आप सभी को शायद ज़ात ही होगा कि मेरी माता जी
श्रीमती राजिन्दर कौर जी का गत माह 15 जून 2013 को निधन हो गया था। वह गत दो सालों
से कैंसर से पीड़ित थीं। उनके साहित्य को हिंदी में ब्लॉग पर देने के लिए हिंदी कथाकार
सुभाष नीरव जी ने जो एक पंजाबी-हिंदी के सफल अनुवादक भी हैं, ने प्रेरित किया था।
नीरव जी ने इस संबंध में उनकी मदद भी की। ‘परतें’ उपन्यास उनके इस ब्लॉग पर
धारावाहिक छपा और आप सबके द्वारा सराहा गया। मेरी माता जी स्वयं हिंदी में अच्छा
अनुवाद कर लेती थीं, लेकिन स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उन्होंने सुभाष नीरव की
सहायता ली। उनके दो उपन्यासों – ‘तेरे लिए नहीं’ और ‘आ लौट चलें’ वही अनुवाद कर
रहे हैं और आप इन्हें इस ब्लॉग पर देखेंगे- पढ़ेंगे। ये तीनों उपन्यास हिंदी में
शीघ्र ही किताब रूप में भी आपके सम्मुख होंगे। अब यह ब्लॉग मेरी माता जी राजिन्दर
कौर जी की ‘स्मृति’ में आपके सम्मुख है। इसका पूर्ण रूप से संचालन अब सुभाष नीरव
जी करेंगे। आशा है, आपका स्नेह-प्यार इस ब्लॉग को मिलता रहेगा।
-शैली
तेरे लिए नहीं
राजिन्दर कौर
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अमृता ने बताया कि स्वाति आंटी का फोन था। वह नर्सिंग होम से बोल रहे थे। कह रहे थे कि बबली के बेटा हुआ है।
“मम्मी, लोगों को पता तो लग ही जाएगा कि अगस्त में शादी हुई और नवंबर में बच्चा...। कितनी बदनामी होगी। लोग क्या कहेंगे।” अमृता के चेहरे पर चिंता की लकीरें बड़ी गहरी थीं।
“बबली जैसी लड़कियाँ लोगों की परवाह नहीं किया करती। शुक्र है, बच्चा विवाह के बाद हुआ है। वैसे उसके मायके वालों, ससुराल वालों और बाकी जानने वालों को पता ही है।” मैंने अमृता को शांत किया।
दूसरे दिन स्वाति का फिर फोन आ गया। वह बहुत खुश थी। चहक रही थी।
“बच्चा बहुत ही प्यारा है, भाभी जी। अनिल पर गया है। वही नयन-नक्श और वही रंग...।” “
डिलीवरी नार्मल थी ?“ मैंने मुबारक देते हुए पूछा।
वह अपनी ही धुन में डिलीवरी के बारे में सब विस्तार से बताने लग पड़ी।
“बच्चे के दादा-दादी भी बहुत खुश हैं।”
उस दिन के बाद मैं जब भी स्वाति को फोन करती, उसके पास बात करने के लिए एक ही विषय होता - बबली का बच्चा -चिराग
! वह कैसे मुस्कराता है, कितना रोता है।...
अमृता और मैं एक दिन बच्चे को देख भी आई थीं। सचमुच ही बच्चे का चेहरा-मोहरा अपने बाप पर ही गया था। घर के सब सदस्यों के चेहरों पर बच्चे की आमद के कारण जो प्रसन्नता थी, उसे देखकर बड़ा आनंद आया। वह खुशी में फूल नहीं समा रहे थे। उन सबको एक खिलौना मिल गया था।
एक दिन दोपहर को फोन की घंटी बजी तो उधर मंजू की आवाज़ थी।
“भाभी जी,
एक बुरी ख़बर है।”
मैं घबरा उठी।
“स्वाति की भान्जी अणु जो लखनऊ से भागकर आई थी, उसने खुदकुशी कर ली है।“
“हे राम
! स्वाति कहाँ है ?“
“वह अपनी बउ़ी बहनों के संग लखनऊ गई है।”
“मंजू यह तो बहुत बुरा हुआ।” मैं इस ख़बर से हिल गई थी।
“सच ! भाभी जी, बहुत बुरा हुआ।” मंजू भी दुखी आवाज़ में बोली।
“मंजू, जब स्वाति वापस आ जाए तो मुझे फोन कर देना। मैं आ जाऊँगी।”
बबली के विवाह पर मैंने अणु को देखा था। वह बबली के आगे-पीछे हो रही थी। लड़की देखने में सुन्दर थी। पतले नयन-नक्श,
गेहुंआ रंग... चुटिया और फूलों का गजरा!
