
मित्रो, 18 मार्च 2012 को मैंने अपने उपन्यास ‘परतें’ के पहले चैप्टर की पोस्टिंग की थी। बहुत से मित्रो ने पढ़कर इस पर अपनी राय दी…मेरा उत्साह बढ़ाया… संगीता स्वरूप, अशोक आन्द्रे, प्रियंका, वन्दना, केसरा राम, अलका सारवत, कुडीकुडी, दर्शन दरवेश, रूपसिंह चन्देल, सुलभ जायसवाल, रमेश कपूर…आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद… आशा है आप भविष्य में भी अपनी राय से मुझे अवगत कराते रहेंगे और मेरा उत्साहवर्धन करते रहेंगे…
प्रस्तुत है, ‘परतें’ उपन्यास की अगली किस्त… यानी चैप्टर-2…
परतें
राजिंदर कौर
2
रघुबीर बी.ए. पास करके अपने भापा जी के साथ दादर होटल में जाने लग पड़ा था। वह जैमल सिंह का सबसे बड़ा पोता था। रघुबीर की दादी तृप्त कौर ने रघुबीर के विवाह की रट लगा दी थी। रघुबीर शुरू में तो टाल-मटोल करता रहा। फिर, उसने एक-दो लड़कियाँ देखकर नापसंद कर दीं।
एक दिन उसकी प्रेम बीजी ने बेटे को अपने पास बिठाकर बड़े लाड़-प्यार से मोह-ममता की दुहाई दी। अपने दादा-दादी की इच्छा को पूर्ण करने की गुहार लगाई और रघुबीर के मुँह से असली बात निकलवा ली। रघुबीर तो ज्योति से विवाह करना चाहता था।
''वह तो हमारी जात-बिरादरी की ही नहीं।'' बीजी ने तर्क दिया।
''क्या मतलब?'' हैरान होकर रघुबीर ने बीजी की ओर देखा।
''हम खत्री हैं और वह अरोड़ों की बेटी है।'' प्रेम बीजी बोली।
''बीजी, हद हो गई। हम सिक्ख हैं, वह भी सिक्ख हैं और सिक्ख धर्म में तो जात-पात का सख्त विरोध किया गया है।'' रघुबीर की आवाज़ में तल्ख़ी थी।
प्रेम बीजी ठंडा आह भरकर कुछ देर रघुबीर की ओर देखती रही। रघुबीर का गठीला लंबा शरीर और सुर्ख ग़ाल और ज्योति पतली-दुबली, गेहुंए रंग वाली।
''तू शीशे के सामने खड़ा होकर खुद को देख और साथ में उसको खड़ा कर। तेरे सामने वह क्या है?'' प्रेम बीजी बोली।
''बीजी, आपने तो उसका सिर्फ़ कद और शक्ल-सूरत ही देखी है। पर मैं उसका स्वभाव जानता हूँ। वह आपकी खूब सेवा करेगी। मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूँ।''
''तेरे दादा दी और भापा जी ने नहीं मानेंगे।'' प्रेम बीजी ने निराश होकर कहा।
''बीजी, आप चाहो तो उन्हें मना सकती हो...मैं भी ज़ोर लगाऊँगा।''
एक दिन अवसर देखकर प्रेम बीजी ने डरते-डरते इस विषय पर रघुबीर के पिता मनजीत सिंह से बात की। वह तो एकदम भड़क उठे।
''तुम जसपाल की पोती की बात कर रही हो? उनकी औकात क्या है? वे कोलीबाड़े की चाल में रहते हैं। गांधी मार्किट में छोटी-सी दुकान है कपड़े की।'' वह गुस्से में बोले।
''हम भी तो कोलीबाड़े में से उठकर यहाँ आए हैं। पहले बैरकों में रहे, फिर चाल में ! अपना समय भूल गए आप?''
