Monday 3 June 2013

उपन्यास



तेरे लिए नहीं
राजिन्दर कौर


7
स्वाति अपने बारे में बहुत कम बात करती थी। वह अपनी बातें दीपक के संग साझा किया करती थी। वह कभी कभी मुझे थोड़ा-बहुत बता देती थी। मंजू तो दीपक कोसखाकहा करती थी। शीलम ने दीपक को भाई बना लिया था। स्वाति ने इस रिश्ते को कोई नाम तो नहीं दिया था, पर मुझे इतना पता है कि वह अपना दुख-सुख उसके साथ बाँट लेती थी। दीपक के स्वभाव में ही कुछ ऐसा था कि सब उसकोअपनासमझने लगते। वह एक अच्छा श्रोता था। कभी कभी अच्छे मूड में वह मुझे अपनी इन सखियों, बहनों या दोस्तों की कुछ बातें बता देता था। आहिस्ता-आहिस्ता मैं स्वयं ही इन लड़कियों के बहुत करीब हो गई थी। पर मेरे साथ निजी बातें साझी नहीं किया करती थीं। शायद औरत औरत के साथ अपने भेद साझे करने से डरती है।
               मुझे दीपक ने स्वाति के विषय में जो बताया था, वह आधा-अधूरा ही था। बी.एस.सी. होम साइंस करके स्वाति ने डॉयटिशियन का डिप्लोमा कर लिया था। इन्टर्नशिप ऑल इंडिया मेडिकल कालेज से की थी।
               उन दिनों में माला दीदी को हाइपरटेंशन अधिक रहता था। स्वाति उनके पास आकर रह जाती। नौकरी के लिए वह अर्जियाँ भेजती रहती। कनॉट प्लेस के एक रेस्तरां से उसको कॉल गई। बाबा को उसका रेस्तरां में काम करना पसंद नहीं था। पर वह अधिक ज़ोर देकर मना नहीं कर सके। वहाँ काम करके उसे अभी तीन महीने ही हुए थे कि उसको सेवा ग्राम से इंटरव्यू कॉल गई। सेवा ग्राम नागपुर से आगे था। नागपुर में उनके करीबी और दूर के कई रिश्तेदार रहते थे। वह पहले कईबार नागपुर होकर आई थी। वह अकेली ही सेवा ग्राम चली गई। वह वहाँ एक हॉस्टल में रही। समय बहुत अच्छा व्यतीत हुआ। बीच में वह दो बार नागपुर में जोशी अंकल-आंटी के पास हो आई। वह दूसरी जगहों पर भी नौकरी के लिए अर्जियाँ भेजती रहती। उसको झांसी से कॉल आई। झांसी में उसने अस्पताल के करीब एक घर में एक कमरा-रसोई किराये पर ले लिया। उस मकान की मालकिन मिसेज माथुर बहुत अच्छी थी। बड़ा ध्यान रखती। स्वाति को खाना बनाने देती। उसके घर के लोग भी खूब ध्यान रखने वाले थे। वहाँ माला दीदी, बड़े जीजा जी और बबली को लेकर एक बार आए थे। सुजाता दीदी भी उसके पास आई थी।
               एक बार स्वाति बीमार पड़ गई तो बाबा खुद तो नहीं आए, उन्होंने कृष्णा आंटी को भेज दिया।
               स्वाति बताती थी - कृष्णा आंटी के साथ मैं कभी अपना मन नहीं मिला सकी। वह चारेक दिन रहकर लौट गई। दिल्ली में रहते हुए कृष्णा आंटी ने शुरू शुरू में स्वाति के साथ स्नेह जताने की कोशिश की थी, पर स्वाति ने उसको कभी भी अपना समझा। स्वाति अपना खाना खुद बनाती और खाती। कई बार स्वाति कालेज से घर आती तो घर में ताला लगा होता। स्वाति बाबा से शिकायत करती तो वह स्वाति को ही डांट देते -