मेरी आँखों के आगे बार बार वही शक्ल घूम जाती। अमृता को बताया तो वह भी उदास हो गई।
“वह लड़की तो मेरे साथ उस दिन कुछ देर बातें करती रही थी। वह फिल्मों के बारे में, एक्टरों और एक्ट्रसों के बारे में ही बातें करती रही।”
ऐसा क्या हुआ होगा ? उसने इतना ख़तरनाक कदम क्यों उठाया होगा? उसका दिल्ली में रहने का सपना था। माँ की मानसिक हालत या घर की अन्य समस्याएँ... उसकी ख्वाहिशें...। मन इन्हीं ख़यालों में उलझा रहा और परेशान होता रहा।
स्वाति के लखनऊ से लौटने के बाद मैं उसकी माला दीदी के घर गई। माला रो रोकर बोली, “मैं उस लड़की को छोड़कर न आती तो यह सब न होता।”
सुजाता,
स्वाति,
बबली सब की आँखों में आँसू थे। होंठों पर विलाप। सबके चेहरे मुरझाये हुए थे।
दो महीने पहले इस घर में एक बच्चे के जन्म पर जो खुशियों की बारात आई थी, खुशियों की फुहार, जो मैं देखकर गई थी, आज उस घर में शोक था।
मैंने अंजलि और उसके परिवार के विषय में कुछ पूछना चाहा, पर हिम्मत ही नहीं पड़ी।
स्वाति के साथ फोन पर कभी कभी बात हो जाती, बिल्कुल संक्षेप में। उसके सुर में उदासी ही होती।
एक दिन स्वाति बोली, “भाभी जी, सुमीत की बदली दिल्ली हो गई है। वह घर आया था। साथ में उसकी पत्नी और बच्चे भी थे।”
मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या कहूँ।
“भाभी जी,
उसकी पत्नी और बच्चे वापस मुम्बई चले जाएँगे। आजकल मुम्बई के स्कूलों में छुट्टियाँ हैं।” उसकी आवाज़ में उत्साह था।
ठसके बाद बहुत लम्बे अरसे तक स्वाति के साथ मेरा कोई संवाद ही नहीं हुआ। मैं उसके घर फोन करती तो उसकी दीदी कह देती, “अभी घर नहीं आई।” या कहती,
“घर आकर कहीं चली गई है। आपका संदेश दे दिया था।” आदि।
एक दिन मैंने मंजू को फोन करके पूछा तो वह हँसकर बोली।
“आजकल स्वाति बहुत बिजी है। भाभी जी, आजकल वह बहुत खुश है। उसकी सजना-संवरना देखने वाला है। वह अक्सर काम पर से सुमीत के दफ़्तर पहुँच जाती है। यदि सुमीत को वक्त मिले तो वह उसको अस्पताल से लेने आ जाता है।”
मैं क्या कहती। मैंने स्वाति को फोन करना बंद कर दिया।
पंद्रह जुलाई को स्वाति का जन्मदिन था। मैंने सवेरे-सवेरे उसके घर फोन कर दिया। वह काम पर जाने के लिए तैयार हो रही थी। उसकी आवाज़ में से खुशी टपक रही थी।
“भाभी जी,
आपके संदेशे मिले हैं। आकर मिलूँगी किसी दिन।” वह चहक कर बोली।
“आज जन्मदिन कैसे मना रही है ?“ मैंने पूछा।
“बताऊँगी। बाद में फोन करूँगी।” वह बोली।
दीपक की बरसी पर स्वाति, मंजू, शीलम हर साल की तरह आईं। दीपक की बातें होती रही। सबके पास कोई न कोई बात करने वाली थी। मेरे दिल की टूट-फूट तो होती ही रहती। फिर भी हँसना पड़ता। दूसरों के दुख-सुख बांटकर अपने ज़ख़्म भरने की कोशिश में लगी रहती।
