Thursday 15 November 2012

उपन्यास



मित्रो, हमारा देश भारत भिन्न-भिन्न पर्वों-त्योहारों का देश है। इन पर्वों-त्योहारों को सभी जातियों, वर्गों के लोगों द्बारा जब एक साथ मनाते देखती हूँ तो भीतर एक खुशी की लहर दौड़ जाती है। दो दिन पूर्व ही दीपपर्व दीपावली का त्योहार मनाया गया। अंधेरे से लड़ने की ताकत देता यह रौशनी का त्योहार छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको एक कर देता है। सोचती हूँ, त्योहारों को मनाने की बात जब सोची गई होगी, उसके पीछे शायद यही मंतव्य रहा होगा कि समाज का हर प्राणी, चाहे वह किसी भी जाति का हो, रंग का हो, छोटा हो, बड़ा हो, सबको एक ही खुशी के सूत्र में पिरोना है। पर एक दिन हम भेदभाव मिटा कर रंगों की होली खेल लेते है, एक दिन परस्पर मिल बैठ कर रौशनी का पर्व दीपावली मना लेते है, पर वर्ष के शेष दिनों में यह परस्पर प्रेम, सौहार्द की भावना हमारे भीतर नहीं रहती। हमारे भीतर से  ये नफ़रत, द्बेष, ईर्ष्या, ऊँच-नीच का भाव हमेशा हमेशा के लिए निकले तभी सच्ची दीवाली है, सच्ची होली है।



उपन्यास परतें की 17 वीं किस्त आपके समक्ष है। आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

17

एक दिन डॉक्टरों ने सीज़ेरियन करने का फ़ैसला कर लिया। सारा परिवार अरदास कर रहा था। प्यारा-सा, गुलगुला-सा बच्चा इस दुनिया में आ गया। उस समय जस्सी भी अस्पताल में ही थी। नर्स ने सबसे पहले बच्चे को जस्सी की गोदी में दे दिया। वह खुशी में फूली नहीं समा रही थी। उसके अन्दर ममता की लहरें उमड़-उमड़ पड़ रही थीं। उसकी आँखें खुशी के आँसुओं से छलछला आईं। उसने लपक कर रश्मि का माथा चूम लिया, एक बार नहीं, तीन-चार बार। दूर खड़ी ज्योति को उसने कसकर बांहों में भर लिया।
      ''हूबहू मेरे संदीप पर गया है...'' वह बार-बार यही वाक्य दुहरा रही थी। पूरा परिवार भी जस्सी के इस उमड़ते प्यार पर बहुत खुश था।
      रश्मि नर्सिंग होम से घर आई तो जस्सी दिन-रात बच्चे को अपने पास ही रखती। बस, दूध पिलाने के लिए वह बच्चे को रश्मि की गोद में देती। बच्चे की मालिश करना, उसे नहलाना-धुलाना, सब उसने अपने ऊपर ले लिया। वह टी.वी. सीरियल, किट्टी पार्टियाँ, ब्यूटी पार्लर, सहेलियों के साथ गप्प-शप्प, सबकुछ भूल गई थी। अब घर में उसके गुनगुनाने की आवाज़ें, लोरियों के स्वर गूंजते रहते। इतना खुश जस्सी को कम ही किसी ने देखा था।
      बच्चा चालीस दिन का हुआ तो परिवार ने अखंड पाठ का भोग घर में रखवाया। पहला अक्षर '' निकला। लड़के की पड़दादी यानी प्रेम ने कहा, ''बच्चे का नाम जसप्रीत रखो।''
      पास खड़ा संदीप बोला, ''दादी जी, आजकल छोटे नाम रखने का रिवाज़ है।''
      ''ठीक है, तू जस बुला लिया करना। नहीं तो प्रीत। लड़के की पड़दादी को जसप्रीत नाम पसन्द है तो यही ठीक है। इसी नाम की अरदास कर दो।'' रघुबीर बोला।
      ''रश्मि की सलाह भी ले लो।'' पास से रुपिंदर चाची भी बोली।
      ''जो बड़े कहें, सिर माथे पर...।'' रश्मि मुस्करा कर बोली।
      रात में डिनर अपने होटल में ही रखा गया। खाना, पीना, नाचना। देर रात तक जश्न मनाया गया। इस सारे जश्न के दौरान जस्सी ने काके जसप्रीत को अपनी गोदी से अलग नहीं किया।
      रुपिंदर ने प्रेम से पूछा, ''आपने काके का नाम जसप्रीत क्यों रखा है। कोई खास कारण है ?''
