Wednesday 15 August 2012

उपन्यास




मित्रो, आज स्वतंत्रता-दिवस है, हिंदुस्तान की आज़ादी का दिन। परतंत्रता की बेड़ियों से छुटकारा दिलाने वाला दिन। हमारा देश अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद हो गया… पर क्या हम सही मायने में आज़ाद हुए… माना हमारे देश ने बहुत उन्नति की है, विकास भी हुआ है, परन्तु अभी भी गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, जातिवाद, ऊँच-नीच, सांप्रदायिकता, पारस्परिक वैमनस्य का कोढ़ हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा। आज आपसी भाईचारा और सौहार्द का वातावरण कम हुआ है, पैसे की भूख बढ़ी है, अपराध बढ़े हैं, स्त्री आज भी अपमानित है, बलात्कार हो रहे है, उन्हें जलाया-मारा जा रहा है, भ्रूण-हत्याएँ हो रही हैं… जब हमारे देश से यह सब खत्म होगा, तभी हम असल में आज़ाद होंगे… ये काम केवल सरकारों का ही नहीं है, हमारा और आपका भी इसमें योगदान ज़रूरी है। किसी भी देश का चरित्र सरकारों के बलबूते ही नहीं बनता, वहाँ की जनता भी उसे बनाती है।

मेरे उपन्यास परतें की अब तक दस किस्तें आपके समक्ष आ चुकी  हैं। उन पर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ भी मुझे प्राप्त हो चुकी हैं। यह एक लेखक के लिए बेहद सुकून की बात होती है कि पाठक उसकी रचना को पसन्द कर रहे हैं। लीजिए, अब आपके समक्ष प्रस्तुत है, उपन्यास की ग्यारहवी किस्त… फिर उसी उम्मीद और विश्वास के साथ कि आपको यह किस्त भी पसन्द आएगी और आप अपने विचार मुझसे नि:संकोच साझा करेंगे।

