मित्रो, गत 11 मार्च 2012 को मैंने अपने कुछ मित्रों की प्रेरणा से ब्लॉग की दुनिया में अपना पहला कदम रखा और इसकी छोटी-सी सूचना मित्रो से साझा की थी। इसका रेस्पांस इतना तीव्र गति से और इतनी बड़ी संख्या में मुझे मिलेगा, सच पूछो तो, मैंने कल्पना नहीं की थी। जिन मित्रो ने बधाई और शुभकामना संदेश भेजे, मैं उन सभी की हृदय से बहुत बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने मेरी हौसला-अफ़जाई की। इनमें से कुछ को मैं जानती हूँ, परन्तु अधिकांश से मेरा पहला परिचय हो रहा है। अविनाश वाचस्पति, हरकीरत हीर, दर्शन कौर दर्शी, डा जगबीर सिंह, इला, अशोक गुप्ता, चंडीदत्त शुक्ल, वन्दना, गुरमीत बेदी, बलबीर माधोपुरी, डा मोनिका शर्मा, रविशंकर श्रीवास्तव, डा. जेन्नी शबनम, राज भाटिया, रूपसिंह चन्देल, प्राण शर्मा, संगीता स्वरूप, प्रमोद ताम्बट, नीरज गोस्वामी, शिरीष कुमार मौर्य, रमेश कपूर, जग्गी कुस्सा, हरिसुमन बिष्ट, हीरेन, मृदुला प्रधान, सुनीता शर्मा, एम.ए.शर्मा ‘सेहर’, सुलभ जायसवाल, उड़न तश्तरी, देवेन्द्र गौतम श्यामसुन्दर अग्रवाल, सूरज प्रकाश और उमेश महादोषी …नि:संदेह इनमें से बहुत से हिंदी-पंजाबी के जाने-माने लेखक-कवि हैं और नेट पर ब्लॉगिंग और फेसबुक पर छोटी-छोटी सारगर्भित पोस्टिंग करने में बहुत सक्रिय हैं। मैं इन सभी का और उन सभी का भी जिन्होंने मेरे इस ब्लॉग की सूचना को देखा-पढ़ा, मैं दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ।
मित्रो, अच्छा साहित्य पढ़ना चाहे वह विश्व और भारत की किसी भी भाषा का हो, मेरी कमज़ोरी रहा है। मेरे पति कुलदीप बग्गा जी भी हिन्दी में लिखा करते थे। अब तक ढेरों कहानियाँ पंजाबी में लिखीं, बहुत-सी हिंदी और अन्य भाषाओं में अनूदित होकर भी प्रकाशित हुईं। कई संग्रह पंजाबी-हिंदी में छपे। पर मैंने महसूस किया है कि अपने लिखे को सम्भाल कर रख पाना(वह भी मेरी जैसी उम्र के लेखक के लिए तो ख़ासतौर पर) बहुत कठिन काम है। कुछ सुहृदय लेखक मित्र मिले, उन्होंने इस उम्र में समय का आधुनिक टेकनीक के माध्यम से अधिक से अधिक सदुपयोग करने का परामर्श दिया। यह भी एक सकारात्मक कार्य है, जिसमें आपकी लगन और मेहनत झलकती है और आपका मस्तिष्क कुछ सृजनात्मक कर रहा होता है…नहीं, तो हम अपना बहुमूल्य समय सो कर या इधर-उधर की व्यर्थ की बातें करके गवां देते हैं। एक ज़माना था कि हम कलम से लिखा करते थे (अब भी बहुत बड़ी संख्या में लेखक-कवि कलम से ही लिखते हैं) परन्तु अब की-बोर्ड पर उंगलियों के सहारे लिखना ज्यादा सहज लगता है और अपने लिखे को काट-छांट कर पुन: फेयर करने के झंझट से बच जाते हैं इस नई तकनीक में। जितना चाहे एडिट करो… और एक स्थान पर सुरक्षित रखते रहो…न घर में अल्मारियों के मोहताज, न सीलन और दीमक का डर…(कुछ मित्रों ने बताया कि कंप्यूटर पर भी बहुत बड़ा खतरा होता है- वायरस का…पर, चलो, ये खतरे ही तो मनुष्य की ज़िन्दगी में चुनौती बन कर आते हैं)।