''अच्छा, तुम्हारी यह हिम्मत। आज तक तुम्हारी जुबान मेरे सामने कभी खुली नहीं। अब बेटे की शह पर लगी हो मुझे नसीहत देने।''
प्रेम रुआंसी हो गई।
''एक गुरसिक्ख परिवार है। उनके दिल्ली, बम्बई और पूना में तीन होटल हैं। वे अपनी बेटी के लिए कई दिनों से ज़ोर डाल रहे हैं। लड़की मैंने देख रखी है। बहुत सुन्दर है। रघुबीर के साथ जंचती भी है। बहाने से उसको दिखा दे। खार गुरद्वारे में या फिर गुरपूरब नज़दीक आ रहा है। तब दोनों को दादर में मिलवा देना।''
कुछ देर की चुप के बाद मनजीत सिंह पुन: बोला, ''कालबा देवी वाला गुरुद्वारा उनके घर के करीब ही है। उसे देखते ही रघुबीर ज्योति को भूल जाएगा। उसको कह दो, उसका मेल ज्योति से कभी नहीं हो सकता। अगर वह फिर भी न माने तो मैं खुद निपट लूँगा।”
प्रेम हत्प्रभ-सी यह सब सुनती रही। इससे पहले कि वह कुछ कहे, मनजीत सिंह घर से बाहर निकल गया।
अब घर में अजीब-सा वातावरण था। रघुबीर सुबह बग़ैर खाये-पिये घर से निकल जाता। रात में देर से लौटता। होटल में भी अपने भापा जी को देखकर इधर-उधर हो जाता।
दादा, दादी, चाचे, चाचियाँ सभी कारण जानने के लिए उत्सुक हो गए। आख़िर, बात को कितने दिन तक छिपाये रखा जा सकता था। घर में कानाफूसी होने लगी। रघुबीर का खाना, पीना, सोना कम होता गया। उसकी आँखें अन्दर धंसने लगीं। वह आज तक कभी भी अपने पिता या दादा जी के सामने ऊँची आवाज़ में नहीं बोला था।
एक दिन उसको दादा दी और भापा जी ने घेर लिया।
''देख बेटा, हम तेरा भला ही चाहते हैं। हमारे सारे खानदान की भलाई भी इसी में है।''
घरवालों ने सब नुक्ते समझा दिए। रघुबीर बुत-सा बना सब सुनता रहा। लेकिन अन्त में उसने फ़ैसला सुना दिया कि वह विवाह करेगा तो सिर्फ़ ज्योति से और वह उठकर बाहर चला गया।
जिस परिवार से रघुबीर के रिश्ते की पेशकश हुई थी, उनके साथ मिलकर वे एक और होटल खोलना
चाहते थे। उनके साथ भागीदारी करना चाहते थे। रघुबीर इस बात से बड़ा हैरान था कि कोलीवाड़े में रहते समय ज्योति के परिवार से इनके परिवार की कितनी गहरी सांझ थी। आर्थिक हालात बदलते ही संबंध वैसे नहीं रहे।
एक रात जब रघुबीर के पिता घर नहीं लौटे तो घर में सभी घबरा-से उठे। एक अजीब-सा तनाव और सन्नाटा पसर गया। बम्बई जैसे महानगर में अब उन्हें कहाँ ढूँढ़ा जाए। पुलिस में उनके लापता होने की ख़बर करने पर खानदान के अपमान का भय था।
सबकी आँखें रघुबीर पर टिकी थीं। सबकी उंगलियाँ रघुबीर की तरफ़ उठ रही थीं। घर में इस तनाव का केन्द्र-बिन्दु वही था। रघुबीर के बीजी ने रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लिया था। दादी तो ज्योति का नाम लेकर उसे कोसती। दादा जी आशाभरी नज़रों से रघुबीर की ओर देखते। मनजीत सिंह का कोई अता-पता नहीं था।