      ''तू समझ ही गई है।'' प्रेम ने मुस्करा कर कहा।
      ''पर फिर भी...।'' रुपिंदर ने सवालिया नज़रों से प्रेम की ओर देखा।
      ''जस्सी का प्यार देखा है तूने काके के लिए ?'' प्रेम ने रुपिंदर की ओर घूरती आँखों से देखते हुए पूछा।
      ''हाँ, वो तो देख रही हूँ। वह सिर्फ़ दूध पिलाने के लिए रश्मि के पास ले जाती है बच्चे को।'' रुपिंदर कुछ सोचती हुई बोली।
      ''ज्योति ने काके को अपनी गोदी में लेना चाहा तो जस्सी ने मुस्करा कर कुछ बहाना बना दिया। बाद में बस थोड़ी देर के लिए उठाने दिया। ज्योति बेचारी मायूस होकर चुप-सी अलग होकर बैठ गई।'' प्रेम बोली।
      ''जस्सी को ऐसा नहीं करना चाहिए था'' रुपिंदर उदासी भरी आवाज़ में बोली।
      कुछ दिन पश्चात् ज्योति ने फोन करने शुरू कर दिए कि वह रश्मि और काके को लेने आना चाहती है। जस्सी कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देती। रश्मि ने भी मायके जाने की इच्छा प्रकट की, पर जस्सी ने उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। विवश हो रश्मि ने संदीप से कहा तो संदीप मम्मी से बोला,
''मम्मी, कुछ दिन के लिए रश्मि को मायके छोड़ आते हैं। उसकी मम्मी भी बहुत कह रहे हैं।''
''अच्छा तो तू सिफारिश लाया है ? किसकी है ? अपनी बीवी की या अपनी सास की ?''
      संदीप माँ की आवाज़ में भरी कड़वाहट को भाँप गया था।
      'तो क्या मम्मी के मन में अभी भी कड़वाहट है, रश्मि के लिए ? रश्मि की मम्मी के लिए ? पर अब काके को लेकर वह तो बहुत खुश हैं। हर वक्त चहकते रहते हैं। काके के पैदा होने के बाद से तो उनका रंग-ढंग, तौर-तरीका सब बदल गया है।'
      उसने यही बात रघुबीर से की तो वह बोले, ''रश्मि ने तेरी माँ से तुझे छीना है, अब उसने रश्मि का पुत्र उससे छीनकर हिसाब बराबर कर दिया है।''
      ''क्या मतलब ?'' संदीप के चेहरे पर परेशानी साफ़ झलक रही थी।
      ''बस, तेरी मम्मी शुरू से ही काबिज़ स्वभाव की रही है।''
      ''पर रश्मि की मम्मी भी बच्चे के साथ कुछ वक्त बिताना चाहती है।''
      ''कुछ सोचते हैं, घबरा नहीं बेटे।'' रघुबीर ने चेहरे पर मुस्कराहट लाने की कोशिश करते हुए कहा।
      कभी वो भी वक्त था जब अपनी हर समस्या के लिए संदीप मम्मी की अदालत में जाकर अपील करता था, पर अब मामला बिलकुल उलट था। मम्मी से उसके डायलॉग नपे-तुले होते। पर अपने पापा के साथ उसका संबंध पिता-पुत्र वाला कम और दोस्तों वाला अधिक था।
      उस रात काम से वापस आकर रघुबीर अपनी बीजी के पास चला गया। सारी बात सुनकर बीजी हँसने लग पड़े।