               अब यही तेरी माँ है। तू इसकी इज्ज़त नहीं करती। बात नहीं मानती।
               धीरे धीरे स्वाति ने कृष्णा आंटी के साथ बात करना ही छोड़ दिया। स्वाति मौसी के घर चली जाती। मौसी उसको कुछ कुछ बनाकर खिलाती।
               मौसा-मौसी का दिल अब दिल्ली में नहीं लगता था। बाबा तो उनके संग बोलते ही नहीं थे। वह सोचते, मौसी ही स्वाति को कृष्णा के विरुद्ध उकसाती है। जब स्वाति दिल्ली से बाहर चली गई तो मौसी-मौसा भी महाराष्ट्र में वापिस चले गए।
               झांसी में नागपुर वाली आंटी भी स्वाति की बीमारी की ख़बर सुनकर, उसके पास आकर कई दिन रही थी। उसकी बड़ी सेवा की थी।
               स्वाति प्रायः ही नागपुर वाले जोशी अंकल-आंटी की बात करती रहती। एक दिन मैंने पूछा-
               स्वाति तेरे नागपुर वाले अंकल-आंटी रिश्ते में तेरे क्या लगते हैं ?“
               इस सवाल पर वह बहुत हँसी थी। उसकी हँसी रुकी तो बोली, “उनके साथ खून का रिश्ता तो कोई नहीं, पर वैसे वे बहुत कुछ लगते हैं।उसके चेहरे पर एक ख़ास चमक गई थी।
               तेरी उनके साथ बहुत गहरी सांझ लगती है।मैंने कहा।
               भाभी जी, वह आंटी मुझे गोद लेना चाहती थी। अगर ले लेती तो आज मैं उनकी बेटी होती, पर बाबा नहीं माने। यदि मेरी सुमीत के साथ शादी हो जाती तो आज मैं उनकी बहू होती।यह सब बताते हुए वह हँस तो रही थी, पर उसकी आँखें नम थी। मैं उसकी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखने लग पड़ी।
               भाभी जी, जब हम सरोजिनी नगर के क्वार्टर्स में रहते थे तो सुमीत के पापा की बदली दिल्ली में हो गई थी। वे सरोजिनी नगर में हमारे पड़ोस में ही रहते थे। सुमीत मेरे से तीन साल बड़ा है। हम एक ही स्कूल में जाते। एकसाथ खेलते, लड़ते-झगड़ते। उसकी शिकायत लेकर मैं आंटी के पास जाती। वे मुझे गोदी में लेकर प्यार करते। सुमीत को डांट देते। सुमीत मेरे से नाराज हो जाता। मैं उसको मनाने जाती। अगर मैं उसके साथकट्टीकर देती तो वह मुझे मनाने आता। मेरी मम्मी की मिन्नत करता कि मेरी उसके साथअब्बाकरवा दें। भाभी जी, आपने फिल्मों में देखा है कभी, लड़का-लड़की का बचपन का प्यार... बस, वही प्यार जवान हो गया। मैं और सुमीत बाहर बरामदे में खड़े कितनी कितनी देर बातें करते रहते। वह बहुत ही स्मार्ट है, कभी उससे मिलवाऊँगी।
               फिर तेरा उसके साथ विवाह क्यों नहीं हुआ ?“
               अरे भाभी जी, हर कहानी का अंत विवाह नहीं होता।स्वाति मुस्कराने की पूरी कोशिश कर रही थी। अचानक वह गुनगुनाने लग पड़ी -
               चाह बरबाद करेगी हमें मालूम था...
               रोते रोते ही कटेगी, हमें मालूम था...
