Saturday 3 November 2012

उपन्यास



मित्रो, उपन्यास परतें की 16वीं किस्त आपके समक्ष है। कभी कभी हम जीवन में अपनी कुछ ग़लतफ़हमियों का शिकार होकर ज़िन्दगी के बहुत से खूबसूरत पलों को अपने से दूर कर देते हैं और जब होश आता है तो सिवाय पश्चाताप के कुछ हाथ नहीं आता। अपनी रीढ़ को सीधा रखना और गर्दन न झुकाना बेशक स्वाभिमान का पर्याय माना जा सकता है, पर जीवन में ऐसे बहुत से बेशकीमती पल होते हैं, जिन्हें पाने के लिए, उनका आनंद लेने के लिए, ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाने के लिए, हमें अपनी रीढ़ को कुछ लचीला भी बनाना पड़ता है। आखिर जस्सी ने अपनी जिद्द को छोड़ अपनी बहू रश्मि को अपनाना शुरू किया, यह परिवर्तन जीवन का ही एक अहम हिस्सा है। ऐसे परिवर्तन जीवन में न हों तो जीवन शुष्क और उबाऊ हो जाएगा।
आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर
16

एक दिन सुबह-सवेरे रश्मि की तबीयत बहुत खराब हो गई। डॉक्टर को घर बुलाया गया तो पता चला कि घर में एक नया जीव आने वाला है। सब बहुत खुश थे। अब संदीप सुबह के समय काम पर देर से जाता। वह अपने हाथों से फल काटकर रश्मि को देता। शाम को भी जल्दी लौटने की कोशिश करता। एक दिन संदीप के जाने के बाद जस्सी रश्मि को मुँह चिढ़ाकर बोली-
      ''हूँह ! मेरा बेटा तो जोरू का गुलाम हो गया।''
      रश्मि चुपचाप उठकर अपने कमरे में चली गई। न चाहते हुए भी उसकी आँखे सजल हो उठीं।
      एक दिन जस्सी अवसर मिलते ही बोली, ''तू क्या दुनिया से हटकर बच्चा पैदा करने वाली है। आजकल महारानी की तरह सेवा करवा रही है।''
      रश्मि प्रयत्न करती कि ये बातें वह दिल पर न लगाए, पर ऐसे कटु वचन उसको अन्दर तक ज़ख्मी कर देते। वह आजकल अपना अधिक से अधिक समय संगीत की तरफ लगाती।
      ''मैं कुछ दिन के लिए मम्मी-पापा के पास जाना चाहती हूँ।'' एक दिन रश्मि ने संदीप से कहा।
      ''क्यों ?''
      ''मेरा दिल कर रहा है। जब से विवाह हुआ है, मैं कभी भी एक दिन से अधिक मम्मी के पास नहीं रही। प्लीज़...।''
      ''ओ.के.। तैयार हो जाना। शाम को छोड़ आऊँगा।''
      जस्सी ने तो यह बात अनसुनी कर दी। पर जाने से पहले वह दादी जी को मिलने गई तो उन्होंने कहा, ''बेटा, तेरे बग़ैर घर में रौनक ही नहीं रहेगी। पर तेरा दिल है तो चली जा। फिर जल्दी आ जाना।'' उसका माथा चूमते हुए दादी ने कहा।
      शाम को संदीप रश्मि को उसके मायके छोड़ आया। ज्योति बहुत खुश थी। अब ज्योति और रश्मि अपना सारा वक्त एकसाथ बितातीं। रश्मि के पिता सवेरे ही काम पर निकल जाते। ज्योति और रश्मि की पसंद लगभग एक-सी ही थी। वह कभी किसी चित्रकला प्रदर्शनी में जा रही होतीं, तो कभी किसी संगीत सम्मेलन में।
      शाम के समय संदीप फुर्सत पाकर अक्सर ही रश्मि की ओर चला जाता। कई बार रात भी वहीं ठहर जाता। घर में अपनी मम्मी को ख़बर अवश्य कर देता। रश्मि के पापा और संदीप की बातों का विषय अधिकतर क्रिकेट या राजनीति होता। रघुबीर फोन करके रश्मि का हाल पूछ लेता। रश्मि दादी जी और चाचियों को अक्सर ही फोन करती रहती, परन्तु जस्सी मम्मी को फोन न करती। अंदर ही अंदर उसका दिल चाहता कि कभी जस्सी मम्मी फोन करके उसका हाल पूछ लें, पर उसकी यह इच्छा पूरी न हुई।
