Friday 1 March 2013

उपन्यास



तेरे लिए नहीं
राजिन्दर कौर
 
3

''उस दिन तेरी अंजलि दीदी को देखा था, दूर से ही। तेरे जीजा जी भी आए हुए थे। अंजलि की बड़ी बेटी बहुत सुंदर है।''
      ''हाँ, वह अपने डैडी पर गई है। कालेज जाती है, पर पढ़ाई में अधिक ध्यान नहीं देती। आजकल सजने-संवरने की ओर ध्यान अधिक हो गया है। दूसरे नंबर की बेटी तो मंदबुद्धि है। तीसरी आजकल बारहवीं में है। बहुत होशियार है। समझदार है। दीदी की बहुत मदद करती है। सबसे छोटी तो अभी नौंवी कक्षा में ही है। उससे छोटा एक बेटा है। पता नहीं, जीजा जी ये सब कैसे निभा रहे हैं।'' वह ठंडी आह भरकर चुप हो गई।
      ''जीजा जी क्या करते हैं ?'' मैंने पूछा।
      ''लखनऊ में सरकारी नौकरी में हैं। लखनऊ के करीब ही एक छोटा-सा शहर है, वहाँ रहते हैं। रोज़ सवेरे बस पर जाते हैं, शाम को लौटते हैं। घर का सारा काम भी खुद ही करते हैं, पर अब तो बेटियाँ बड़ी हो गई हैं। वे मदद कर देती हैं।''
      मैं हैरान होकर स्वाति की बातें सुन रही थी।
      ''भाभी जी, अंजलि दीदी दिल्ली में श्रीराम कालेज से पढ़ी हुई है। उसने बी.एड भी कर रखी है। परंतु उसकी दिमागी हालत ज्यादा ठीक नहीं।''
      ''वह क्यों ?''
      ''मम्मी को अधरंग हो गया था। वह बिस्तर से लग गई थी। माला दीदी तब हॉस्टल में थी, वह रेजीडेंसी कर रही थी। समय मिलता तो घर आती। मम्मी की देखभाल सुजाता दीदी करती। बाबा भी मम्मी को खिलाने, नहलाने में मदद करते। कुछ समय मौसी भी आकर रही, पर वह कोहलापुर में टीचर थी। मौसा जी महाराष्ट्र में एक अच्छी सरकारी नौकरी पर थे। उनका इकलौता बेटा था- योगेश। बहुत ही होनहार। इंजीनियर बन गया तो उसकी पोस्टिंग कटनी में हो गई। वहाँ एक रेल इंजन खराब पड़ा था। उसने ठीक कर दिया। उसका बड़ा नाम हो गया। भाभी जी, वह खूबसूरत भी बहुत था। हर किसी के काम आने वाला। हँसमुख। जब हम मौसी के घर जाते या वे लोग दिल्ली आते, असली रौनक हमारे उस भाई के कारण होती। हमारा अपना कोई भाई नहीं था। इसलिए भी शायद हमारा उसके साथ बड़ा प्यार था। ऐसे सुंदर और योग्य लड़के के पीछे कई लड़कियाँ थीं। कटनी में उसको एक लड़की पसंद आ गई। उसने उस लड़की के साथ विवाह करवाना चाहा, पर लड़की के माता-पिता ने साफ़ इंकार कर दिया। मेरी मौसी और मौसा जी भी कोहलापुर से कटनी आए, उनके साथ बात करने के लिए, पर कोई असर न हुआ। वे ब्राह्मण थे - उच्च कुल ब्राह्मण। उनके सामने हम नीची जाति के थे -दलित लोग।'' स्वाति की आँखों में नमी भी थी और उसके चेहरे पर व्यंग्यभरी कड़वाहट भी। मैं उसका चेहरा ही देखती रह गई।
      कुछ देर की ख़ामोशी के पश्चात् उसने पानी का घूंट भरा। आँखें पौंछ लीं और बोली-
      ''भाभी जी, हमारे देश में से यह जात-पात का चक्कर कभी नहीं जा सकता। उस लड़की के माँ-बाप बहुत पढ़े-लिखे थे। दोनों कालेज में पढ़ाते थे। लड़की रासायन-शास्त्र में एम.ए. थी। पर वे उच्च कुल ब्राह्मण थे।'' वह व्यंग्य में मुस्कराई।
