Friday 15 February 2013

उपन्यास



मित्रो, गत 26 जनवरी 13 को अपने दूसरे उपन्यास तेरे लिए नहीं की शुरुआत अपने इस ब्लॉग पर धारावाहिक प्रकाशन के लिए की थी। इस उपन्यास की दूसरी किस्त आपके समक्ष है। आशा है, पहले की तरह अपनी बेबाक टिप्पणी से मुझे अवगत कराते रहेंगे।
-राजिन्दर कौर 

तेरे लिए नहीं
राजिन्दर कौर
 
2

बबली की शादी के बाद स्वाति से कोई बात न हो सकी। एक दिन फोन किया तो सुजाता ने बताया कि स्वाति नागपुर काकी(आंटी) के पास गई है। वह बहुत बीमार है।
      स्वाति अक्सर नागपुर वाली आंटी की बात किया करती थी। मराठी चाची, ताई को 'काकी' कहते हैं और चाचा, ताऊ को 'काका'। लेकिन स्वाति मेरे साथ बात करते हुए 'आंटी' शब्द का ही प्रयोग करती थी। मैंने उसे बताया था कि पंजाबी में छोटे लड़के को काका और छोटी लड़की को काकी कहते हैं।
      नागपुर से स्वाति वापस आ गई तो उसने मुझे फोन किया।
      ''भाभी जी, आपको मिले बहुत दिन हो गए। एक दिन आ जाइए। आपका लंच मैं लेकर आऊँगी। मंजू भी आपको याद कर रही थी।''
      ''मेरी इलायची वाली चाय मिलेगी ?'' मैंने हँसते हुए पूछा।
      ''एक बार नहीं, दो बार। आप आइए तो सही।'' उसकी आवाज़ में इसरार था। मैंने 'हाँ' कर दी।
      दूसरे दिन ग्यारह बजे के करीब मैं उसके कमरे में पहुँच गई। उसने कॉटन की बड़ी सुंदर साड़ी बेहद सलीके से पहनी हुई थी। वही लम्बी चोटी, माथे पर छोटी-सी काली बिंदी।

      ''हमेशा की तरह तुम बहुत जच रही हो।'' मैंने मुस्करा कर कहा।
      ''आज आप भी बड़े फ्रेश लग रहे हो, भाभी जी।''
      ''अब मैं क्या फ्रेश लगूँगी, मेरी बात छोड़।'' उसके कमरे में हर वस्तु अपनी जगह पर थी। वह मेरे लिए पानी का गिलास ले आई और बोली-
      ''चाय का पानी उबल रहा है।''
      कमरे के एक कोने में चाय का सारा सामान पड़ा था।
      ''मंजू का फोन आया है, वह भी आने वाली है।'' वह कोने में चाय बनाने में व्यस्त हो गई।
      मंजू आई तो कसकर गले मिली। उसने मेरे बच्चों का हालचाल पूछा।
      ''भाभी जी, छोटे बेटे के पास अमेरिका कब जा रहे हो ?'' मंजू पूछने लग पड़ी।
      ''अभी जल्दी नहीं। पिछले साल ही तो होकर आई हूँ। बेटा यहीं आ रहा है।'' मैंने कहा।
      ''बहुत खूब ! उससे कहना, मंजू आंटी बहुत याद करती है। कभी हमें भी आकर मिले।''
      ''ठीक है, संदेशा दे दूँगी। वो इतने कम दिनों के लिए आते हैं, फिर मायके, ससुराल में सभी रिश्तेदारों से मिलना...। भाग-दौड़ में पता ही नहीं चलता, कब उनका जाने का समय आ जाता है।'' मैंने कहा।
      ''सही कह रहे हो। भाभी जी, मेरी बहन आती है तो वक्त यूँ ही पंख लगाकर उड़ जाता है।'' मंजू बोली।
      ''तू वहाँ जाने का सोच रही है ?'' मैंने पूछा।
      ''अभी तो नहीं। मैं भी तो पिछले ही साल होकर आई हूँ। फिर किराया भी तो खूब लग जाता है। और फिर बेटा अब बारहवीं में हैं। यह साल, आपको तो पता ही है, मेहनत तो खूब कर रहा है।''
      ''तेरा बेटा बहुत लायक है। फिक्र न कर। तेरी सेहत कैसी रहती है ?''