अक्तूबर में एक दिन अचानक स्वाति का फोन आया। उसकी आवाज़ बहुत ढीली ढीली थी।
“क्या हाल है तेरा ?“
“गीता और बच्चे मुम्बई से आए हैं। वहाँ स्कूलों में छुट्टियाँ हैं।”
मैं उसकी उदासी का कारण समझ गई थी। आज बहुत दिनों बाद वह बबली के बेटे चिराग के बारे में बात कर रही थी।
“भाभी जी,
अब वह सोफा पकड़कर खड़ा हो जाता है। मुँह से आवाजे़ं निकालता है। दो दाँत निकाल बैठा है। बबली की नौकरी लग गई है। अनिल का कोर्स पूरा होने वाला है।” आदि-आदि।
“स्वाति, बबली नौकरी पर जाएगी तो चिराग को कौन देखेगा ?“ मैंने पूछा।
“अब भी कौन-सा बबली बच्चे को रखती है। वह दिन भर सुजाता दीदी के पास रहता है। घर के काम के लिए एक माई रख ली है। आजकल सुजाता दीदी की बहुत कद्र हो रही है।”
“अच्छा ! तेरी सुजाता दीदी के तलाक का क्या हुआ ?“
“वो तो हो चुका है।”
“तू अभी भी उसके लिए अख़बार में इश्तहार देती है ?“ मैंने पूछा।
“नहीं, अब तो सुजाता दीदी ने इस मामले पर चुप धारण कर ली है।”
“तू अपना तो कुछ सोच। तू खुद ही अख़बार में विज्ञापन दे दे या मुझे मैटर बनाकर दे, ये काम मैं कर देती हूँ। इस तरह अकेली ज़िन्दगी कैसी बीतेगी। सुमीत तो फिर मुम्बई अपने परिवार के पास ही जाएगा। क्या ख़याल है ?“
“बात तो ठीक है।” उसकी आवाज़ बुझी हुई थी।
मैंने झट से बात का रुख बदल दिया। मैं सिमर की बातें करने लग पड़ी। उसकी तोतली बातें, शरारतें,
दादा-पोती का प्यार।
“भाभी जी,
आप उसको लेकर एकबार घर आना।”
“ठीक है। वह बबली के बेटे को देखकर खुश होगी।” मैंने वायदा कर लिया।
नवंबर में बबली के बेटे के जन्मदिन पर हम उसके घर गए। वहाँ सुमीत भी आया हुआ था। स्वाति ने मेरा उसके साथ परिचय करवाया। सचमुच ही वह बहुत अच्छी शख्सीयत थी, देखने में। उसकी आवाज़ में एक ख़ास कशिश थी। बात करने में बड़ा समझदार लग रहा था। सुमीत से मिलकर मुझे स्वाति के लिए बड़ा अफ़सोस हुआ। क्यों न वह इस लड़के के लिए अपने बाबा से अड़ गई। उस दिन स्वाति की सजधज अलग ही थी।
मंजू और शीलम भी अपने परिवारों सहित आई हुई थीं। सुजाता भी बहुत जच रही थी। बबली और सुजाता एक-दूसरे के करीब लगकर बैठी हुई थीं। बच्चा बबली की अपेक्षा सुजाता के साथ अधिक घुलामिला लग रहा था। बच्चे के दादा-दादी के चेहरे खुशी में चमक रहे थे। सब तरफ प्रसन्नता व्याप्त थी। सिमर भी बाकी बच्चों के साथ उछल-कूद मचा रही थी।
मंजू, शीलम और हमारे परिवार का अलग ही ग्रुप बन गया था। हम सब एक कोने में बैठकर गप्प-शप्प कर रहे थे। मंजू मेरे कान में बोली, “भाभी जी, सुमीत को देखा ?“
मैंने ‘हाँ’
में सिर हिला दिया।