आप सबको स्वतंत्रता-दिवस की बधाई और शुभकामनाएं

-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर


11

बंगलौर में जब वे जस्सी की मौसी के घर पहुँचे तो मौसी ने जस्सी को कसकर बाहों में भर लिया और उसे गोल-गोल घुमाती रही। कभी आँखें भर लेती, कभी जस्सी के सिर पर प्यार भरा हाथ फेरने लगती। संदीप भी मम्मी-मौसी के परिवार के साथ खूब रच-बस गया।
      बंगलौर में रघुबीर को कुछ अपने काम थे। वह टैक्सी लेकर चला जाता। संदीप और जस्सी को मौसी ने एक कार और एक ड्राइवर दे दिया था। वे बंगलौर शहर के बाग-बगीचे, झीलें और मंदिरों का चक्कर लगाते रहते।
      जस्सी को नंदी हिल जाना बहुत पसंद था। वहाँ राह में चारों ओर हरियाली, बलखाती सड़कें, ठंडी हवाएँ थीं।  मुम्बई के भीड़-भाड़ वाले शोर से दूर वह बहुत खुश थी। संदीप ने ड्राइवर को हिंदी गानों की एक कैसेट लगाने के लिए दे दी थी। गाने बहुत पुराने थे, बड़े रोमांटिक और उदास भी।
      ''सीने में सुलगते हैं अरमान, आँखों में उदासी छाई है...।''
      जस्सी ने हैरानी से संदीप की तरफ़ देखा। वह मम्मी का हाथ पकड़कर मुस्करा पड़ा।
      अगला गाना था-
      ''मेरे गीतों में तुम... मेरे ख्वाबों में तुम...''
      ''तू ये पुराने गाने कहाँ से ले लाया है।'' जस्सी ने संदीप के चेहरे की ओर देखते हुए पूछा।
      ''ये गाने तो मैंने आपके लिए लगाए हैं।''
      ''अच्छा ! मेरा बड़ा ख़याल है। शुक्रिया।'' वह मुस्करा कर बोली।
      एक दिन वे बंगलौर के एक हिस्से में गए, जहाँ बरगद का एक बहुत ही बड़ा और पुराना पेड़ था। वह पेड़ तीन एकड़ ज़मीन में फैला हुआ था। जस्सी ने यह पेड़ पहले कभी नहीं देखा था। उस दिन रघुबीर भी उनके साथ था। उस पेड़ के लम्बे तने देख देखकर वे हैरान और खुश होते रहे।
      लाल बाग में फूल, पौधे, झाड़, झाड़ियाँ, पेड़ देखकर जस्सी बोली -
      ''संदीप, तू जानता है कि बंगलौर को 'गार्डन सिटी' कहते हैं।''
      ''सच, मम्मी बड़ा मज़ा आ रहा है। यहाँ की हरियाली देख मन प्रसन्न हो रहा है।'' संदीप बोला।
      एक दिन वह रघुबीर के साथ खरीदारी करने निकल गए। उन्होंने बीजी के लिए, चाचियों के लिए और प्रीती के लिए कांचीपुरम सिल्क के सूट और साड़ियाँ खरीदीं।
      टीपू सुल्तान का महल देखने गए तो जस्सी संदीप को टीपू सुल्तान की अंग्रेजों से टक्कर का सारा इतिहास बताने लग पड़ी।
      ''मम्मी, आपने तो राजनीति शास्त्र में पढ़ाई की है, आपको इतिहास का भी काफ़ी ज्ञान है। वैसे स्कूल में मैंने भी टीपू के बारे में पढ़ा है, पर कुछ भी याद नहीं।'' वह हँसने लग पड़ा।
      मैसूर में वृंदावन गार्डन के पानी के फव्वारे और झिलमिल रोशनी में तीनों मस्ती के रंग में घूमते रहे। मैसूर का राजमहल देखने के पश्चात् वे मंगलूर की ओर चले गए। राह में बहुत ही घने दरख्तों के झुंड देख वे हैरान रह गए। ड्राइवर ने बताया कि ये काली मिर्च, नारियल, सुपारी और कॉफ़ी के पेड़ हैं।
      बंगलौर वापस लौटे तो रघुबीर के एक दोस्त ने ताज पैलेस होटल में इन तीनों को रात के खाने के लिए आमंत्रित किया। रघुबीर का वह दोस्त स्वयं सरदार था, पर उसकी पत्नी कन्नड़ थी। उसी होटल में काम करते एक अन्य सरदार लड़के से मुलाकात हो गई। उसकी पत्नी गोवा से थी। उसने रघुबीर के परिवार को एक जोड़े से मिलवाया। आदमी बहुत बढ़िया, ठेठ पंजाबी बोल रहा था। बातों बातों में पता चला कि वह आदमी तमिल है। वह दिल्ली का जन्मा-पला था और पंजाबियों का पड़ोसी रहा था। यही कारण था कि वह पंजाबी इतनी अच्छी बोल सकता था।
      वहीं जस्सी को एक लड़की से मिलवाया गया जो उसी होटल में काम करती थी, नाम था - शबनम। थोड़ी सांवली थी, पर नयन-नक्श बहुत तीखे थे। खूब हँसती थी हर बात पर। वह बहुत शीघ्र जस्सी के साथ घुलमिल गई। उसने जस्सी को बताया कि उसको होटल की नौकरी ज्यादा पसन्द नहीं। न ही उसको अपनी अम्मी और बड़ी बहन की तरह बुर्का पहनना पसन्द है। उसके दो भाई सउदी अरब में हैं, पर वह वहाँ नहीं जाना चाहती।
      उस रात डिनर के बाद जस्सी बहुत खुश थी, इतने प्रकार के लोगों से मिलकर।
      अगले दिन वह गोवा के लिए रवाना हो गए। संदीप उस दिन अकेला ही घूमने निकल गया। रघुबीर और जस्सी होटल में इकट्ठे बैठकर बात कर रहे थे। तभी रघुबीर ने कहा, ''तेरे साथ एक बात करनी है।''
      ''किस बारे में ? क्या ?'' वह घबराई हुई आवाज़ में बोली।
      ''तू तो पहले ही घबरा गई है। बात क्या सुनेगी।'' रघुबीर मुस्करा कर बोला।
      ''नहीं, नहीं। ऐसी कोई बात नहीं। तुम बताओ। कोई चिंता की बात तो नहीं ?'' वह उत्सुक निगाहों से उसकी ओर देखने लग पड़ी।
      रघुबीर ने अपनी एक बांह जस्सी के कंधे के गिर्द कर ली और बहुत संभल कर धीमे स्वर में बोला-
      ''संदीप ने मुझे बताया है कि वह किस लड़की को पसन्द करता है।''