               मैंने हँसते हुए कहा, “तुझे पुराने गाने बहुत याद हैं। अभी तू जो गा रही थी, शायद सहगल का गाया गाना है।
               जब से सुमीत ने मेरा दिल तोड़ा है...अचानक वह रोने लग पड़ी।
               मैं उसे शांत करने की कोशिश करने लगी।
               माफ़ करना, मैंने तुझे सुमीत की याद दिलाकर रुला दिया।
               भाभी जी, मैं उसको भूली ही कब थी।वह अपने आँसू पोंछते हुए बोली।
               आजकल सुमीत कहाँ है ?“
               मुम्बई में। इंजीनियर है। उसकी बीवी गीता डॉक्टर है। उसके दो बच्चे हैं। एक बेटा, एक बेटी। नौकरी और ज़िन्दगी में अच्छी तरह सैटल्ड हैं।वह व्यंग्य में मुस्कराई।
               तेरे घर वाले नहीं माने या... ?“
               भाभी जी, हालात ही नहीं माने। अंकल की दिल्ली से बदली हो गई। मेरा और सुमीत का पत्र-व्यवहार जारी रहा। खतों में हम एक-दूसरे का जीवन भर साथ निभाने का वायदा करते रहे। सारा दुख-सुख बाँटते रहे। यहाँ कितना कुछ बदल गया। वह इंजीनियर बन गया। आंटी-अंकल भी दिल्ली आए थे। गरमी की छुट्टियों में, मुझे संग ले गए।
               जब मैं कालेज के अन्तिम वर्ष में थी तो सुमीत आया था। उसने बाबा से मेरा हाथ मांगा, बाबा नेहाँकर दी और कहा था कि स्वाति पढ़ाई पूरी कर ले। मेरी बहनें भी इस रिश्ते से बहुत खुश थीं। सुमीत ने शिप पर नौकरी कर ली थी और दो वर्ष शिप से आया ही नहीं था। जब दो साल बाद आया तो बाबा ने इंकार कर दिया। बोले -
               तू दो साल जहाज पर रहेगा तो हमारी लड़की क्या करेगी। तब माला दीदी को भी बाबा की बात सही लगी थी। काश मैं उस समय डट जाती या वही बाबा को कोई ठोस दलील देकर मना लेता। किसे दोष दूँ ? उम्मीद तो फिर भी बनी रही कि शायद सुमीत नौकरी बदल ले। पर इस नौकरी के दौरान उसको विदेशों में घूमने का अवसर मिल रहा था।
               इस दौरान अंकल रिटायर हो गए। नागरपुर अपने घर वापिस गए थे। जब मैं सेवा ग्राम में नौकरी करने लगी तो बीच बीच में मैं नागपुर चली जाती। आंटी अंकल के पास जाकर रहती। वे बहुत खुश होते। आंटी तो यही प्रार्थना करती कि सुमीत के संग मेरी बात पक्की हो जाए। उन दिनों सुमीत शिप पर था। वह घर में फोन करता रहता। मैं वहाँ होती तो मेरे साथ भी फोन पर बात करता रहता। सेवा ग्राम से मैं झांसी गई। सुमीत एकबार मुझसे मिलने झांसी भी आया। बोला कि वह पी.एच.डी. करने इंग्लैंड जा रहा है। उसने एम.टैक. की हुई थी। मेरा दिल ढह गया। आंटी ने बहुत कहा कि विवाह करवाकर जा, पर वह नहीं माना। उसने झांसी में भी मेरे साथ अपने प्यार का बहुत इजहार किया, पर इंग्लैंड जाने पर बजिद्द था। मेरे आँसू उसको रोक सके।
               जब वह तेरा हाथ मांगने आया था तब ही तेरे बाबा मान जाते तो...मेरी बात बीच में काटती हुई वह बोली, “भाभी जी, किस्मत में वह नहीं लिखा था।वह ठंडी आह भरकर बोली।
