तेरे लिए नहीं
राजिन्दर कौर
11
मैं चाहती थी, स्वाति के संग कुछ वक़्त बिताऊँ। माला
के घर गई थी तो स्वाति के साथ काई बात साझी ही नहीं हो सकी थी। एक दिन उसको मिलने
मैं अस्पताल चली गई। मुझे देखकर वह भावुक हो उठी। कहने लगी, “मैं
जानती थी, आप मुझे मिलने आओगे।“ उसका
निचला होंठ काँपने लग पड़ा। मुझे लगा कि वह अभी रो पड़ेगी।
उसको इतना भावुक होते मैंने कभी नहीं देखा था।
“तू मुझे बुला लेती। मैं दौड़ी हुई आती।“ मैंने
उसके हाथ अपने हाथों में पकड़कर कहा।
उसकी आँखों में से बहते आँसू देखकर मैं घबरा
गई।
तभी कमरे के बाहर कुछ आवाज़ों का शोर सुनाई
दिया। स्वाति ने अपने हाथ मेरे हाथों में से छुड़ा लिए और झटपट अपने आँसू पोंछने
लगी। दरवाजे़ का पर्दा सरका और सामने सभी जाने-पहचाने चेहरे खड़े थे, मुस्कराते
हुए। लगभग सबके मुँह से एकसाथ निकला -
“अरे भाभी जी !“
मंजू, शीलम, डॉ. गुप्ता के साथ एक नया चेहरा था।
“कब आए ?“
शीलम ने पूछा।
“बस, आकर बैठी ही हूँ।“ मैंने
कहा।
“मुंबई की सैर कर आए हो ?“ मंजू
ने पूछा।
मैंने हाँ में सिर हिलाया।
“तुम्हारी मंडली यहाँ कहाँ ? आज
अस्पताल में कोई काम नहीं ?“ मैंने हँसकर कहा।
“बड़े दिनों से स्वाति के हाथ की चाय नहीं पी थी।
सोचा, आज उसको मौका दिया जाए।“ डॉ.
गुप्ता हँसकर बोले।
स्वाति उनकी बातें सुनकर फीका-फीका हँसने की
कोशिश कर रही थी।
“स्वाति,
तू बैठी रह। आज मैं चाय बनाती हूँ।“ मंजू
आगे बढ़कर बोली। स्वाति ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।
“और सुनाओ भाभी जी, क्या
हाल है ?“
“सब ठीक है।“
“अब अमेरिका कब जा रहे हो ?“
“बेटा बहुत उतावला पड़ा हुआ है। बहुत दिन से बुला
रहा है।“ मैंने कहा।
“फिर देर कैसी ? ऐसा अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।“
“भाभी जी,
आपका बेटा और बहू तो काम पर चले जाते
हैं। सारा दिन आप अकेले वक्त कैसे बिताते हो ?
आपका दिल लग जाता है ?“
इससे पहले कि मैं कुछ उत्तर देती, अस्पताल की रसोई में से रात के खाने की ट्रे
लेकर एक औरत आ खड़ी हुई। दोपहर और रात के खाने में मरीज़ों के लिए जो खाना बनता है, उसको
स्वाति जांचती है, चखकर देखती है। स्वाति ने खाना जांच लिया तो वह
औरत ट्रे लेकर वापस चली गई।
“भाभी जी,
दीपक ने मुझे एक कैसेट दी थी। संत कबीर
के शबद गाए हुए थे। वह खराब हो गई है। आपको कुछ याद है, वो
किसने गाये थे ?“
“मुझे नहीं पता। दीपक की वह वाली कैसेट घिस
घिसकर खराब हो गई है। वह दफ़्तर से आकर रोज कभी कबीर, कभी फरीद के श्लोक सुनता था या फिर शिव
कुमार बटालवी को। मेरे पास एक सी.डी. है - गुलज़ार ने आबिदा परवीन की आवाज में ‘कबीर’ को
पेश किया है। वह सुनकर बहुत अच्छा लगता है। गुलज़ार की प्रस्तुति की भाषा बहुत
अच्छी लगती है। उसकी आवाज़ में बहुत गहराई है,
कमाल है। आबिदा परवीन की आवाज़ भी गज़ब
की है।“ मैंने कहा।
“किसी ने कुमार गंधर्व की आवाज़ में कबीर को गाते
हुए सुना है ?“ स्वाति ने पूछा।
सब ने ‘ना’ में सिर हिलाया।
स्वाति उठकर अल्मारी में से सी.डी. प्लेअर और
एक सी.डी. निकाल लाई।
“सुनो, कुमार गंधर्व की आवाज़ में कबीर को।“ स्वाति
सबकी ओर देखते हुए बोली। कमरे में चुप पसर गई। आवाज़ बहुत धीमी थी ताकि बाहर न जा
पाए।
उड़ जाएगा हंस अकेला
जग दरशन का मेला
जैसे पात गिरे तरुवर से
मिलना बहुत दुहेला
ना जाने किधर गिरेगा
लगा पवन का रेला
जब होवे उमर पूरी
जब छूटेगा हुक्म हजूरी
जम के दूत बड़े मजबूत
जम से पड़ा झमेला...