      ''चलो, देखते हैं। भेजेगी कैसे नहीं रश्मि को।'' थोड़ी देर के अंतरात के बाद बीजी आँखों में शरारत भरकर बोले,
''कहे तो काके की नानी को यहीं ले आएँ।''
रघुबीर बीजी के इस मज़ाक पर बड़ा हैरान हुआ, पर बीजी को मुस्कराते देख वह भी मुस्करा पड़ा।
''आजकल बीजी भी मूड में हैं। पड़दादी का दर्जा जो मिल गया है।'' रघुबीर मंद मंद मुस्कराता अपने कमरे में आ गया।
दो-तीन दिन बाद प्रेम जस्सी के पास गई। काका सो रहा था। जस्सी चाय की चुस्कियाँ भर रही थी।
कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद प्रेम बोली,
''जस्सी बेटा, क्या रश्मि की मम्मी ने इसको मायके नहीं ले जाना ? कमाल है, काका ढाई महीने का हो गया है, पर अभी तक वे लेने नहीं आए।''
''बीजी, उनके तो खूब सन्देशे आ चुके हैं। मेरा ही मन नहीं मानता, बच्चे को अपने से अलग करने को।'' जस्सी के चेहरे को प्रेम गौर से देख रही थी। उसके चेहरे पर ममता के साथ-साथ एक विजय-भाव भी था।
''जस्सी, मैंने एक मन्नत मांगी थी। हज़ूर साहब के दर्शन करने की। तू मेरे साथ चल। हम वहाँ हफ्ता भर रहेंगी। साथ ही गुरू लंगर की सेवा करेंगी। रघुबीर के भापा जी तो जाने को तैयार नहीं। लड़के कामकाज वाले हैं। देखना, इंकार न करना। तेरे साथ ही जाने का मन है। रश्मि जब मायके जाए, तब का प्रोग्राम बना लेंगे। जल्दी बताना।''
जस्सी सोच में पड़ गई- 'बीजी, मेरे साथ ही क्यों जाना चाहते हैं ! वह तो बड़ा ज़ोर देकर कह रहे हैं ! मना कैसे करूँ ? चलो, एक हफ्ते की ही तो बात है।'
उसने रश्मि को भेजने का प्रोग्राम बना लिया और बीजी के साथ हजूर साहिब जाने की तैयारी करने लग पड़ी।
(जारी…)

Saturday 3 November 2012

उपन्यास



मित्रो, उपन्यास परतें की 16वीं किस्त आपके समक्ष है। कभी कभी हम जीवन में अपनी कुछ ग़लतफ़हमियों का शिकार होकर ज़िन्दगी के बहुत से खूबसूरत पलों को अपने से दूर कर देते हैं और जब होश आता है तो सिवाय पश्चाताप के कुछ हाथ नहीं आता। अपनी रीढ़ को सीधा रखना और गर्दन न झुकाना बेशक स्वाभिमान का पर्याय माना जा सकता है, पर जीवन में ऐसे बहुत से बेशकीमती पल होते हैं, जिन्हें पाने के लिए, उनका आनंद लेने के लिए, ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाने के लिए, हमें अपनी रीढ़ को कुछ लचीला भी बनाना पड़ता है। आखिर जस्सी ने अपनी जिद्द को छोड़ अपनी बहू रश्मि को अपनाना शुरू किया, यह परिवर्तन जीवन का ही एक अहम हिस्सा है। ऐसे परिवर्तन जीवन में न हों तो जीवन शुष्क और उबाऊ हो जाएगा।
आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर
16

एक दिन सुबह-सवेरे रश्मि की तबीयत बहुत खराब हो गई। डॉक्टर को घर बुलाया गया तो पता चला कि घर में एक नया जीव आने वाला है। सब बहुत खुश थे। अब संदीप सुबह के समय काम पर देर से जाता। वह अपने हाथों से फल काटकर रश्मि को देता। शाम को भी जल्दी लौटने की कोशिश करता। एक दिन संदीप के जाने के बाद जस्सी रश्मि को मुँह चिढ़ाकर बोली-
      ''हूँह ! मेरा बेटा तो जोरू का गुलाम हो गया।''
      रश्मि चुपचाप उठकर अपने कमरे में चली गई। न चाहते हुए भी उसकी आँखे सजल हो उठीं।
      एक दिन जस्सी अवसर मिलते ही बोली, ''तू क्या दुनिया से हटकर बच्चा पैदा करने वाली है। आजकल महारानी की तरह सेवा करवा रही है।''
      रश्मि प्रयत्न करती कि ये बातें वह दिल पर न लगाए, पर ऐसे कटु वचन उसको अन्दर तक ज़ख्मी कर देते। वह आजकल अपना अधिक से अधिक समय संगीत की तरफ लगाती।
      ''मैं कुछ दिन के लिए मम्मी-पापा के पास जाना चाहती हूँ।'' एक दिन रश्मि ने संदीप से कहा।
      ''क्यों ?''
      ''मेरा दिल कर रहा है। जब से विवाह हुआ है, मैं कभी भी एक दिन से अधिक मम्मी के पास नहीं रही। प्लीज़...।''
      ''ओ.के.। तैयार हो जाना। शाम को छोड़ आऊँगा।''
      जस्सी ने तो यह बात अनसुनी कर दी। पर जाने से पहले वह दादी जी को मिलने गई तो उन्होंने कहा, ''बेटा, तेरे बग़ैर घर में रौनक ही नहीं रहेगी। पर तेरा दिल है तो चली जा। फिर जल्दी आ जाना।'' उसका माथा चूमते हुए दादी ने कहा।
      शाम को संदीप रश्मि को उसके मायके छोड़ आया। ज्योति बहुत खुश थी। अब ज्योति और रश्मि अपना सारा वक्त एकसाथ बितातीं। रश्मि के पिता सवेरे ही काम पर निकल जाते। ज्योति और रश्मि की पसंद लगभग एक-सी ही थी। वह कभी किसी चित्रकला प्रदर्शनी में जा रही होतीं, तो कभी किसी संगीत सम्मेलन में।
      शाम के समय संदीप फुर्सत पाकर अक्सर ही रश्मि की ओर चला जाता। कई बार रात भी वहीं ठहर जाता। घर में अपनी मम्मी को ख़बर अवश्य कर देता। रश्मि के पापा और संदीप की बातों का विषय अधिकतर क्रिकेट या राजनीति होता। रघुबीर फोन करके रश्मि का हाल पूछ लेता। रश्मि दादी जी और चाचियों को अक्सर ही फोन करती रहती, परन्तु जस्सी मम्मी को फोन न करती। अंदर ही अंदर उसका दिल चाहता कि कभी जस्सी मम्मी फोन करके उसका हाल पूछ लें, पर उसकी यह इच्छा पूरी न हुई।
      एक रात खाने की मेज़ पर जब सभी बैठे थे तो मनजीत सिंह जस्सी की तरफ़ देखकर बोले-
      ''जस्सी बेटे, रश्मि को कब ला रहे हो ?''