      ''अब तुम्हारा भाई कहाँ रहता है ?'' उसके उदास चेहरे की ओर देखते हुए मैंने पूछा।
      उसने उंगली से ऊपर की ओर संकेत कर दिया।
      ''ओह !'' मेरा ठंडा नि:श्वास निकल गया।
      ''क्या हुआ था ?'' मैं पूछे बग़ैर न रह सकी।
      ''वह गहरी उदासी में डूब गया था। कटनी में अकेला था। मेरी मम्मी की तबीयत अधिक खराब होने के कारण मौसी हमारे पास आई हुई थी। मौसा जी कोहलापुरा ही थे तो एक दिन ख़बर आ गई कि उसने आत्महत्या कर ली है। हमारे परिवार पर तो मानो क़हर टूट पड़ा था। मैं तो उस समय 10-11 बरस की थी। मैंने जब से होश संभाला था, माँ बीमार ही चल रही थी। जिस वक्त यह ख़बर पहुँची, मौसी को संभालना कठिन को गया। वहाँ मौसा जी अकेले थे। बाबा और माला दीदी मौसी को लेकर कटनी पहुँचे। मौसा जी पहले ही वहाँ पहुँचे हुए थे।''
      ''अंजलि दीदी बी.एड. की परीक्षा देकर घर आ गई थी। योगेश भाई की मौत की खबर ने उसको तो पागल ही कर दिया। उसको दौरे पड़ने लग पड़े। उस वक्त सुजाता दीदी ही घर में बड़ी थी। पड़ोस में ही रहते थे - नागपुर वाले जोशी अंकल-आंटी। उन्होंने बहुत मदद की। अंजलि को अस्पताल में भर्ती करवाया।''
      ''अंजलि दीदी मौसी के पास रहने बहुत जाया करती थी। उसका योगेश भाई के संग सबसे अधिक प्यार और लगाव था। उससे उसकी मौत का सदमा सहन नहीं हुआ। वैसे भी अंजलि दीदी और मेरे बीच ग्यारह वर्ष का अंतर है। अब घर में मैं सबसे छोटी थी। उसको मेरे पर गुस्सा आ जाता। वह मुझे मारने लगती। वह सभी बहनों में सबसे अधिक नाजुक थी, सबसे अधिक भावुक थी। उसमें गुस्सा भी बहुत था। मूड होता तो कुछ काम करती, नहीं तो अपने कमरे में लेटी रहती। खाने से रूठ जाती। मुझसे खास तौर पर खार खाती।''
      मैं चुपचाप स्वाति की बातें सुन रही थी।
      ''बाबा और माला दीदी कटनी से कोहलापुर चले गए, मौसी-मौसा के साथ। योगेश का अंतिम संस्कार वहीं जाकर किया। घर आए तो अंजलि दीदी की समस्या। अंजलि दीदी कमरे में घुसकर रोती रहती। कई बार ऊँची आवाज़ में योगेश भाई को पुकारने लगती। उसका यह रुदन सुनकर हम दोनों बहनें - सुजाता दीदी और मैं भी रोने लग पड़तीं। मम्मी सब समझती, पर कुछ बोल न पातीं। वह चुपचाप बिस्तर पर लेटी आँसू बहाती रहतीं। मम्मी बार बार मौसी को चिट्ठियाँ लिखवाती रहतीं, दिल्ली आ जाओ, दिल्ली आ जाओ...।''
      स्वाति की आवाज़ टूटने लग पड़ी थी। वह बार बार आँखें पोंछ रही थी। मेरी आँखें भी भर आई थीं। कुछ देर बाद वह ज़रा संभली तो फिर बताने लगी -
      ''धीरे धीरे मौसा मौसी यहीं दिल्ली में आ गए। दोनों अपनी अपनी नौकरी से रिटायरमेंट ले आए थे। भाभी जी, मेरी मौसी बहुत ही सुंदर हुआ करती थी, पर अब जब वह दिल्ली आ गए तो मौसी की शक्ल पहचानी नहीं जाती थी। वह तो मरने जैसी हुई पड़ी थी। बेटे का ग़म...। मैंने कई बार मौसी को मम्मी का हाथ पकड़कर चुपचाप आँसू बहाते देखा था। भाभी जी, माँ की उस समय की दृष्टि मैं भुला नहीं सकती। वह दृष्टि बहुत बार मुझे सपने में भी दिखलाई देती रही।''