रघुबीर ज्योति को जुहू बीच पर लेकर जाया करता था। उन दोनों को समुद्र के किनारे घूमना बहुत अच्छा लगता था। पूरे छह वर्ष वह ज्योति के संग घूमता रहा था। बम्बई के कोलीवाड़ा गुरू नानक स्कूल में उसकी मित्रता ज्योति से हुई थी। एक ही कक्षा में पढ़ते थे। उसके बाद, कालेज भी उनका एक ही था - खालसा कालेज, माटूंगा। बी.ए. करने के पश्चात् ज्योति ने स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में प्रवेश ले लिया था और रघुबीर अपने भापा जी और चाचाओं के साथ होटल के काम में मदद करने लग पड़ा था।
वैसे, वह ज्योति को बहुत पहले से जानता था, जब वे कोलीवाड़ा में रहा करते थे। साथ की बिल्डिंग में ज्योति का परिवार रहता था। वे भी देश विभाजन के बाद यहाँ आकर बस गए थे। इन दोनों परिवारों की परस्पर गहरी सांझ थी। दोनों सिक्ख परिवार थे। उस समय तो अरोड़ा, खत्री का प्रश्न कभी नहीं उठा था।
रघुबीर और ज्योति ने कई फिल्में संग-संग देखी थीं। कई फिल्मों में ऐसी ही स्थिति दिखाई जाती थी। तब उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि ऐसा सबकुछ उनके साथ भी होने वाला है।
एक दिन रघुबीर जब ज्योति को लेकर जुहू बीच गया तो उसने उसे घर की सारी स्थिति समझाई।
''मैं तेरा गुनाहगार हूँ,'' वह ज्योति से माफ़ी मांग रहा था। उसकी आँखें आँसुओं से भर उठी थीं।
''तुझे मुझे जो बुरा-भला कहना है, कह ले। गालियाँ दे, कुछ भी कर, पर रब का वास्ता, चुप न रह।''
परन्तु ज्योति एक शब्द नहीं बोली थी। समुन्दर की लहरें ऊँची उठनी आरंभ हो गई थीं। कुछ देर बाद ये लहरें किनारों के पार जाने लगीं।
''ईश्वर को हमारा इतना ही साथ मंजूर है। हम एक दूसरे को भुला नहीं सकते। हमेशा एक अच्छे दोस्त बनकर रहेंगे। जब भी कहीं मुलाकात होगी तो अच्छे दोस्त की तरह मिलेंगे।''
अचानक, ज्योति फूट फूटकर रोने लग पड़ी। आसपास घूमते लोगों की उसे कोई परवाह नहीं थी। पानी की लहरें पल पल ऊँची उठ रही थीं और शोर भी बहुत कर रही थीं।
रघुबीर स्वयं को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था। उसने ज्योति को कसकर अपने साथ लगा लिया। उसका हाथ बारबार दबाता रहा। कभी उसकी पीठ पर हाथ फेरता। लेकिन ज्योति का रोना कम नहीं हो रहा था।
चारों ओर अँधेरा पसरना शुरू हो गया था। वे दोनों एक दूसरे से सटकर, सबसे बेख़बर हुए बैठे थे। जब ज्योति रो-रोकर थक गई तो रघुबीर के कंधे पर सिर रखकर बोली-
''बीर, तुम मुझे कई बार पिकनिक काटेज में चलने के लिए कहते थे और मैं कहा करती थी, अभी नहीं, शादी के बाद। लेकिन आज मैं कहती हूँ, मुझे ले चलो। मैं बिछुड़ने से पहले एक भरपूर मिलन चाहती हूँ। उसके बाद पता नहीं ज़िन्दगी किस तरफ मोड़ ले ले। परन्तु इस मिलन की याद मैं सदैव अपने दिल में संजोकर रखूँगी।''
रघुबीर अवाक्-सा ज्योति को देखता रहा। फिर उसने ज्योति को और ज़ोर से भींच लिया।
रघुबीर ने ही ज्योति को बताया था कि जुहू के आसपास कुछ काटेज थे और वहाँ प्रेमी-युगल कुछ समय के लिए काटेज किराये पर लेकर...।
