ‘ना’ में सिर हिला दिया।
“भगत नामदेव मराठी थे। तूने हजूर, नांदेड़ के
बारे में सुना है ?“
“हाँ, वहाँ सिक्खों को बहुत बड़ा तीर्थस्थान है।“ उसने कहा।
“वहीं नज़दीक ही एक गाँव है। आजकल उसका नाम ‘नरसी
नामदेव’
है। यहाँ भगत नामदेव की याद में एक गुरद्वारा है।“
“भाभी जी, आप भगत नामदेव के बारे में बता रहे
थे।“
“हाँ, भगत नामदेव महाराष्ट्र के एक गाँव नरसी
वामन में पैदा हुए थे। यह तेहरवीं सदी की बात है। वह बड़े गरीब घर में पैदा हुए थे।
उसके पिता कपड़े सीने का काम करते थे। कुछ विद्वानों का कहना है कि वह कपड़े रंगने का
काम करते थे। वह वक़्त समाज बुरी तरह जाति भेदभाव, अंधविश्वास और छुआछूत जैसी बुराइयों
में जकड़ा हुआ था। नीची जाति के लोग मंदिर में नहीं जा सकते थे।
उन दिनों में सारे देश में भक्ति लहर चल रही थी। उस काल में भगत नामदेव पैदा हुए।“
“संत कबीर संत रविदास के नाम तो सुने हुए हैं।“ स्वाति बोली।
“इन भक्तों की बाणी भी शबद गुरु ग्रंथ साहिब
में शामिल हैं।“
“पर संत नामदेव तो मराठी में लिखते रहे होंगे,
फिर वो गुरु ग्रंथ साहिब में किस तरह शामिल किए गए ?“
“उस समय के बहुत सारे भक्तों की बोली संत भाषा
थी - सीधी, सादी, सरल। आम बोलचाल की भाषा। हिंदुस्तान के अलग
अलग हिस्सों में से सब धर्मों, जातियों के भक्तों की बाणी गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल
की गई। सब से मेरा अर्थ है कि जिनकी बाणी सिक्खी विचारधारा से मेल खाती थी यानी जो
एक ईश्वर में विश्वास करते थे।“
“बहुत खूब !“ स्वाति सिर हिलाती हुई बोली, “सिक्खों
का धार्मिक स्थान नांदेड़ में कैसे बन गया, वह भी तो महाराष्ट्र में ही है।“
“हाँ, गुरु गोबिंद सिंह सिक्खों के दसवें गुरु
अपनी ज़िन्दगी के अन्तिम दिनों में वहाँ रहे। वहीं उन्होंने सिक्खों को अपना फै़सला
सुनाया कि अब उनके बाद कोई भी देहधारी गुरु गद्दी पर नहीं बैठेगा। उन्होंने कहा कि
अब सब सिक्ख गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानेंगे। 1708 में उन्होंने हजूर साहिब
में ही गुरु ग्रंथ साहिब को गद्दी पर स्थापित किया, माथा टेका और पहला वाक्य लिया।
स्वाति, सिक्ख धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमें एक पुस्तक के आगे
सब सिर झुकाते हैं। इसमें गुरुओं की बाणी के अलावा हिंदू भगत, मुस्लिम और सूफ़ी संतों की बाणी भी शामिल है।“
“स्वाति, संत नामदेव सारे देश में घूमते घूमते
अन्तिम आयु के लगभग बीस बरस पंजाब में रहे।“
“पंजाब में कहाँ ?“
“पंजाब में गुरदासपुर ज़िले में एक गाँव है -
घुम्मण। वहाँ उनकी समाधि भी है।“
“भाभी जी, अमृतसर माला दीदी के पास जब मैं रहने
के लिए गई तो दरबार साहिब भी कई बार गई। उसी सरदार परिवार के संग। दिल्ली में मैं मंजू