सब मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। मंजू चाय बना
रही थी। वह भी हाथवाला काम रोककर आ खड़ी हुई।
“क्या आवाज़ है ! इतना सोज ! इतना दर्द। भजन में
ज़िन्दगी की पूरी सच्चाई है... जग दरशन का मेला... वाह स्वाति, दिल
खुश हो गया।“ शीलम बड़े उत्साह में बोल रही थी।
“आबिदा परवीन की आवाज़ भी बड़ी दिलकश है। जब वह
गाती है -
मन लागे यार फकीरी में...
आखिर ये तन ख़ाक मिलेगा
क्यूँ फिरता मगरूरी में ...।
संत कबीर ने सीधी सादी भाषा में अमर सचाई का
बयान किया है। हम जब कभी ऐसे भजन गाते हैं,
कुछ देर के लिए तो इसके प्रभाव के अधीन
रहते हैं। उसके बाद फिर वही दौड़-भाग, मार-धाड़,
गुस्सा-गिला...।“ मंजू
बड़ी उदासी में आ गई थी।
“संत कबीर के बहुत सारे शबद गुरु ग्रंथ साहिब
में शामिल हैं।“ मैंने कहा।
“एक बार दीपक ने बताया था कि गुरु ग्रंथ साहिब
में हिन्दू, मुसलमान,
सूफी और दलित संतों की बहुत सारी बाणी
है।“ शीलम बोली।
डॉ. गुप्ता इतनी देर से चुपचाप बातें सुन रहे
थे। वह बोले, “भई इन दोनों सी.डी की एक एक कॉपी मुझे भी लाकर
दो। मैं भी अपनी ज़िन्दगी सुधार लूँ।“ वह इस ढंग से बोले कि सब हँस पड़े।
“डॉ. चोपड़ा को भी ये शबद सुनाए जाने चाहिएँ।
शायद वह भी अपना गुस्सा कुछ कम कर सकें।“ शीलम बोली।
“तू उन्हें उनके जन्मदिन पर भेंट कर दे। क्या
ख़याल है ?“ मंजू ने सलाह दी।
“मंजू तू चाय पिला रही थी ?“ डॉ. गुप्ता ने चाय के प्यालों की ओर देखते हुए
पूछा।
चाय पीकर जल्दी ही सब चले गए तो मैं और स्वाति
अकेली रह गईं।
स्वाति अल्मारी में से एक मोटी-सी किताब निकाल
लाई।
“तेरी अल्मारी में बड़ा खजाना पड़ा है। कभी सी.डी.
निकल आती है, कभी किताब।“
मैंने हँसकर कहा।
मेरे आगे वह किताब रखती हुई बोली, “भाभी
जी, यह नई किताब खरीदी है।“
किताब का नाम पढ़कर मैंने हैरानी से उसकी तरफ
देखा। मैंने उसको अधिकतर सेहत और खुराक संबंधी पुस्तकें पढ़ते ही देखा था।
मेरे सामने ख़लील ज़िब्रान की कुछ रचनाओं का
अंग्रेजी में संग्रह पड़ा था।
“वाह खूब ! स्वाति, मैंने
इस लेखक की एक किताब बहुत बरस पहले पढ़ी थी - दि प्रोफेट। बाद में मैंने उसका
अनुवाद पंजाबी में भी देखा था। उस किताब का अनुवाद दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओं
में हो चुका है। उसकी कई लाख प्रतियाँ बिकी होंगी।“
“भाभी जी,
इस लेखक की भाषा कमाल की है। इसको
ज़िन्दगी की बहुत गहरी समझ थी। पहाड़ों, नदियों,
वृक्षों, फूलों का वर्णन पूरी किताब में भरा पड़ा
है। प्रकृति से उसको बहुत लगाव था। एक एक वाक्य कई कई बार पढ़ने को जी करता है।“
मैं स्वाति का चेहरा देख रही थी। किताब के विषय
में बात करते हुए उसकी आँखों में एक ख़ास चमक थी। उसने किताब का एक सफा खोला और
मेरे आगे रख दिया -
“मनुष्य जाति की ज़बान में सबसे सुन्दर शब्द है -
‘माँ’।
माँ जब बच्चे को बुलाती है तो उसकी आवाज़ सबसे मीठी लगती है। उसकी आवाज़ में प्रेम