               जब मैं झांसी में थी तो दीदी और जीजा जी ने अमृतसर की नौकरी छोड़ दी थी और दिल्ली गए थे। माला दीदी चाहती थी कि मैं भी दिल्ली ही कोई नौकरी कर लूँ, पर तब मैं नहीं मानी थी। मैं झांसी में खुश थी। एक दिन नागपुर से अंकल का ख़त मिला कि आंटी बहुत बीमार है, तुझसे मिलना चाहती है। मैं एक सप्ताह की छुट्टी लेकर नागपुर चली गई। परंतु आंटी तो ज्यादा ही बीमार थी। मैंने छुट्टी और बढ़ा ली। आंटी मेरी सेवा से बहुत खुश थी। वह मुझसे सुमीत को ख़त लिखवाती, लम्बे लम्बे ख़त ! तभी मैंने देखा कि आंटी के पड़ोस में एक नया परिवार गया था। उनकी बेटी गीता अक्सर ही आंटी के घर आती रहती। वह मेडिकल कर रही थी। आंटी से सुमीत के विषय में पूछती रहती। पिछली बार सुमीत नागपुर आया था तो गीता पड़ोसी होने के नाते उससे मिली थी।
               फिर एक दिन आंटी बोली - यह गीता जबसे सुमीत से मिली है, बस उसके पीछे ही पड़ गई है। हो सकता है, उसको ख़त भी लिखती हो या फोन करती हो। सुमीत कहीं उसकी बातों में ही जाए।
               आंटी, हो सकता है, सुमीत को इंग्लैंड में ही कोई लड़की पसंद जाए।मैंने कहा।
               तू उसको ख़त लिखा कर। उसके संग सम्पर्क बनाए रख। आंटी मुझे समझाने लग पड़ी।
               फिर तुझे चाहिए था, उसके साथ पत्र-व्यवहार जारी रखती।मैंने कहा।
               भाभी जी, मैंने एक ख़त लिखा था। मैं जवाब की प्रतीक्षा करती रही। मुझे आंटी की बात मान लेनी चाहिए थी। मैं अपनी अकड़ में रही कि उसने मेरे ख़त का जवाब नहीं दिया, मैं क्यों और ख़त लिखूँ। उसके बाद मैं नागपुर भी नहीं गई। इस दौरान जीजा जी ने मेरे लिए यह वाली नौकरी तलाश ली। सन् 1984 में जब मैं दिल्ली आई तो दिल्ली के हालात बहुत खराब थे। तौबा ! वे दिन याद करके आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं। तब कर्फ़्यू खुलने के बाद जब मैं अस्पताल पहुँवी तो दीपक जी का कुछ ताअ-पता ही नहीं था किसी को। हम सब एक-दूसरे को पूछते। कोई साधन नहीं था पता करने का। भाभी जी, तब आपके घर का फोन भी नहीं होता था। दीपक जी कुछ दिन बाद जब ड्यूटी पर आए तो सबने राहत की साँस ली।
               वे बड़े भयंकर दिन थे।मेरी भी ठंडी आह निकल गई।
               दिल्ली में सीधी बड़ी दीदी के घर ही आई थी। कभी कभी बाबा से मिलने जनकपुरी चली जाती, पर उन्होंने कभी ज़ोर देकर नहीं कहा कि तू यहीं आकर रह। अब तो जनकपुरी में मौसा-मौसी भी नहीं थे। वहाँ जाकर दिल ही लगता।
               सुमीत ने फिर गीता के साथ कैसे विवाह कर लिया ?“ मैं पूरी बात जानना चाहती थी।
               वह हँसने लग पड़ी। एक फीकी-सी हँसी। पास पड़े पानी के गिलास में से एक लम्बा घूंट भरकर बोली -