      ''बस यूँ ही। कुछ दिन ठीक गुज़र जाते हैं। फिर अस्थमा का हमला बेहाल कर देता है।''
      ''बहुत सारे लोग हैदराबाद जाते हैं, मछली वाला इलाज करवाने। तूने कभी सोचा है, वहाँ जाने के बारे में ?''
      ''भाभी जी, आपको तो पता ही है मैं पूरी शाकाहारी हूँ। शर्मा खानदान की। पता नहीं यह इलाज कितना साइंटिफिक है। यूँ ही अपना धर्म क्यों भ्रष्ट करूँ।'' वह खिलखिलाकर हँसने लग पड़ी।
      मेरा गंभीर चेहरा देखकर बोली, ''भाभी जी, मैं मजाक कर रही हूँ। इसमें धर्म-वर्म की कोई बात नहीं। मैं इतनी कट्टर नहीं हूँ, आप जानते ही हो। दीपक जी तो मेरे साथ हैदराबाद जाने के लिए तैयार हो गए थे। आपको पता है ?'' वह मुस्कराती हुई मेरी तरफ़ सवालिया नज़रों से देख रही थी।
      ''मेरे साथ तो उन्होंने इस बात का कभी जिक्र नहीं किया था। सोशल वर्कर थे। उनका काम था, दूसरों के काम आना।'' मैंने सहज होकर कहा। मैं उदास नहीं होना चाहती थी।
      स्वाति चाय बनाकर ले आई थी।
      ''स्वाति ज़िन्दाबाद।'' मंजू चाय का प्याला अपनी ओर सरकाते हुए बोली।
      ''स्वाति जैसी सेवा भावना हर एक में नहीं होती।'' मंजू चाय का एक घूंट भरकर बोली।
      ''इसके साथ का तेरे पर कुछ असर हुआ है ?'' मैंने पूछा।
      ''मैं मरीज़ हूँ... खैर ! यह काम मैं स्वाति से छीनना नहीं चाहती। क्यों स्वाति ? आज 'सर' चाय पीने आए कि नहीं ?'' मंजू की आँखों में से शरारत झलक रही थी।
      ''डॉक्टर गुप्ता आए थे, तुझे खोजते हुए।'' स्वाति ने नहले पर दहला मारा।
      ''वो तो पागल हैं।'' मंजू मुस्कराती हुई बोली।
      ''पागल नहीं, दीवाने।''
      ''उसकी बात न किया कर।''
      ''अंदर से तो तू खुश होती है।''
      दोनों की चुहलबाज़ी चल रही थी। तभी कमरे का पर्दा किसी ने हटाया और हमें देखकर तुरंत ही चला गया।
      ''ओ हो ! सर का चाय पीने का चांस मारा गया।'' मंजू बोली, ''चलो, मैं चलती हूँ। राउंड पर जाना है। स्वाति, चाय का धन्यवाद। भाभी जी, लंच के समय मिलेंगे।'' और वह हवा की तरह बाहर निकल गई।
      ''यह सर का किस्सा क्या है ?'' मैंने उत्सुकता से स्वाति से पूछा। डॉक्टर गुप्ता के बारे में तो दीपक ने मुझे बताया था कि वह मंजू के भक्त हैं।
      ''कुछ भी नहीं भाभी जी। सर कभी-कभी चाय पीने आ जाते हैं।''
      ''सर कौन ?''
      ''सुपरिटेंडेंट साहब। अब उन्हें मैं मना कैसे करूँ। लोग बातें बनाने लग पड़े हैं। वैसे सर मुझे कुछ कहते थोड़े न हैं। बस, आकर कुछ गप्प-शप्प मारते हैं। पर लोगों को अच्छा नहीं लगता।''
      ''तुझे उनका साथ अच्छा लगता है, सच बताना ?''