है, मिठास है। यह शब्द माँ के दिल की तहों से
निकलता है। दुख के समय माँ ही धीरज बंधाती है,
दुख में आस की किरन जगाती है, कमज़ोरी
के समय हिम्मत देती है। वह प्यार, दया, हमदर्दी,
क्षमा, शीलता का सोता है। जिसकी माँ नहीं रहती, उसकी
पवित्र आत्मा को आशीर्वाद देने और उसकी हमेशा रक्षा करने वाला हाथ उस पर से उठ
जाता है।“
“प्रकृति में हर जगह माँ व्यापक है। सूर्य धरती
की माँ है जो इसको गरमी देकर प्रफुल्लित करता है। वह रात में भी ब्रह्मांड को तब
तक स्पर्श नहीं करता जब तक वह धरती को समुद्र की लहरों के संगीत और पंछियों के
गीतों की लोरियों से सुला नहीं देता।“
“धरती, वृक्षों और फूलों की माँ है। उन्हें जन्म देती
है, पालती है,
बड़ा करती है। वृक्ष और फूल, फलों
और बीजों की माँएँ हैं। माँ, प्रेम और सुंदरता के अस्तित्व का स्थायी मूल
रूप है।“
“माँ शब्द हमारे दिलों की गहराई में समाया हुआ
है। दुख अथवा खुशी की घड़ी में हमारे दिलों की गहराई में से माँ शब्द इस तरह निकलता
है जैसे गुलाब की खुशबू हवा में घुल मिल जाती है...।“
वह पृष्ठ पढ़कर मेरी आँखों के सम्मुख अपनी माँ
की तस्वीर उभर आई।
“कैसा लगा ?“
स्वाति शायद मेरे चेहरे के बदलते भावों
को पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
“बहुत बढ़िया है। मुझे अपनी माँ याद आ गई है। वह
प्रेम और त्याग की मूर्ति थी।“ मैंने कहा।
“भाभी जी,
बाबा के गुज़रने के बाद लगा है कि मैं
अनाथ हो गई हूँ। बाबा के होते हुए मैं उनसे मिलने भी बहुत कम जाती थी। बीमारी के
समय जब अस्पताल में दाखि़ल करवाया था तो बहुत सा वक्त मैं ही उनके पास रही। उन्होंने
कितनी बार मेरा हाथ पकड़कर दबाया। कितनी बार उनकी सजल आँखें, कांपते
होंठ देखकर मैं अंदर तक हिल गई। यदि बाबा ने हमारी सुध नहीं ली तो हमने भी क्या
किया। उन्हें अपने आप से दूर करने में हम स्वयं भी जिम्मेदारी हैं। कृष्णा आंटी से
नफ़रत न करते तो बाबा हमारे साथ जुड़े रहते।“
थोड़ी थोड़ी देर बाद स्वाति आँखें पोंछने लगती।
मैं चुपचाप सुनती रही।
“भाभी जी,
आजकल मम्मी की बहुत याद आ रही है। मौसी
को भी बहुत मिस कर रही हूँ। मौसी से मिलने की बड़ी इच्छा हो रही है। वह बाबा की मृत्यु पर दिल्ली नहीं आ सकी। बहुत बीमार है।“
“तुझे जाना चाहिए।“ मैंने
कहा।
“सुजाता दीदी भी जाना चाहती है। चिराग सुजाता
दीदी के बगै़र रहता नहीं। अंजली दीदी भी कहती थी कि वह भी जाना चाहती है। कुछ समझ
में नहीं आ रहा कि क्या किया जाए।“
मुझे कोई जवाब न सूझा। कुछ देर चुप रहने के बाद
स्वाति कहने लगी -
“मेरा मन आजकल बहुत उखड़ा रहता है।“
उसकी आवाज़ उदासी में डूबी हुई थी।
‘धीरज’ और ‘सब्र’ रखने के जितने भी शब्द मेरे शब्दकोश में थे, वे
मैंने सभी स्वाति को दिलासा देने के लिए इस्तेमाल कर लिए, परंतु
उस दिन मैं अपने मकसद में सफल नहीं हुई।
(जारी…)