               मालूम हुआ कि सुमीत पी.एच.डी. किए बग़ैर ही इंडिया लौट आया था। योग्य तो वह बहुत था, पर पता नहीं वहाँ क्या हो हुआ होगा। आंटी को फोन किए, ख़त डाले। कोई तसल्लीबख्श उत्तर ही मिले। समझ में नहीं आता था कि क्या करूँ। मैंने नागपुर में रहती अपनी एक रिश्तेदार को पता करने के लिए लिखा तो पता चला कि सुमीत डिप्रेशन में है। इलाज चल रहा है। इंग्लैंड में शायद वह ड्रग्ज़ के चक्कर में पड़ गया था। भाभी जी, यह जानकर मुझे बड़ा झटका लगा। सुमीत को मैं कितने वर्षों से जानती थी। आंटी-अंकल से भी सम्पर्क टूट-सा गया। वे भी शायद बड़े सदमे में थे। मेरी किसी चिट्ठी का जवाब नहीं देते थे। ऐसे ही दो साल बीत गए। मैं नागपुर गई और ही उधर से कोई ख़बर आई। एक दिन अचानक पता चला कि सुमीत ने गीता के साथ शादी कर ली है और मुम्बई चला गया है। ऐसे लगा जैसे किसी ने मेरे पर बम फेंक दिया हो और मेरे चीथड़े उड़ गए हों... लहुलूहान। अकेली, ज़ख़्मी, मछली की तरह छटपटाती। अब डिप्रेशन की मेरी बारी थी। माला दीदी मेरी मानसिक स्थिति समझती थी। उन्होंने मेरी इस उदासी में से निकलने में बड़ी मदद की।
               तू तो अभी भी नागपुर वाले अंकल आंटी के बहुत करीब है।
               हाँ, पूरे चार साल बाद मैं फिर नागपुर गई थी। आंटी बोली, मेरा क्या कसूर है। तू मेरी बेटी बनकर तो रह सकती है। गीता का अंकल-आंटी के व्यवहार ठीक नहीं, इसलिए वे मुम्बई में उनके पास खुश नहीं होते। गीता का पहला बच्चा हुआ तो आंटी गई थी। अंकल भी दो-एक बार हो आए होंगे। पर वहाँ उनका दिल नहीं लगता।
               विवाह के बाद तुझसे कभी मिला ?“ मैंने पूछा।
               हाँ, एक दिन यहाँ गया अकेला ही, अस्पताल में, मेरे कमरे में। अंदाजा लगाओ कि मेरी क्या हालत हुई होगी। मुझे तो कंपकंपी छिड़ गई। अजीब-सी स्थिति थी। वह डर था, खुशी थी या... रब ही जाने। शुक्र है, उस वक्त मेरे कमरे में कोई नहीं था। मेरी आँखों के आगे तो अँधेरा छा गया। अपने आप को संभालने में मुझे कुछ समय लग गया। वह मेज के उस तरफ मेरा हाथ पकड़कर खड़ा था। मैंने हाथ छुड़ाकर उसे बैठने को कहा।
               तू मुझे देखकर यूँ घबरा क्यों गई है, मानो सामने कोई भूत खड़ा हो।वह मुस्कराकर कह रहा था। मेरे मुँह से कोई शब्द हीं नहीं फूट रहा था। मेरे पूरे शरीर में झनझनाहट छिड़ी हुई थी।
               तू बहुत नाराज है मेरे से ?“ वह गंभीर होकर बोला।
               तू मेरी ओर ऐसे देख। कुछ तो बोल।
वह फिर मेरा हाथ पकड़कर याचना करने लगा। भाभी जी, ज़रा अंदाजा लगाओ उस समय क्या हुआ होगा।
मुझे अहसास हुआ कि वह सचमुच अब भी कांप रही है।
क्या हुआ ?“ मैंने उत्सुकता में पूछा।