      जस्सी बोली, ''न वो मेरे से पूछ कर गई है, न ही मेरे कहने पर आएगी।''
      ''तू एक बार कहकर तो देख।'' प्रेम ने कहा।
      ''इस हाल में उसका खुश रहना चाहिए, नहीं तो बच्चे पर असर पड़ेगा।'' रघुबीर बोला।
      ''यहाँ उसको नाखुश कौन करता है ? अगर वह वहाँ अधिक खुश है तो वहीं रहे, अभी।'' जस्सी बुदबुदाती हुई वहाँ से उठकर चली गई।
      जस्सी, सास-ससुर के सामने ऐसे कभी नहीं बोली थी, मुँह बेशक फुलाये रखे। सब एक दूसरे के चेहरों की ओर हैरानी से देखते रहे। कुछ पल की चुप्पी के बाद संदीप बोला-
      ''मैं एक दो दिन बाद रश्मि को ले आऊँगा।''
      ''मुझे भी संग ले चलना संदीप बेटे।'' प्रेम बोली।
      दो दिन बाद संदीप और प्रेम रश्मि को लेने गए तो उसका अभी आने को दिल नहीं कर रहा था, पर दादी जी को वह कुछ कह ही नहीं सकी।
      घर आकर फिर वही रूटीन शुरू हो गई। रश्मि गानों के कैसेट लगाकर सुनती रहती। जब दादी के पास आकर बैठती तो कीर्तन की कैसेटें लगा देती।
      इस बार वह मम्मी के पास रहकर क्रोशिया चलाना सीख आई थी। वह गाने सुनते हुए क्रोशिये से एक महीन लैस बनाती रहती। जब लैस बन गई तो दादी को देते हुए बोली-
      ''दादी जी, यह लैस मैंने आपके लिए बनाई है। दुपट्टे पर लगवा लेना।''
      चाची ने उसका माथा चूमकर उसको गले से लगा लिया।
      ''बहुत सुन्दर है। पर बेटी, इसे मम्मी को देना था। वो खुश हो जाती।''
      ''दादी दी, मम्मी जी मुझसे कभी खुश नहीं हो सकते। चाहे मैं अपनी जान...।'' रश्मि की आवाज़ भारी हो उठी थी।
      ''न बेटा, ऐसे अशुभ बोल मुँह से मत निकाल। ईश्वर की कृपा से सब ठीक हो जाएगा।'' दादी ने उसको अपने गले से लगाकर कस लिया। रश्मि फूट फूटकर रोने लग पड़ी।
      दादी ने रश्मि को सदैव हँसते-चहकते ही देखा था। उसके चेहरे पर कभी मलाल नहीं देखा था। उसको इस प्रकार हिचकियाँ भरकर रोते देख दादी का दिल दहल गया। उस दिन उसने रश्मि को अपने कमरे में ही खाना मंगवाकर खिलाया। वहीं दादी की कमरे में ही दोपहर को रश्मि की आँख लग गई।
      रश्मि को सोता छोड़कर वह जस्सी के कमरे में चली गई। वह टी.वी. पर कोई कार्यक्रम देख रही थी। जस्सी भौंचक्क-सी सास के चेहरे की ओर देखने लगी।
      ''जस्सी, तू जो व्यवहार रश्मि के संग कर रही है, वो ठीक नहीं। न उसके लिए, न ही उसके बच्चे के लिए। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। वैसे यह बता कि तू उसको किस बात की सज़ा दे रही है। अच्छा तो यही है कि तू उसको गले लगा ले, नहीं तो संदीप भी तेरा नहीं रहेगा। यह बात याद रखना। ज़िन्दगी दिल में गाँठें बाँधकर नहीं चल सकती। तू समझदार है। रश्मि की कद्र कर। वह गुणवान लड़की है। प्यार करेगी तो प्यार पाओगी। मेरी ये बातें पल्ले बाँध ले...।''