और दीपक जी के साथ बंगला साहिब तो कई बार जाती थी। बहुत अच्छा लगता। गुरद्वारे का प्रसाद
बड़ा अच्छा लगता है।“
उसकी आँखों में अब एक ख़ास चमक थी।
“स्वाति, तुम्हारा परिवार तो वैसे भी राष्ट्रीय
एकता का प्रतीक है - एक दीदी की शादी बंगाली से, दूसरी की उत्तर
प्रदेश के यादव के साथ, बबली की पंजाबी परिवार में।“ मैंने हँसकर कहा।
उसके चेहरे पर भी मुस्कराहट थी।
“स्वाति, अमृतसर में तेरी दीदी को एक बंगाली
कैसे मिल गया ?“
“वहाँ दोनों एक ही अस्पताल में थे। जीजा जी उस
वक्त के पूर्वी पाकिस्तान से हैं। वही अब बांग्ला देश बन गया है। ढाका के पास एक गाँव
में उनकी बहुत बड़ी ज़मीन थी। जीजा जी का बड़ा भाई भी हिंदुस्तान में ही था। यहाँ नौकरी
करता था। जीजा जी की पढ़ाई का खर्चा ढाका से आता था। बांग्ला देश की लड़ाई के समय जब
मुक्ति-वाहिनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रही थी तो जीजा जी के दो भाई और पिता जी भागकर त्रिपुरा
आ गए थे। उस समय दीदी और जीजा ही त्रिपुरा उनसे मिलने गए थे। हालात ठीक होने पर वे
वापस बांग्ला देश चले गए थे। दीदी और जीजा जी एक बार बांग्ला देश भी गए थे। जीजा जी
के सभी रिश्तेदार उधर ही हैं। उनके पास उधर बहुत ज़मीनें हैं।“
“बांग्ला देश में तो काफी हिंदू रहते हैं। पर
हालात कुछ अच्छे नहीं हैं।“
“भाभी जी, अच्छे हालात तो आज कहीं भी नहीं हैं।“
“बात तो तेरी ठीक है। तू जीजा जी के बारे में
बता रही थी।“
“हाँ, दीदी की जब अमृतसर नौकरी लगी थी तब मम्मी
को गुज़रे अभी कुछ महीने ही हुए थे। मम्मी के निधन का दुख, उधर
अमृतसर में अकेलापन, जीजा जी भी अपने परिवार से टूटे हुए थे। पढ़ाई तो उन्होंने दिल्ली
से की थी। अपने घर वापस जाने के लिए हालात ठीक नहीं थे। तब पूर्वी पाकिस्तान में राजनीतिक
उथल-पुथल मची हुई थी, ऐसे हालात में दोनों मिले तो जल्द ही एक दूसरे के करीब आ गए।
दीदी दिल्ली आई तो उसने बाबा से बात की। पहले तो पापा मना करते रहे, फिर मान गए। मम्मी
की पहली बरसी के बाद दीदी की मंगनी हो गई।“
“उसी बरसी पर उस बंगालिन यानी कृष्णा को हमने
पहली बार देखा था। हमने सोचा, पापा के साथ काम करती होगी या किसी मित्र की बीवी होगी।
किसी को कुछ पता ही नहीं था कि भीतर ही भीतर क्या खिचड़ी पक रही है। मुझे तो अभी इन
बातों की समझ भी नहीं थी। मैं उस समय 12-13 साल की थी। मम्मी की मौत के बाद मैं मौसी
की गोद में ही घुसी रहती। मौसी तो खुद ही परेशान थी। पहले बेटा गया, फिर बहन। जीने
का कोई मकसद ही न रहा। हमें उस वक्त सबसे बड़ा सहारा मौसी का ही था। अंजलि दीदी उस वक्त
अस्पताल में थी। सुजाता दीदी घर संभालते थे।“
तभी, एक मरीज़ के आ जाने से हमारी बातचीत का सिलसिला
टूट गया।
(जारी…)