तभी, दीपक जी कमरे में गए। उनके साथ उन दिनों में मैं अपना सारा दुख साझा कर देती थी। वह मुझे हिम्मत बंधाते थे। पता नहीं कैसे दीपक ने सुमीत को देखते ही पहचान लिया था। वे दोनों आपस में इस तरह बातें करने लग पड़े मानो कब से एक-दूसरे को जानते हों। तब तक मैं अपने आप को संभाल चुकी थी और चाय बनाने लग पड़ी थी। दीपक जी के जाने के बाद सुमीत अपनी सफाइयाँ देने लग पड़ा... हालात ऐसे हो गए... आदि आदि। वह बोला, तू मुझे माफ कर दे। मैं चुप ही रही। अब क्या शिकायत करती।
कुछ देर की चुप के बाद स्वाति बोली, “वह फिर अपना राग अलापने लग पड़ा। गीता बहुत गुस्सैल है। बड़ी सख़्त स्वभाव की है। मुझे अपनी जायदाद समझती है। मम्मी-पापा के साथ बिल्कुल बना कर नहीं रखती। बड़ी शकी स्वभाव की है। उसकी शिकायतों की लिस्ट लम्बी थी। मुझे लगा, उसकी बुराइयाँ करके वह मेरी सहानुभूति जीतने की कोशिश कर रहा है। मैंने कहा- सुन्दर है, स्मार्ट है, डॉक्टर है। फिर ब्राह्मण है, तुम्हारी अपनी जाति की। तुम्हें खुश होना चाहिए। वह बोला - उसे इन्हीं बातों का ही घमंड है।
मैं स्वाति के चेहरे के बदलते हाव-भाव को देखती रही।
करीब रखे पानी के गिलास में से छोटे छोटे घूंट भरती रही। फिर बोली-
भाभी जी, जाते समय बोला - मैं तेरे पास वापस आऊँगा। दूसरे दिन दीदी को मिलने घर गया। मैं अस्पताल से घर पहुँची तो वह बैठा था। भाभी जी, है तो बहुत मिलनसार, खुशमिजाज। दीदी के साथ हँस-हँसकर बातें कर रहा था। उसके जाने के बाद दीदी ने बताया कि उन्होंने सुमीत को बड़ी लाहनतें दी थीं कि सारी उम्र स्वाति तेरी प्रतीक्षा करती रही और तूझे वहाँ विवाह करवाते समय स्वाति का ज़रा भी ख़याल आया। इस पर वह सफाई देने लग पड़ा कि इंग्लैंड से वह बीमारी की हालत में नागपुर लौटा था तो गीता ने बड़ी मदद की थी। वगैरह-वगैरह।
स्वाति का पानी का गिलास खाली हो गया था। वह और पानी लेने के लिए उठी और पानी के दो घूंट भरकर बोली -
भाभी जी, पिछली बार जब चार साल बाद मैं नागपुर गई थी, गीता की माँ को मेरा वहाँ आना अच्छा नहीं लग रहा था। वह बहाना बनाकर बार बार जाती। आंटी बता रही थी कि वह वैसे कभी नहीं आती। वह तेरी जासूसी करने आती है।स्वाति हँसने लग पड़ी।
तेरे पर जासूसी किसलिए ?“ मैंने हैरान होकर पूछा।
वह पता लगाना चाहती थी कि मैं वहाँ कब तक हूँ क्योंकि सुमीत और गीता नागपुर आने वाले थे।
क्यों गीता तेरे से डरती है कि तू सुमीत को उससे छीन ले ?“ मैंने हँसकर पूछा।
शायद।स्वाति कुछ सोच में पड़ गई।
भाभी जी, उसके बाद सुमीत अपने काम के सिलसिल में कभी कभी दिल्ली आता रहता है। एक बार आकर मिल जाता है। एक दो बार मैं उसके साथ कनॉट प्लेस घूमने गई थी। एक फिल्म देखी थी। जब वह आता है तो लगता है कि मेरा कोईअपनाबड़ी मुद्दत के बाद मिलने आया है। थोड़ी खुशी, थोड़ी प्रसन्नता। जब चला जाता है तो फिर वही उदासी, वही वीरानगी, सूनापन, अकेलापन। भाभी जी, अब तो दीपक जी भी नहीं रहे, मेरे दुख बांटने वाले।
उसकी बातों ने मुझे भी उदास कर दिया।
(जारी…)