      खड़े खड़े ही एक ही साँस में प्रेम यह सब कहकर बाहर चली गई। जस्सी हैरान-सी बुत बनी, कुछ देर बैठी रही। भारी मन से उठकर वह टैरेस पर आई और कितनी ही देर बाहर सड़क पर टकटकी लगाकर ट्रैफिक और आते-जाते लोगों को देखती रही। चौराहे पर ट्रैफिक जैम था। कुछ देर बाद हरी बत्ती होने पर बसें, कारें, टैक्सियाँ फिर अपनी गति से चलने लगीं। जस्सी की आँखों में से अपने आप आँसू बह निकले। कितनी ही वह चुपचाप रोती रही। जब मन कुछ हल्का हुआ तो टैरेस पर चहल-कदमी करने लग पड़ी। धूप के साये ढल रहे थे।
      वह अपने बारे में सोचने लगी। संदीप विवाह के बाद उससे बहुत दूर हो गया था। आजकल वह अपने पापा के अधिक करीब हो गया था। रघुबीर भी उससे खिंचा खिंचा-सा रहता।
      'क्या इस सबका कारण मैं हूँ ?' उसके मन में एक लम्बा मंथन चलता रहा। उस रात न तो उसके गले से रोटी नीचे उतरी और न ही सारी रात वह सो सकी।
      दूसरे दिन नाश्ते की मेज़ पर जब जस्सी ने रश्मि के टोस्ट पर मक्खन लगाकर दिया तो सब हैरान होकर उसकी ओर देखने लगे। प्रेम के चेहरे पर एक मंद मंद मुस्कान खेल रही थी - बड़ी प्यारी-सी मुस्कान।
      उस दिन के पश्चात् जस्सी रश्मि की 'सतिश्री अकाल' का जवाब देने लग पड़ी थी। अब वह रश्मि के साथ कोई बात भी साझी कर लेती। खाने की मेज़ के इर्द-गिर्द जो तनाव घूमता रहता था, वह लगभग गायब हो गया था।
      रश्मि को सातवां महीना लगा तो 'रीतों' के लिए वह अपने मायके चली गई। ज्योति ने रश्मि की ससुराल की सभी स्त्रियों को अपने घर पर बुलाया। घर में खूब रौनक हो गई। जस्सी भी ज्योति के पास बैठकर सहज भाव से बातें करती रही। घर के शेष सदस्य उसमें आए इस परिवर्तन पर हैरान भी थे और खुश भी।
      रश्मि के आठवां महीना लगा तो अचानक एक दिन उसके सिर में तेज़ दर्द उठा। डॉक्टर को बुलाया गया तो पता चला कि ब्लॅड प्रैशर बहुत हाई था। डॉक्टर ने नमक कम करने के लिए, खुश रहने के लिए और सैर करने के लिए कहा।
      अब संदीप काम पर देर से जाता। घर जल्दी लौट आता। रघुबीर खुद भी रश्मि का हाल पूछने के लिए विशेष तौर पर उसके कमरे में चला जाता। जस्सी भी रश्मि के समीप बैठ कर उसके साथ बातचीत करती, हँसकर बोलती। बीच बीच में रश्मि के मम्मी-पापा भी उसका हालचाल पता करने आ जाते।
      अभी नौवां महीना लगा ही था कि रश्मि की तबीयत ज्यादा खराब रहने लग पड़ी। उसको नर्सिंग होम दाख़िल करना पड़ा। पूरे कुटुम्ब को रश्मि की बहुत चिंता थी। ज्योति भी रश्मि के पास नर्सिंग होम में आ गई। वह उससे एक पल के लिए भी दूर न होती। संदीप ने भी काम पर जाना छोड़ दिया था। शाम के वक्त बारी बारी से घर के सभी सदस्य रश्मि को मिलने जाते। जस्सी भी शाम को रोज़ चक्कर लगाती। प्यार से रश्मि के सिर पर हाथ फेरती। उसका माथा चूमती।
      ब्लॅड-प्रैशर को नीचे लाने के सभी यत्न हो रहे थे। रश्मि को खुश रखने के सारे गुर अपनाए जा रहे थे। हफ्ते बाद उसका ब्लॅड-प्रैशर नार्मल हो गया तो सब ने सुख की साँस ली।
(जारी…)