काटेज से वापसी पर टैक्सी में वे एक-दूजे के साथ लगकर बैठे थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। टैक्सी ड्राइवर शीशे में से हैरान नज़रों से उनको देख रहा था। ज्योति के ख़ामोश बहते आँसुओं को रघुबीर महसूस कर रहा था। कोलीवाड़ा पहुँचकर जब टैक्सी रुकी तो ज्योति कुछ देर रघुबीर से चिपक कर बैठी रही। फिर, अचानक उठकर चल पड़ी। उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। रघुबीर उसे जाते हुए देखता रहा। उसका दिल टुकड़े-टुकड़े होता रहा। एक बार उसके मन में आया कि वह टैक्सी से उतरकर ज्योति का हाथ पकड़ ले और उसे लेकर कहीं भाग जाए। खार तक पहुँचते-पहुँचते वह पता नहीं कितने आँसू बहा चुका था।
आख़िर, घरवालों के सम्मुख उसने हथियार डाल दिए।
दूसरे दिन भापा जी घर लौट आए। उस समय घर के हर सदस्य के चेहरे पर छाई चमक देखने वाली थी। कभी वे रघुबीर को देखते, कभी उसके भापा जी की ओर। भापा जी ने उसे गले लगा लिया और फूट फूटकर रोने लगे। ये शायद कृतज्ञता के आँसू थे। रघुबीर पत्थर-सा बना सारा नाटक देखता रहा।
प्रस्तुत है, ‘परतें’ उपन्यास की अगली किस्त… यानी चैप्टर-2…
परतें
राजिंदर कौर
2
रघुबीर बी.ए. पास करके अपने भापा जी के साथ दादर होटल में जाने लग पड़ा था। वह जैमल सिंह का सबसे बड़ा पोता था। रघुबीर की दादी तृप्त कौर ने रघुबीर के विवाह की रट लगा दी थी। रघुबीर शुरू में तो टाल-मटोल करता रहा। फिर, उसने एक-दो लड़कियाँ देखकर नापसंद कर दीं।
एक दिन उसकी प्रेम बीजी ने बेटे को अपने पास बिठाकर बड़े लाड़-प्यार से मोह-ममता की दुहाई दी। अपने दादा-दादी की इच्छा को पूर्ण करने की गुहार लगाई और रघुबीर के मुँह से असली बात निकलवा ली। रघुबीर तो ज्योति से विवाह करना चाहता था।
''वह तो हमारी जात-बिरादरी की ही नहीं।'' बीजी ने तर्क दिया।
''क्या मतलब?'' हैरान होकर रघुबीर ने बीजी की ओर देखा।
''हम खत्री हैं और वह अरोड़ों की बेटी है।'' प्रेम बीजी बोली।
''बीजी, हद हो गई। हम सिक्ख हैं, वह भी सिक्ख हैं और सिक्ख धर्म में तो जात-पात का सख्त विरोध किया गया है।'' रघुबीर की आवाज़ में तल्ख़ी थी।
प्रेम बीजी ठंडा आह भरकर कुछ देर रघुबीर की ओर देखती रही। रघुबीर का गठीला लंबा शरीर और सुर्ख ग़ाल और ज्योति पतली-दुबली, गेहुंए रंग वाली।
''तू शीशे के सामने खड़ा होकर खुद को देख और साथ में उसको खड़ा कर। तेरे सामने वह क्या है?'' प्रेम बीजी बोली।
''बीजी, आपने तो उसका सिर्फ़ कद और शक्ल-सूरत ही देखी है। पर मैं उसका स्वभाव जानता हूँ। वह आपकी खूब सेवा करेगी। मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूँ।''
''तेरे दादा दी और भापा जी ने नहीं मानेंगे।'' प्रेम बीजी ने निराश होकर कहा।
''बीजी, आप चाहो तो उन्हें मना सकती हो...मैं भी ज़ोर लगाऊँगा।''
एक दिन अवसर देखकर प्रेम बीजी ने डरते-डरते इस विषय पर रघुबीर के पिता मनजीत सिंह से बात की। वह तो एकदम भड़क उठे।
''तुम जसपाल की पोती की बात कर रही हो? उनकी औकात क्या है? वे कोलीबाड़े की चाल में रहते हैं। गांधी मार्किट में छोटी-सी दुकान है कपड़े की।'' वह गुस्से में बोले।
''हम भी तो कोलीबाड़े में से उठकर यहाँ आए हैं। पहले बैरकों में रहे, फिर चाल में ! अपना समय भूल गए आप?''