मैं नहीं चाहती थी कि शीलम को किसी बात की भनक लगे। स्वाति शीलम के साथ इतनी खुली हुई नहीं थी। शीलम को वैसे भी अपने सुन्दर होने का बड़ा गर्व था और पार्टी वगैरह में कुछ अधिक ही इतराती थी। दीपक की आदत थी कि वह इन लड़कियों की प्रशंसा कर दिया करता था। कभी बालों की, कभी कपड़ों की और कभी मुस्कराहट की। इसलिए वे दीपक को अपना दोस्त मानती थी और उसके साथ अपना निजी और घर का दुख-सुख साझा कर लेती थीं। मंजू और स्वाति एक दूसरे की राजदान थी, पर शीलम के साथ वे हर बात साझी नहीं करती थीं।
मंजू बहाने से मुझे कमरे के बाहर ले गई और बोली, “भाभी जी, सुमीत मुम्बई में बदली की कोशिश कर रहा है। उसके बच्चे वहाँ पढ़ते हैं। बीवी वहीं नौकरी करती है। वह चला गया तो स्वाति फिर से अकेली की अकेली।”
“तू उसकी सहेली है, कुछ कर। कोई लड़का तलाश उसके लिए।”
“वह माने तब न।” वह मायूस होकर बोली।
वापसी पर अमृता बोली, “मम्मी बबली बड़ी सुन्दर और स्मार्ट हो गई है। स्वाति आंटी तो अपनी उम्र से बहुत कम लग रही थी।”
मैंने मुस्कराकर
‘हाँ’
में सिर हिला दिया।
नया साल चढ़ा तो मैंने स्वाति को नये साल की मुबारक दी और साथ ही कहा कि नये साल में तुझे कोई अच्छा जीवन साथी मिल जाए। नई खुशियाँ लेकर आए। उसने कोई उत्साह नहीं दिखलाया। उसकी आवाज़ में कोई जान नहीं थी।
मंजू को नये साल की मुबारक देने के बाद मैं स्वाति की उदासी का कारण पूछा तो वह बोली, “सुमीत मुम्बई चला गया है, तबादला करवा कर। स्वाति को कह गया है कि वह फिर आएगा उसके पास, वह उदास न होवे।”
स्वाति ने मुझे वही डायलॉग मुझे पहले भी बताया था कि वह वापस उसके पास आएगा। और वह मूर्ख उसकी प्रतीक्षा करती रहती है। उसका राह देखती रहती है। जितने दिन वह दिल्ली में रहता है, स्वाति का दिल बहलाये रखता है। स्वाति भी एक भ्रम में जिये जा रही है। सुमीत का क्या बिगड़ता है। जितने दिन दिल्ली में रहा, अपना दिल लगाए रखा। स्वाति बच्ची तो है नहीं जिसको समझाया जा सके। पता नहीं मैंने कहाँ पढ़ा था कि औरत जब प्यार में डूबी होती है तो विवके-रहित हो जाती है। अपने दिमाग का प्रयोग नहीं करती...।
स्वाति अब जब भी मिलती, न वह सुमीत की कोई बात छेड़ती, न मैं ही।
(जारी…)
यह जानकर मै गहरे दुःख से भर गया कि आदरणीय राजेन्द्र कौर जी अब इस दुनिया में नहीं रहीं.मैं ईश्वर से दीवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ . मैं उनकी रचनाधर्मिता से काफी समय से जुडा हुआ था उनकी हर रचना से गुजरना अच्छा लगता रहा. उपन्यास का यह अंश बहुत गहरी स्थितियों को व्याख्यायित करने में सफल रहा है,सुन्दर.
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