      एक रात खाने की मेज़ पर जब सभी बैठे थे तो मनजीत सिंह जस्सी की तरफ़ देखकर बोले-
      ''जस्सी बेटे, रश्मि को कब ला रहे हो ?''
      जस्सी बोली, ''न वो मेरे से पूछ कर गई है, न ही मेरे कहने पर आएगी।''
      ''तू एक बार कहकर तो देख।'' प्रेम ने कहा।
      ''इस हाल में उसका खुश रहना चाहिए, नहीं तो बच्चे पर असर पड़ेगा।'' रघुबीर बोला।
      ''यहाँ उसको नाखुश कौन करता है ? अगर वह वहाँ अधिक खुश है तो वहीं रहे, अभी।'' जस्सी बुदबुदाती हुई वहाँ से उठकर चली गई।
      जस्सी, सास-ससुर के सामने ऐसे कभी नहीं बोली थी, मुँह बेशक फुलाये रखे। सब एक दूसरे के चेहरों की ओर हैरानी से देखते रहे। कुछ पल की चुप्पी के बाद संदीप बोला-
      ''मैं एक दो दिन बाद रश्मि को ले आऊँगा।''
      ''मुझे भी संग ले चलना संदीप बेटे।'' प्रेम बोली।
      दो दिन बाद संदीप और प्रेम रश्मि को लेने गए तो उसका अभी आने को दिल नहीं कर रहा था, पर दादी जी को वह कुछ कह ही नहीं सकी।
      घर आकर फिर वही रूटीन शुरू हो गई। रश्मि गानों के कैसेट लगाकर सुनती रहती। जब दादी के पास आकर बैठती तो कीर्तन की कैसेटें लगा देती।
      इस बार वह मम्मी के पास रहकर क्रोशिया चलाना सीख आई थी। वह गाने सुनते हुए क्रोशिये से एक महीन लैस बनाती रहती। जब लैस बन गई तो दादी को देते हुए बोली-
      ''दादी जी, यह लैस मैंने आपके लिए बनाई है। दुपट्टे पर लगवा लेना।''
      चाची ने उसका माथा चूमकर उसको गले से लगा लिया।
      ''बहुत सुन्दर है। पर बेटी, इसे मम्मी को देना था। वो खुश हो जाती।''
      ''दादी दी, मम्मी जी मुझसे कभी खुश नहीं हो सकते। चाहे मैं अपनी जान...।'' रश्मि की आवाज़ भारी हो उठी थी।
      ''न बेटा, ऐसे अशुभ बोल मुँह से मत निकाल। ईश्वर की कृपा से सब ठीक हो जाएगा।'' दादी ने उसको अपने गले से लगाकर कस लिया। रश्मि फूट फूटकर रोने लग पड़ी।
      दादी ने रश्मि को सदैव हँसते-चहकते ही देखा था। उसके चेहरे पर कभी मलाल नहीं देखा था। उसको इस प्रकार हिचकियाँ भरकर रोते देख दादी का दिल दहल गया। उस दिन उसने रश्मि को अपने कमरे में ही खाना मंगवाकर खिलाया। वहीं दादी की कमरे में ही दोपहर को रश्मि की आँख लग गई।
      रश्मि को सोता छोड़कर वह जस्सी के कमरे में चली गई। वह टी.वी. पर कोई कार्यक्रम देख रही थी। जस्सी भौंचक्क-सी सास के चेहरे की ओर देखने लगी।
      ''जस्सी, तू जो व्यवहार रश्मि के संग कर रही है, वो ठीक नहीं। न उसके लिए, न ही उसके बच्चे के लिए। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। वैसे यह बता कि तू उसको किस बात की सज़ा दे रही है। अच्छा तो यही है कि तू उसको गले लगा ले, नहीं तो संदीप भी तेरा नहीं रहेगा। यह बात याद रखना। ज़िन्दगी दिल में गाँठें बाँधकर नहीं चल सकती। तू समझदार है। रश्मि की कद्र कर। वह गुणवान लड़की है। प्यार करेगी तो प्यार पाओगी। मेरी ये बातें पल्ले बाँध ले...।''
      खड़े खड़े ही एक ही साँस में प्रेम यह सब कहकर बाहर चली गई। जस्सी हैरान-सी बुत बनी, कुछ देर बैठी रही। भारी मन से उठकर वह टैरेस पर आई और कितनी ही देर बाहर सड़क पर टकटकी लगाकर ट्रैफिक और आते-जाते लोगों को देखती रही। चौराहे पर ट्रैफिक जैम था। कुछ देर बाद हरी बत्ती होने पर बसें, कारें, टैक्सियाँ फिर अपनी गति से चलने लगीं। जस्सी की आँखों में से अपने आप आँसू बह निकले। कितनी ही वह चुपचाप रोती रही। जब मन कुछ हल्का हुआ तो टैरेस पर चहल-कदमी करने लग पड़ी। धूप के साये ढल रहे थे।