अपने ब्लॉग पर मैं अपना एक छोटा उपन्यास जो “परतें” शीर्षक से पंजाबी में वर्ष 2007 में छपा था, को हिंदी पाठकों के सम्मुख धारावाहिक रूप में रख रही हूँ। इसबार इस उपन्यास का पहला चैप्टर आपके सामने है। अच्छा है या खराब…जो भी है, आपके सामने है…किस्त-दर-किस्त… बीच बीच में अथवा इस उपन्यास की समाप्ति पर अपनी कहानियां भी क्रमवार देना प्रारम्भ करूँगी… बस, आपका हौसला, आपका प्यार-स्नेह मुझे मिलता रहेगा तो यह स्फूर्ति और उत्साह मेरे अन्दर बना रहेगा…
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिंदर कौर
1
रघुबीर और जस्सी को हनीमून पर आये दो दिन हो चुके थे। रघुबीर को कश्मीर की अपनी पहली यात्रा बार-बार याद आ रही थी। जब पहली बार आया था, तब वह दस-ग्यारह वर्ष का था। उस समय के कुछ स्पष्ट, कुछ धुंधले-से चित्र उसके ज़ेहन में अंकित थे। वह जस्सी के साथ डल-लेक पर घूम रहा था और बड़े चाव से उसे अपनी पहली यात्रा के विषय में बता रहा था।
''जस्सी, यहीं पास ही हम एक होटल में ठहरे थे। तौबा ! सारी रात वहाँ खटमल ही काटते रहे। हमारा बहुत बड़ा परिवार एक साथ ही कश्मीर की सैर करने आया था - दादा दी, दादी जी, सारे चाचा, बुआ... सच, बड़ा मज़ा आया।'' रघुबीर दूर डल-लेक पर खड़े शिकारों की ओर देखकर बता रहा था।
''किसका मज़ा आया ? खटमलों का ?'' जस्सी हँसते हुए बोली।
''नहीं-नहीं, मेरा मतलब है कि सारा परिवार इकट्ठा आया था। खटमलों के कारण हमने दूसरे दिन ही वह होटल छोड़ दिया था और एक शिकारे में रहने के लिए आ गए थे। शिकारे में रहने का अपना अलग ही आनन्द था।'' रघुबीर चहककर बता रहा था।
''इसबार हम शिकारे में क्यों नहीं ठहरे ?'' जस्सी ने रघुबीर के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
''इसबार सब मना कर रहे थे। कहते हैं कि अब पुरानी बातें नहीं रहीं। पहले की तरह ईमानदारी नहीं रही। पिछले वर्ष मेरे कुछ दोस्त शिकारे में आकर ठहरे थे। एक का कैमरा चोरी हो गया था, दूसरे के पैसे और तीसरे के कुछ कपड़े। कश्मीर में गरीबी भी बहुत है।''
''और कहाँ कहाँ गए थे?'' जस्सी ने रघुबीर का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा।
''श्रीनगर से हम पहलगाम चले गए थे। वहाँ टेंट लगाकर खिद्दर नदी के किनारे पर ठहरे थे। घोड़ों की खूब सवारी की। मेरी आँखों में उस समय की बर्फ़ से ढकीं चोटियाँ अभी तक समायी हुई हैं। देवदार और चीड़ के पेड़, नदी की बर्फ़ सरीखे ठंडे पानी का गर्जन...। जस्सी, पहलगाम चरवाहों की घाटी कहलाती है। यह समुन्दर से सात हज़ार फुट की ऊँचाई पर है।'' रघुबीर आकाश की ओर देखते हुए बता रहा था, ''कल ही हम पहलगाम के लिए चल पड़ेंगे। ठीक है?''