''अच्छा, तुम्हारी यह हिम्मत। आज तक तुम्हारी जुबान मेरे सामने कभी खुली नहीं। अब बेटे की शह पर लगी हो मुझे नसीहत देने।''
प्रेम रुआंसी हो गई।
''एक गुरसिक्ख परिवार है। उनके दिल्ली, बम्बई और पूना में तीन होटल हैं। वे अपनी बेटी के लिए कई दिनों से ज़ोर डाल रहे हैं। लड़की मैंने देख रखी है। बहुत सुन्दर है। रघुबीर के साथ जंचती भी है। बहाने से उसको दिखा दे। खार गुरद्वारे में या फिर गुरपूरब नज़दीक आ रहा है। तब दोनों को दादर में मिलवा देना।''
कुछ देर की चुप के बाद मनजीत सिंह पुन: बोला, ''कालबा देवी वाला गुरुद्वारा उनके घर के करीब ही है। उसे देखते ही रघुबीर ज्योति को भूल जाएगा। उसको कह दो, उसका मेल ज्योति से कभी नहीं हो सकता। अगर वह फिर भी न माने तो मैं खुद निपट लूँगा।”
प्रेम हत्प्रभ-सी यह सब सुनती रही। इससे पहले कि वह कुछ कहे, मनजीत सिंह घर से बाहर निकल गया।
अब घर में अजीब-सा वातावरण था। रघुबीर सुबह बग़ैर खाये-पिये घर से निकल जाता। रात में देर से लौटता। होटल में भी अपने भापा जी को देखकर इधर-उधर हो जाता।
दादा, दादी, चाचे, चाचियाँ सभी कारण जानने के लिए उत्सुक हो गए। आख़िर, बात को कितने दिन तक छिपाये रखा जा सकता था। घर में कानाफूसी होने लगी। रघुबीर का खाना, पीना, सोना कम होता गया। उसकी आँखें अन्दर धंसने लगीं। वह आज तक कभी भी अपने पिता या दादा जी के सामने ऊँची आवाज़ में नहीं बोला था।
एक दिन उसको दादा दी और भापा जी ने घेर लिया।
''देख बेटा, हम तेरा भला ही चाहते हैं। हमारे सारे खानदान की भलाई भी इसी में है।''
घरवालों ने सब नुक्ते समझा दिए। रघुबीर बुत-सा बना सब सुनता रहा। लेकिन अन्त में उसने फ़ैसला सुना दिया कि वह विवाह करेगा तो सिर्फ़ ज्योति से और वह उठकर बाहर चला गया।
जिस परिवार से रघुबीर के रिश्ते की पेशकश हुई थी, उनके साथ मिलकर वे एक और होटल खोलना

एक रात जब रघुबीर के पिता घर नहीं लौटे तो घर में सभी घबरा-से उठे। एक अजीब-सा तनाव और सन्नाटा पसर गया। बम्बई जैसे महानगर में अब उन्हें कहाँ ढूँढ़ा जाए। पुलिस में उनके लापता होने की ख़बर करने पर खानदान के अपमान का भय था।
सबकी आँखें रघुबीर पर टिकी थीं। सबकी उंगलियाँ रघुबीर की तरफ़ उठ रही थीं। घर में इस तनाव का केन्द्र-बिन्दु वही था। रघुबीर के बीजी ने रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लिया था। दादी तो ज्योति का नाम लेकर उसे कोसती। दादा जी आशाभरी नज़रों से रघुबीर की ओर देखते। मनजीत सिंह का कोई अता-पता नहीं था।
रघुबीर ज्योति को जुहू बीच पर लेकर जाया करता था। उन दोनों को समुद्र के किनारे घूमना बहुत अच्छा लगता था। पूरे छह वर्ष वह ज्योति के संग घूमता रहा था। बम्बई के कोलीवाड़ा गुरू नानक स्कूल में उसकी मित्रता ज्योति से हुई थी। एक ही कक्षा में पढ़ते थे। उसके बाद, कालेज भी उनका एक ही था - खालसा कालेज, माटूंगा। बी.ए. करने के पश्चात् ज्योति ने स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में प्रवेश ले लिया था और रघुबीर अपने भापा जी और चाचाओं के साथ होटल के काम में मदद करने लग पड़ा था।
वैसे, वह ज्योति को बहुत पहले से जानता था, जब वे कोलीवाड़ा में रहा करते थे। साथ की बिल्डिंग में ज्योति का परिवार रहता था। वे भी देश विभाजन के बाद यहाँ आकर बस गए थे। इन दोनों परिवारों की परस्पर गहरी सांझ थी। दोनों सिक्ख परिवार थे। उस समय तो अरोड़ा, खत्री का प्रश्न कभी नहीं उठा था।