      ''अच्छा! माँ को नहीं बताया।'' ठंडी आह भरकर वह बोली, ''कौन है वो ?''
      ''तू उससे मिल चुकी है।'' घूरती नज़रों से रघुबीर ने जस्सी की ओर देखते हुए कहा।
      ''अब बुझारतें न डालो। बताओ प्लीज़!'' वह मिन्नत-सी करते हुए बोली।
      ''उसका नाम रश्मि है।'' धड़कते दिल से रघुबीर ने बताया।
      ''हाँ, एक बार वो हमारे घर आई थी। लड़की तो प्यारी है देखने में, बोल चाल में भी अच्छी है। संदीप तो कह रहा था कि वह उसकी दोस्त है बस।''
      ''हाँ-हाँ, दोस्त ही थी। अब वह उसके साथ विवाह करना चाहता है।''
      ''पर वह है कौन ? उसके माँ-बाप कौन है ? कुछ बताया है उसने ?'' जस्सी उतावली-सी होकर पूछा।
      ''तू एक बार एक प्रदर्शनी देखने गई थी - जहाँगीर आर्ट्स गैलरी... यह उसी ज्योति मरवाह की बेटी है।''
      ''यह तो मुझे पता है। पर ये ज्योति कौन है ? वे लोग कौन हैं ? एक बार उनसे मिलकर पता तो करना ही पड़ेगा।'' जस्सी रघुबीर की ओर देखते हुए बोली।
      रघुबीर की चुप्पी और रघुबीर के चेहरे के भाव देखकर जस्सी का माथा अचानक ठनका - ''कहीं यह वही ज्योति तो नहीं तुम्हारे वाली ?'' अब जस्सी के चेहरे पर घबराहट, उलझन, तनाव साफ़ झलक रहा था। उसकी आवाज़ का सुर एकाएक ऊँचा हो गया था। वह बेसब्री से रघुबीर के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी।
      कुछ पल की ख़ामोशी के बाद बड़े धैर्य से रघुबीर ने जस्सी के ओर सीधा देखते हुए कहा-
      ''हाँ, यह वही ज्योति है।''
      कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया। एक लम्बा अरसा बीत गया।
      ''सो, जिसे तुम आप हासिल नहीं कर सके, उसके साथ रिश्ता गांठने का यह अच्छा तरीका है। वाह खूब! इसका मतलब, तुमने उसके साथ कंटेक्ट बनाए रखा। इतने वर्षों में मुझे कुछ भनक तक नहीं पड़ी। वाह, भई वाह! क्या कहने ? पहला प्यार! ज़िन्दाबाद!  मुझे तो पहले ही शक था।'' जस्सी की आवाज़ में तल्ख़ी थी, गुस्सा था, बेबसी थी। कुछ देर अंट-शंट बोलकर वह चुप हो गई। फिर रोने लग पड़ी। रघुबीर ने उसके साथ बात करनी चाही, पर उसने उसकी एक न सुनी। प्रत्युत्तर में चीखकर रघुबीर को उसने चुप करवा दिया।
      रघुबीर को यह तो पता था कि जस्सी इस बात को आसानी से हज़म नहीं कर सकेगी, पर उसको यह भी विश्वास था कि अब उम्र के साथ साथ जस्सी में ठहराव आ गया होगा और वह इस बात को धैर्य से सुनेगी और समझने की कोशिश करेगी।
      जस्सी सिसकियाँ लेकर रो रही थी। रघुबीर ने बहुत कोशिश की उसको शांत करने की, पर बिलकुल नाकाम रहा।
      सिसकियों भरी आवाज़ कुछ कम हुई तो रघुबीर ने बोलना शुरू किया -
      ''मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि ज्योति की बेटी भी उसी कालेज में पढ़ती है, जिसमें संदीप पढ़ रहा था। मैंने तो ज्योति की बेटी को देखा तक नहीं। अब जब संदीप ने मुझे उस लड़की के बारे में बताया तो मुझे बड़ा शॉक लगा। मैं ज्योति के टच में बिलकुल नहीं था। मैं अपने कारोबार में इतना व्यस्त हो गया था... फिर ज्योति की अपनी ज़िन्दगी थी।'' रघुबीर बोलते बोलते रुक गया। अब जस्सी की सिसकियाँ बन्द हो गई थीं। परन्तु अभी भी वह आँखों पर बांह रखकर बगैर हिले-डुले बिस्तर पर अधलेटी हालत में पड़ी थी।
      जस्सी ने कोई हुंकारा न भरा तो रघुबीर ने फिर कहना प्रारंभ किया - ''इतने दिनों से मैं संदीप को संग लेकर घूम रहा हूँ। यही बात समझाने का यत्न कर रहा हूँ कि वह उस लड़की का ख़याल छोड़ दे, पर वह मेरी बात ही नहीं सुनता। वह कहता है कि वह कोर्ट मैरिज कर लेगा।'' रघुबीर ठंडी आह भरकर फिर चुप हो गया।
      जस्सी न हिली, न डुली। न उसने आँखों पर से अपनी बांह हटाई।
      ''मुझे विवश होकर अपने बारे में सारी बात संदीप को बतानी पड़ी। वह यह सुनकर और ज्यादा जिद्द में आ गया है। मैं खुद परेशान हूँ...। क्या मैं भी भापा जी की तरह घर छोड़कर चला जाऊँ ? कोई ऐसा नाटक करूँ ताकि वह पिघल जाए और उस लड़की को भुला दे...।'' रघुबीर बोलते बोलते थककर चुप हो गया। जस्सी की ओर से उसे कोई हुंकारा न मिला तो वह भी आँखें मूंद कर करवट लेकर लेट गया।
      कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। तब जस्सी ने अपनी चुप तोड़ी।
      ''अब बाप-बेटा मेरे सामने कहानियाँ न घड़ो। मैं सब बात समझ गई हूँ। तुम उस चुड़ैल को भुला नहीं सके तो अन्दर ही अन्दर संदीप और उसकी लड़की को करीब लाने की योजनाएँ बनाते रहे ताकि ज्योति के साथ खुलकर मिल सको। तुमने मुझे कभी प्यार ही नहीं किया, तभी मुझसे खिंचे-खिंचे से रहते हो। मैं संदीप का उस लड़की से विवाह हर्गिज़ नहीं होने दूँगी। मैं ज़हर खा लूँगी। उस लड़की को अपने घर में कभी भी घुसने न दूँगी। सुन लो... मेरी यह बात भी पत्थर पर लकीर की तरह है।''
      रघुबीर चुप ही रहा। क्या कहता ?
(जारी…)