''क्या अब भी हम टेंट में ही रहेंगे?'' जस्सी ने मुस्कराते हुए पूछा।
''नहीं, होटल में रहेंगे। तब पता क्या हुआ था? एक रात तेज़ आँधी चली और टेंट नीचे आ गिरा। हममें से किसी को चोट तो नहीं लगी, पर बीजी और दादी जी बहुत घबरा गए थे। पहलगाम के बाद हम गुलमर्ग गए थे। जस्सी, कश्मीर में पहाड़ों की सैर, घोड़े की सवारी, गरम पानी के झरने... सब अच्छी तरह याद हैं। बचपन कितना मस्त होता है। न फिक्र, न चिंता...।''
''अब किस चीज़ का फिक्र है?'' जस्सी ने रघुबीर की ओर सीधा देखते हुए पूछा।
''मैं यूँ ही सहज स्वभाव में एक बात कर रहा था।'' वह जस्सी का हाथ पकड़ते हुए बोला।
''आपको ज्योति की याद तो रह रहकर आ रही होगी। आपको यह अहसास तो हो रहा होगा कि आज इन बांहों में मेरी जगह ज्योति को होना था?'' जस्सी रघुबीर की आँखों में आँखें डालकर एक अजीब मसख़री में बोली।
रघुबीर को जस्सी की इस व्यंग्यभरी दृष्टि ने अन्दर तक बेध डाला। जस्सी के गिर्द लिपटी उसकी बाहों की पकड़ अपने आप ढीली पड़ गई और वह डल-लेक के किनारे खड़ा दूर चलते शिकारों की ओर एकटक देखने लगा।
''क्यो? ज्योति का नाम सुनकर आपका मन इतना उखड़ क्यों ग्या?'' वह रघुबीर से चिपट कर खड़ी हो गई।
''ज्योति का नाम सुनकर नहीं, तुम्हारा रवैया देखकर। तुम्हें सब तो बता दिया था, शादी से पहले ही। भूल जाओ अब इस काण्ड को। अब तू और मैं एक बंधन में बंध गए हैं। कहते हैं न, संजोग ऊपर से बनकर आते हैं।'' रघुबीर दूर कहीं देखता हुआ चुप हो गया।
''ओह! इतना बुरा मान गए। सॉरी! मेरा मतलब नहीं था। मैं तो यूँ ही मज़ाक कर रही थी।'' यह कहते हुए जस्सी ने आगे बढ़कर रघुबीर का हाथ पकड़ लिया और उसे लेकर आगे चलने लग पड़ी।
जस्सी रघुबीर को इस मूड में से बाहर निकालने के लिए खाना खाते समय चुटकुले सुनाने लग पड़ी-
''सुनो, आपको एक बात सुनाऊँ?''
रघुबीर ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
''एक आदमी डॉक्टर के पास गया और पूछने लगा, डॉक्टर साहब, मैं और चालीस साल जी सकूँगा? डॉक्टर ने उसकी ओर हैरानी से देखा और पूछा - तुम अपने मित्रों के साथ मौज मस्ती करते हो? आदमी ने 'न' में सिर हिला दिया। क्या तुम बाहर जाकर कभी पानीपूरी, समोसे, आलू-टिक्की, बरगर और पिज्जा वगैरह खाते हो? आदमी ने कहा- नहीं, कभी नहीं।''
''क्या तुम सिगरेट-बीड़ी पीते हो या तम्बाकू खाते हो? आदमी ने कानों को हाथ लगाकर कहा- तोबा! मैं तो इन चीज़ों के पास भी नहीं फटकता।''
''अच्छा, शराब कितनी पीते हो?''
''मैं तो छूता भी नहीं।''
''तेरी प्रेमिकाएँ कितनी हैं?''
''एक भी नहीं।'' उसने ज़ोर देकर कहा।
''फिर कोठे-वोठे पर तो जाता ही होगा?''