      ''बस, बातचीत ठीक है। इतना बुरा नहीं लगता। पर अब मना करना पड़ेगा क्योंकि अस्पताल में काम करते कई लोग व्यंग्य कसने लग पड़े हैं। लोगों को किसी का ज़रा-सा सुख भी पचता नहीं।''
      एक बुजुर्ग़ मरीज़ और साथ में उसकी बेटी या कोई और रिश्तेदार कमरे में आ जाने के कारण बात बीच में ही रह गई। उन्हें किसी डॉक्टर ने स्वाति के पास भेजा था। उस औरत को डॉयबटीज़ का रोग था। स्वाति ने पहले उसका वजन लेने के लिए उसे मशीन पर खड़ा किया। फिर डॉक्टर की रिपोर्ट देखी। उसके बाद मरीज़ से उसकी खुराक के बारे में कुछ प्रश्न किए। जवाब मरीज़ कम दे रही थी, उसके संग आई लड़की अधिक दे रही थी। मरीज़ औरत बहुत मायूस दिख रही थी। लड़की भी बहुत चिंतित थी। शायद बीमारी का अभी-अभी ही पता चला था या बीमारी अधिक बढ़ गई थी।
      ''आपको अपना वजन कम करना पड़ेगा। रोज़ की सैर बहुत ज़रूरी है। जितनी सैर हो सके, करो। खाने में परहेज करना पड़ेगा।'' स्वाति ने एक चार्ट लड़की को पकड़ा दिया और जुबानी भी बताती रही कि क्या खाना है और क्या नहीं खाना।
      ''देखो, अगर परहेज नहीं रखोगे, सैर नहीं करोगे और दवाई लगातार नहीं खाओगे तो नतीजा ठीक नहीं होगा। यह बीमारी आपके शरीर को अंदर ही अंदर नुकसान पहुँचाती रहती है। आप इसे कंट्रोल में कर सकते हो।'' अभी स्वाति मरीज़ के साथ बात कर ही रही थी कि रसोई में से एक ट्रे में खाना लेकर एक औरत आ गई।
      मरीज़ के जाने के बाद स्वाति ने खाने की एक एक चीज चखी और फिर एक कागज पर दस्तख़त कर दिए। स्वाति ने उसको किसी का नाम लेकर कहा कि उसको भेज दे। पाँच मिनिट बाद ही एक अन्य औरत आ गई और सिंक में पड़े चाय के बर्तन साफ़ करने लग पड़ी। मैं पहले भी कई बार इस कमरे में आकर बैठी हूँ, चाय पी है। स्वाति खुद ही बर्तन धो लेती थी। आज यह परिवर्तन देख मैं थोड़ा हैरान हुई।
      स्वाति के पास कोई न कोई मरीज़ आए जा रहा था। मैं एक मैग़जीन के पृष्ठ पलटने लग पड़ी। उसमें सेहत के बारे में, बीमारियों के बारे में, परहेज के बारे में कितने ही लेख थे। इतनी बीमारियों के बारे में पढ़कर मैं घबरा गई थी। बीमारियों के लक्षणों के बारे में पढ़कर मुझे यूँ लगने लग पड़ा मानो आधी से अधिक बीमारियों की शिकार तो मैं खुद हूँ। मेरा दम घुटने लगा। मैंने वह पत्रिका बंद कर दी और कमरे से बाहर ताज़ी हवा लेने के लिए आ खड़ी हुई।
      बाहर मुझे मिसेज सूरी मिल गई। मुझे देखकर वह एकदम ठिठक गई। वह नर्सिंग कक्षाओं को पढ़ाती है। जल्दी में वह शायद क्लास लेने ही जा रही होगी। वह दीपक को भी बहुत बार अपनी क्लास में ले जाती थी। पहले से ही कोई विषय बता देती थी कि वह उस विषय पर बोलेगा। वह अधिकतर मनोविज्ञान से संबंधित विषय लिया करता था। जिस दिन वह पढ़ाकर घर लौटता, उसके चेहरे पर एक अलग ही चमक होती। मंजू दीपक को इस क्लास को लेकर छेड़ती रहती।
      ''भाभी जी, दीपक जब क्लास लेकर आते हैं, चेहरा तप रहा होता है। लड़कियाँ 'सर' 'सर' करतीं पीछे पीछे सवाल पूछने आती हैं।'' मंजू मुझे बताया करती थी।
      ''भाभी जी, आज इधर किधर ? ठीक हो न ? सेहत कैसी है ?'' मिसेज सूरी के चेहरे से चिंता झलक रही थी।
      ''मैं ठीक हूँ। तुम सबसे मिलने के लिए दिल कर रहा था।'' मैंने मुस्कराते हुए कहा।
      ''उधर आ जाना, थोड़ी देर तक, मेरे कमरे में। मैं अभी क्लास लेने जा रही हूँ।''
      ''ठीक है।''
      वह तेज़ी से हाथ मिलाकर क्लास की ओर चली गई।
      मैं स्वाति के कमरे में पहुँची तो वह लंच के लिए मेज़ सैट कर रही थी। प्लेटें, चम्मच, पानी और गिलास। हीटर पर सब्ज़ी गरम हो रही थी। उसने टिफिन में से सलाद, दही निकालकर सब मेज़ पर लगा दिए थे।
      ''खुशबू बहुत बढ़िया आ रही है।'' मैंने कहा।
      ''भाभी जी, आज आपको मराठी स्टाइल का खाना खिलाऊँगी। जानते हो थाली पीठ ?''