रघुबीर और ज्योति ने कई फिल्में संग-संग देखी थीं। कई फिल्मों में ऐसी ही स्थिति दिखाई जाती थी। तब उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि ऐसा सबकुछ उनके साथ भी होने वाला है।
एक दिन रघुबीर जब ज्योति को लेकर जुहू बीच गया तो उसने उसे घर की सारी स्थिति समझाई।
''मैं तेरा गुनाहगार हूँ,'' वह ज्योति से माफ़ी मांग रहा था। उसकी आँखें आँसुओं से भर उठी थीं।
''तुझे मुझे जो बुरा-भला कहना है, कह ले। गालियाँ दे, कुछ भी कर, पर रब का वास्ता, चुप न रह।''
परन्तु ज्योति एक शब्द नहीं बोली थी। समुन्दर की लहरें ऊँची उठनी आरंभ हो गई थीं। कुछ देर बाद ये लहरें किनारों के पार जाने लगीं।
''ईश्वर को हमारा इतना ही साथ मंजूर है। हम एक दूसरे को भुला नहीं सकते। हमेशा एक अच्छे दोस्त बनकर रहेंगे। जब भी कहीं मुलाकात होगी तो अच्छे दोस्त की तरह मिलेंगे।''
अचानक, ज्योति फूट फूटकर रोने लग पड़ी। आसपास घूमते लोगों की उसे कोई परवाह नहीं थी। पानी की लहरें पल पल ऊँची उठ रही थीं और शोर भी बहुत कर रही थीं।
रघुबीर स्वयं को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था। उसने ज्योति को कसकर अपने साथ लगा लिया। उसका हाथ बारबार दबाता रहा। कभी उसकी पीठ पर हाथ फेरता। लेकिन ज्योति का रोना कम नहीं हो रहा था।
चारों ओर अँधेरा पसरना शुरू हो गया था। वे दोनों एक दूसरे से सटकर, सबसे बेख़बर हुए बैठे थे। जब ज्योति रो-रोकर थक गई तो रघुबीर के कंधे पर सिर रखकर बोली-
''बीर, तुम मुझे कई बार पिकनिक काटेज में चलने के लिए कहते थे और मैं कहा करती थी, अभी नहीं, शादी के बाद। लेकिन आज मैं कहती हूँ, मुझे ले चलो। मैं बिछुड़ने से पहले एक भरपूर मिलन चाहती हूँ। उसके बाद पता नहीं ज़िन्दगी किस तरफ मोड़ ले ले। परन्तु इस मिलन की याद मैं सदैव अपने दिल में संजोकर रखूँगी।''
रघुबीर अवाक्-सा ज्योति को देखता रहा। फिर उसने ज्योति को और ज़ोर से भींच लिया।
रघुबीर ने ही ज्योति को बताया था कि जुहू के आसपास कुछ काटेज थे और वहाँ प्रेमी-युगल कुछ समय के लिए काटेज किराये पर लेकर...।
काटेज से वापसी पर टैक्सी में वे एक-दूजे के साथ लगकर बैठे थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। टैक्सी ड्राइवर शीशे में से हैरान नज़रों से उनको देख रहा था। ज्योति के ख़ामोश बहते आँसुओं को रघुबीर महसूस कर रहा था। कोलीवाड़ा पहुँचकर जब टैक्सी रुकी तो ज्योति कुछ देर रघुबीर से चिपक कर बैठी रही। फिर, अचानक उठकर चल पड़ी। उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। रघुबीर उसे जाते हुए देखता रहा। उसका दिल टुकड़े-टुकड़े होता रहा। एक बार उसके मन में आया कि वह टैक्सी से उतरकर ज्योति का हाथ पकड़ ले और उसे लेकर कहीं भाग जाए। खार तक पहुँचते-पहुँचते वह पता नहीं कितने आँसू बहा चुका था।
आख़िर, घरवालों के सम्मुख उसने हथियार डाल दिए।
दूसरे दिन भापा जी घर लौट आए। उस समय घर के हर सदस्य के चेहरे पर छाई चमक देखने वाली थी। कभी वे रघुबीर को देखते, कभी उसके भापा जी की ओर। भापा जी ने उसे गले लगा लिया और फूट फूटकर रोने लगे। ये शायद कृतज्ञता के आँसू थे। रघुबीर पत्थर-सा बना सारा नाटक देखता रहा।
(जारी…)