      स्वाति का पिघला चेहरा देखकर मैं हिल गई। कुछ देर पश्चात् संभली तो चाय बनाने लग पड़ी। चाय वह बहुत सलीके से बनाती है। पानी उबालना रखती है, बीच में इलायचीदाना डालती है। कपों को गरम पानी से धोती है। उनमें टी-बैग रखती है। वह पत्ती, दूध, शुगर डालकर उबालती नहीं। कढ़ी हुई चाय के अवगुण गिना देती है। 'डाइटीशियन जो है।
      ऐन उसी वक्त मंजू और शीलम भी आ गईं।
      ''तुम्हें चाय की खुशबू पहुँच गई थी ?'' मैंने हँसते हुए पूछा।
      ''अरे भाभी जी, आप कब आए ?'' शीलम मुझसे कसकर लिपटते हुए बोली।
      ''मैं तो सुबह की आई हुई हूँ।''
      ''मुझे किसी ने बताया ही नहीं, पर भाभी जी आज काम भी बहुत था। ओ.पी.डी. में इतने ज्यादा मरीज़ थे कि लंच भी बमुश्किल से लिया। आराम से बैठकर खाने का वक्त ही नहीं था। और सुनाओ, क्या हाल है ?''
      ''मैं ठीक हूँ। तू सुना, घर में सब कैसे हैं ?''
      ''सब ठीक है।'' वह बालों की लट अपने बायें हाथ से संवारती हुई बोली।
      ''तू अभी भी वैसी ही है, जैसी दस साल पहले थी, स्मार्ट ! सुंदर !'' मैंने कहा।
      ''छोड़ो भाभी जी, आपको तो पता है आजकल कितनी टेंशन है, हमारी क्लीनिक में। डॉ. चोपड़ा, हमारे इंचार्ज...। बस, कुछ न पूछो। वो बहुत टेंशन देते हैं। लम्बा अरसा छुट्टी पर थे, सब काम शांति से चल रहा था।''
      ''तब तू बॉस थी न ? तुझे इतना लम्बा अरसा किसी के नीचे काम करने की आदत नहीं रही, तभी यह समस्या है।''
      ''भाभी जी, यह बात नहीं। एक्सीडेंट के बाद डॉक्टर चोपड़ा का स्वभाव ही बदल गया है। वह पहले वाले हँसमुख नहीं रहे। हर वक्त क़ुड़ कुड़। लम्बी बीमारी ने उन्हें पता नहीं क्या कर दिया है। आप कभी हमारी क्लीनिक पर आकर देखना।''
      ''क्या वो अभी भी वैसाखियों के सहारे चलते हैं ?''
      ''एक आर्थोपीडिक डॉक्टर, दूसरे की हड्डियों का इलाज करते करते खुद ही विकलांग हो जाए तो निराशा तो होती ही है।''
      ''अब तो वह बहुत ठीक हैं। बस, थोड़ी-सी कसर रह गई है।'' शीलम बोली।
      ''अगली बार तुम्हारी क्लीनिक पर आकर चाय पिऊँगी।'' मैंने कहा।
      ''वहाँ आपको कैंटीन की उबली हुई चाय छोटे छोटे कपों में मिलेगी, जो कैंटीन से कमरे तक आते आते ठंडी हो जाएगी।''
      ''केतली में मंगवा लेना। मैं भी आ जाऊँगी।'' मंजू बोली।
      चाय पीकर जल्दी ही दोनों चली गईं।
      ''मुझे भी अब चलना चाहिए। सड़क पर शाम का ट्रैफिक बहुत बढ़ जाता है। फिर ऑटो भी नहीं मिलता।'' मैंने कहा।
      ''भाभी जी, मैं आपके साथ ही चलूँगी। आपको मेन रोड से स्कूटर दिलवाकर ही घर जाऊँगी। फिक्र न करो। आज बड़ी मुद्दत के बाद आए हो।'' वह अपनी कुर्सी से उठकर मेरे पास की कुर्सी पर आ बैठी।