आदमी कुर्सी पर से एकदम उछल पड़ा और बोला, ''डॉक्टर साहब, भगवान का नाम लो। आप मुझसे यह ऊट-पटांग से सवाल क्यों पूछ रहे हो?''
डॉक्टर ने कहा, ''मेरी तो यह समझ में नहीं आ रहा कि तुम और चालीस वर्ष जीकर क्या करोगे?'' जस्सी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। रघुबीर ने शायद पूरी बात सुनी भी नहीं थी। वह उसे हँसते देखकर हँसने की कोशिश करने लगा, पर उसे ज्यादा सफलता नहीं मिली। सारी शाम रघुबीर का मूड उखड़ा ही रहा। रात को नींद भी टूट टूट कर आती रही।
रघुबीर की जस्सी के साथ सगाई हुई तो जस्सी ने स्वयं फोन करके रघुबीर को मिलने पर ज़ोर दिया था। जस्सी मैरिन लाइन्स के सामने वाली लाइन में 'भारत-महल' में रहती थी। रघुबीर खार रोड में रहता था। तब उसके पास अपनी अलग कार भी नहीं थी। वह लोकल गाड़ी पकड़कर चर्च गेट पहुँच गया था। जस्सी अपने भाई की कार ड्राइव करके रघुबीर को 'गेट-वे-ऑफ इंडिया' ले गयी। वहाँ लोगों की बड़ी भीड़ थी। कुछ देर वे दोनों वहाँ बैठे रहे। समुद्र की लहरों को दीवार से टकराते देखते रहे। वहाँ से वे 'फ्लोरा फाउन्टेन' के एक रेस्तरां में चाय-कॉफी पीने बैठ गए। इधर-उधर की बातों के बाद जस्सी ने पूछा, ''यह ज्योति कौन है ?'' रघुबीर एकदम चौंक गया। वह बड़े गौर से जस्सी की ओर देखने लगा। जस्सी के माथे पर पड़ी भृकुटि से कुछ अन्दाज़ा लगाने की कोशिश करने लगा।
''किस सोच में पड़ गए? मैंने आपसे पूछा है कि ज्योति कौन है?''
''तुम्हें उसके बारे में किसने बताया?'' रघुबीर ने सर्तक होकर पूछा।
''उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?''
''फिर उसने यह भी बताया होगा कि ज्योति कौन है?''
''बस यही बताया है कि वह आपकी गर्लफ्रेंड...।'' रुक रुककर जस्सी बोली।
''फिर तुम क्या जानना चाहती हो?'' रघुबीर ने पूछा।
''क्या अब भी आप...?'' जस्सी ने बात पूरी नहीं की।
''देख जस्सी ! सही बात यह है कि मैं ज्योति को बचपन से जानता हूँ। उसके साथ शादी भी करना चाहता था, पर घर के लोग नहीं माने। अब ज्योति के साथ गर्लफ्रेंड वाली कोई बात नहीं रही।'' रघुबीर ने ठंडी आह को दबाते हुए अपने स्वर और चेहरे को बिलकुल सहज रखने की कोशिश करते हुए कहा।
''फिर भी आपके दिल में कसक तो होगी ही कि...।''
रघुबीर ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। वह कॉफी के छोटे-छोटे घूंट भरता रहा।
कुछ देर की चुप्पी के बाद जस्सी बोली, ''कल आओगे? कोई मूवी देखने चलेंगे।''
''कल तो डैडी के साथ एक काम के सिलसिले में जाना है। फिर कभी सही।''
''आपने कभी मैरीन-लाइन्ज़ में बैठकर समुद्र का आनन्द लिया है?'' जस्सी ने पूछा।
''एक अरसा हो गया है। कभी हम अपने दादा जी के साथ वहाँ जाते थे।''
''चलो, आपको ले चलूँ।'' जस्सी की आवाज़ में उत्साह था।
कुछ समय के लिए वे समुद्र के किनारे घूमते रहे। उन्होंने सींगदाने (मूंगफली) की दो पुड़ियाँ खरीदीं और दीवार पर बैठकर एक एक दाना चबाते रहे। उन्होंने आपस में बातचीत जारी रखने की बहुत कोशिश की लेकिन कोई भी बात आगे नहीं बढ़ सकी।
रघुबीर जस्सी से उसकी पढ़ाई के विषय में पूछने लगा। उसने राजनीति विज्ञान से बी.ए. की थी। वह एम.ए. भी इसी विषय से करना चाहती थी लेकिन पापा उसके विवाह के लिए जल्दी मचाने लगे।
''तुम्हें राजनीति में तो बहुत रुचि होगी?'' रघुबीर ने हँसते हुए पूछा।
''थोड़ी बहुत रुचि तो है ही। सुबह समाचार पत्र ज़रूर देखती हूँ।''
''बहुत खूब!''