      वह अपने बारे में सोचने लगी। संदीप विवाह के बाद उससे बहुत दूर हो गया था। आजकल वह अपने पापा के अधिक करीब हो गया था। रघुबीर भी उससे खिंचा खिंचा-सा रहता।
      'क्या इस सबका कारण मैं हूँ ?' उसके मन में एक लम्बा मंथन चलता रहा। उस रात न तो उसके गले से रोटी नीचे उतरी और न ही सारी रात वह सो सकी।
      दूसरे दिन नाश्ते की मेज़ पर जब जस्सी ने रश्मि के टोस्ट पर मक्खन लगाकर दिया तो सब हैरान होकर उसकी ओर देखने लगे। प्रेम के चेहरे पर एक मंद मंद मुस्कान खेल रही थी - बड़ी प्यारी-सी मुस्कान।
      उस दिन के पश्चात् जस्सी रश्मि की 'सतिश्री अकाल' का जवाब देने लग पड़ी थी। अब वह रश्मि के साथ कोई बात भी साझी कर लेती। खाने की मेज़ के इर्द-गिर्द जो तनाव घूमता रहता था, वह लगभग गायब हो गया था।
      रश्मि को सातवां महीना लगा तो 'रीतों' के लिए वह अपने मायके चली गई। ज्योति ने रश्मि की ससुराल की सभी स्त्रियों को अपने घर पर बुलाया। घर में खूब रौनक हो गई। जस्सी भी ज्योति के पास बैठकर सहज भाव से बातें करती रही। घर के शेष सदस्य उसमें आए इस परिवर्तन पर हैरान भी थे और खुश भी।
      रश्मि के आठवां महीना लगा तो अचानक एक दिन उसके सिर में तेज़ दर्द उठा। डॉक्टर को बुलाया गया तो पता चला कि ब्लॅड प्रैशर बहुत हाई था। डॉक्टर ने नमक कम करने के लिए, खुश रहने के लिए और सैर करने के लिए कहा।
      अब संदीप काम पर देर से जाता। घर जल्दी लौट आता। रघुबीर खुद भी रश्मि का हाल पूछने के लिए विशेष तौर पर उसके कमरे में चला जाता। जस्सी भी रश्मि के समीप बैठ कर उसके साथ बातचीत करती, हँसकर बोलती। बीच बीच में रश्मि के मम्मी-पापा भी उसका हालचाल पता करने आ जाते।
      अभी नौवां महीना लगा ही था कि रश्मि की तबीयत ज्यादा खराब रहने लग पड़ी। उसको नर्सिंग होम दाख़िल करना पड़ा। पूरे कुटुम्ब को रश्मि की बहुत चिंता थी। ज्योति भी रश्मि के पास नर्सिंग होम में आ गई। वह उससे एक पल के लिए भी दूर न होती। संदीप ने भी काम पर जाना छोड़ दिया था। शाम के वक्त बारी बारी से घर के सभी सदस्य रश्मि को मिलने जाते। जस्सी भी शाम को रोज़ चक्कर लगाती। प्यार से रश्मि के सिर पर हाथ फेरती। उसका माथा चूमती।
      ब्लॅड-प्रैशर को नीचे लाने के सभी यत्न हो रहे थे। रश्मि को खुश रखने के सारे गुर अपनाए जा रहे थे। हफ्ते बाद उसका ब्लॅड-प्रैशर नार्मल हो गया तो सब ने सुख की साँस ली।
(जारी…)

2 comments:

  1. उपन्यास की 16वी किस्त पढ़कर सांस में सांस आई। आख़िर जस्सी ने अपनी बहू को स्वीकार कर ही लिया। पर कोई चालाकी तो नहीं ? आगे चलकर ही पता चलेगा। और ज्यादा उत्सुकता बढ़ गई है। रोचक और सुन्दर !

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  2. ek sundar mod par aa gayaa hai yeh ansh,rishton ke sahaj sambandh jeevan ko taakat dete hain,jo ab dii khai dene lagaa hai,badhai.

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