      ''तू तब बहुत सुंदर लग रही थी। तेरे बालों का स्टाइल बहुत बढ़िया था। लगता है, उस दिन तुम सब बहने खास तौर पर बाल सैट करवा कर आई थीं। सिर्फ़ अंजलि सादे मेकअप में थी।''
      ''भाभी जी, बेचारी अंजलि दीदी की किस्मत ही खराब है। योगेश भाई की मौत से करीब साल भर बाद मम्मी भी गुज़र गई। एक बार फिर अंजलि को दौरे पड़ने शुरू हो गए। वह ज़ोर ज़ोर से मम्मी और योगेश का नाम लेकर रोती। अपना सिर दीवार पर दे मारती। मुझे सामने देखकर पीटने लग जाती। मौसा-मौसी बेटे की ग़म से कुछ उभर गए थे, अब वे हमकों संभालते। माला दीदी, अंजलि दीदी को ऑल इंडिया मेडिकल अस्पताल ले गई। उन्होंने उसको दाख़िल कर लिया। हालात यहाँ तक बिगड़ गए कि उसको मेंटल होस्पीटल में भर्ती करवाना पड़ा। एक तरफ मम्मी का दुख, दूसरी तरफ़ अंजलि की यह हालत। घर में मातम छा गया।''
      स्वाति का चेहरा घोर उदासी में डूबा हुआ था।
      ''रब कई बार बहुत बड़े इम्तहान लेता है। माला दीदी की पढ़ाई ख़त्म हो गई तो उनकी नौकरी अमृतसर में लग गई। अंजलि को मिलने बाबा और माला दीदी ही जाते थे। कभी कभी साथ में मौसी भी चली जाती। माला दीदी के जाने के बाद बाबा की जिम्मेदारी बढ़ गई। घर की सारी जिम्मेदारी सुजाता दीदी ने संभाल रखी थी।''
      ''करीब छह महीने बाद माला दीदी ने बाबा के आगे एक लड़के की बात की। वह लड़का उन्हें अमृतसर में मिला था। उसी अस्पताल में डॉक्टर था जहाँ दीदी काम करती थी। लड़का था तो हिंदू ही, पर बंगला देश से था। लड़के की माँ नहीं थी। पिता और बहन-भाई सब बंगला देश में ही रहते थे। बाबा ने दीदी का समझाया कि उनकी बोली, रहन-सहन, खान-पीन सब अलग है। फिर लड़के का परिवार भारत में नहीं है, पर दीदी टस से मस नहीं हुई। बाबा ने शर्त रखी कि विवाह मम्मी के बरसी के बाद करेंगे।''
      ''दीपक ने मुझे बताया था कि तेरे बड़े जीजा जी बंगाली हैं।''
      ''भाभी जी, दीदी के विवाह के समय भी अंजलि दीदी को घर में नहीं लाया गया। कितनी मुदद्त के बाद हमारे घर में खुशी का अवसर आया था, पर अंजलि दीदी...।''
      बातें करते-करते हम मेन सड़क पर पहुँच गए थे। मैं स्कूटर के लिए सड़क पर नज़रें घुमा रही थी।
      स्वाति को शीघ्र मिलने का वायदा करके मैं उससे कसकर गले मिली और घर की ओर चल पड़ी। रास्ते भर स्वाति के परिवार के चेहरे मेरी आँखों के आगे घूमते रहे।
      रात में खाना खाते हुए अमृता बोली-
      ''मम्मी, जब से आप स्वाति आंटी को मिलकर आए हो, बड़े चुपचाप से हो। क्या बात है ?''
      ''कुछ खास बात नहीं। बस मैं थक गई हूँ।''

(जारी…)
 

2 comments:

  1. पिछले उपन्यास से अधिक रोचक लग रहा है…जारी रखें।

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  2. aapka upanyaas kaphii prabhavshali se apni aur aakarshit kar rhaa hai.kamna karta hoon ki iski rochakta isii tarah barkarar rhe.sundar.

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