6 comments:

  1. आदरणीया राजिन्दर कौर जी, स्वतंत्रता दिवस की आपको भी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं… आपके उपन्यास की 11 वीं किस्त पढ़ी। पता नहीं हम औरतें दूसरी औरत से इतनी ईर्ष्या और डाह क्यों रखती हैं… एक औरत की स्वाभाविक मनोवृत्ति को आपने जस्सी के माध्यम से दर्शाने की सफ़ल कोशिश की है… अच्छा लगा यह अंश भी…

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  2. aapke har upanyaas ansh men kuchh nayaa padne ko milta hai,aur yahii iski saphalta ka rahasya bhee hai esaa mujhe kaee baar mehsoos hota hai.sundar.

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  3. इतना वक्त गुजर चुका लेकिन जस्सी अब भी ज्योति को न भूल सकी और न मन से इर्ष्या को निकाल सकी. इस कड़ी से एक सीख ज़रूर मिलती है कि कई बार माँ बाप ज़िदवश अपने संतान की पूरी ज़िंदगी दुखद बना देते हैं. रघुवीर और जस्सी कभी सामान्य जीवन न जी सके. आगे देखना है कि ज़हर खा लेने की धमकी देती जस्सी क्या रूप अख्तियार करती है. बेटे की जीत होती है या माँ की. रघुवीर का अतीत ये कैसे मोड़ पर ले आया. अगली कड़ी की प्रतीक्षा में... सादर शुभकामनाएँ.

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  4. उपन्यास सही दिशा में चल रहा है. आगे की किस्त की प्रतीक्षा रहेगी.

    चन्देल

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  5. kaafi aachaa aur interesting lagaa pad kar, mai to aapkey blog me nayi hoon, is kisht se hi shuraat ki hai,

    per jis tarah, pakey chaaval ki deg me se, ek chaaval nikaal kar hi samajh aa jaata hai ki baaki deg kasi hogi so hi aaj aapki ye kisht pad kar lagaa .....very interesting;

    women feelings ko samajhna maayne rakhtaa hai, oonhey likhna aur bhi badi baat hai,

    aapke is dam dar muddey per ek sher arz kar rahi hoon....ijaazat dijiyegaa....

    CHOTTI SI JHONPADI THI KHUSHI KI
    AABO HAVAA THI VAHAAN SUKOON KI
    JALAN KI ZARAA SI CHINGAARI KYAA LAGI
    SULAG GAYI JONPADI, HAVAAYEN OOMAS BHARI...


    aapki aagli kishat kaa intezaar rahega, ..

    regards.
    -renu ahuja.

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