      ''कुछ कुछ जानती हूँ। बंबई जाती हूँ तो छोटी भाभी मराठी, मद्रासी सब तरह का भोजन करवाती है। बस, नाम लेने की देर है। जितने दिन वहाँ रहो, तरह तरह के पकवान, कभी ढोकला, कभी उतपम, कभी डोसा, इडली या रगड़ा पैटिस...।''
      ''वाह ! बंबई में खूब मौजें करते हो।''
      ''मुझे इतना तो पता है कि थाली पीठ कई चीज़ों के मिश्रण से तैयार किए आटे की रोटी होती है। सेहत के लिए बहुत अच्छी। पर इसमें कौन कौन-सा आटा मिलाते हैं ?''
      ''ज्वार, बाजरा, चने का आटा...।''
      तभी, मंजू अपना लंच बॉक्स लेकर आ गई तो स्वाति की बात बीच में ही रह गई। स्वाति ने मंजू के फुलके और सब्ज़ी भी गरम कर दिए। मैं भी घर से कुछ न कुछ बनाकर लाया करती थी, पर आज मैं सिर्फ़ फल लेकर आई थी।
      मंजू बोली, ''सुजाता दीदी, खाना कमाल का बनाती है।''
      ''सुजाता का क्या हाल है ? उस दिन बबली के विवाह पर उसने अमृता के साथ अच्छी दोस्ती कर ली थी।'' मैंने कहा।
      ''सुजाता दीदी का क्या हाल होगा ! वही जो पहले था। सबकी सेवा में लगी हुई है।''
      ''बबली कहाँ है आजकल ? ससुराल में या...''
      ''भाभी जी, बबली जैसी लड़कियाँ ससुराल में कहाँ रह सकती हैं। बस, कुछ समय के लिए जाती ज़रूर हैं, कभी कभी। उसे कोई काम करने की आदत तो है नहीं। यहाँ माला दीदी के घर सबकुछ किया कराया मिल जाता है। रौब से रहती है।''
      ''उसका पति अनिल ?''
      ''वह आता जाता रहता है। उसने कम्प्यूटर कोर्स करना शुरू किया है।''
      ''उसकी डिलीवरी कब है ?''
      ''नवंबर में।''
      वह छोटे वाक्यों में उत्तर दे रही थी। लगता था, वह उनके बारे में अधिक बात नहीं करना चाहती थी।
      लंच के बाद मंजू ने पूछा, ''भाभी जी, मेरे कमरे में आओगे ?''
      मैंने उसकी तरफ देखकर 'ना' में सिर हिला दिया।
      ''अच्छा, फिर मैं काम निपटाकर आऊँगी। ठीक है।''
      मैंने 'हाँ' में सिर हिला दिया। दीपक भी उसी कमरे में बैठता था। उस कमरे में जाकर मुझे बेचैनी-सी होने लगती है। यादों का सिलसिला...।
      मैं अपना ध्यान दूसरी ओर लगाने के लिए स्वाति से बात करने लग गई।
 (जारी…)