मैरीन लाइन्ज़ पर लोगों की भीड़ लगातार बढ़ रही थी। कुछ लोग दीवार पर बैठे थे, कुछ दीवार के साथ बने फुटपाथ पर घूम रहे थे। सींगदाना, गुब्बारे और बच्चों के खिलौने बेचने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। सूर्य अस्त होने की तैयारी कर रहा था। वह धीरे-धीरे पानी में उतर रहा था। समुद्र का पानी लाल रंग में बदल रहा था।
''कितना सुन्दर दृश्य है !'' रघुबीर ने कहा।
''मैं तो यह दृश्य अक्सर ही अपनी खिड़की में से देखती रहती हूँ।''
''सच? और प्रात: सूर्योदय का?'' रघुबीर ने जस्सी की ओर देखते हुए पूछा।
''ऊँ हूँ । मैं लेट लतीफ हूँ। सुबह जल्दी नहीं उठती। मम्मी-डैडी सैर करने जाते हैं। वे मुझे उठाने की बहुत कोशिश करते हैं।'' जस्सी ने अपने होंठ काटते हुए कहा।
रघुबीर चुप रहा।
''मम्मी बहुत समझाती है कि अब देर से उठने की आदत छोड़ दूँ। विवाह के बाद यह नहीं चलेगा। सुना है, आपके दादी-दादा आपके पास ही रहते हैं। उनको सुबह देर से उठना पसन्द नहीं।''
''तुम्हें हमारे परिवार के विषय में बहुत कुछ पता है। कौन है, तुम्हें यह सब बताने वाला?'' रघुबीर ने हँसते हुए पूछा।
''मैंने एक जासूस छोड़ा हुआ है।'' जस्सी भी हँसकर बोली।
''फिर तो तुमसे बहुत डर कर रहना पड़ेगा।''
''बेशक।''
सामने सूर्य धीरे-धीरे सरक कर पानी में समा रहा था। पानी की लाली बहुत गहरी हो गई थी।
''चलो, नारियल पानी पियेंगे।'' जस्सी ने रघुबीर का हाथ पकड़कर उसे उठाते हुए कहा।
''ज़रा दाईं ओर देखो।'' जस्सी ने धीमे स्वर में रघुबीर से कहा।
एक युवा युगल एक दूसरे के मुँह से मुँह जोड़कर बैठा था। रघुबीर देखकर हल्का-सा मुस्कराया।
घर वापस जाते हुए वह बहुत सोचता रहा कि जस्सी को ज्योति के विषय में किसने बताया होगा, लेकिन उसको कुछ समझ में नहीं आया।
राजिंदर कौर
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रघुबीर और जस्सी को हनीमून पर आये दो दिन हो चुके थे। रघुबीर को कश्मीर की अपनी पहली यात्रा बार-बार याद आ रही थी। जब पहली बार आया था, तब वह दस-ग्यारह वर्ष का था। उस समय के कुछ स्पष्ट, कुछ धुंधले-से चित्र उसके ज़ेहन में अंकित थे। वह जस्सी के साथ डल-लेक पर घूम रहा था और बड़े चाव से उसे अपनी पहली यात्रा के विषय में बता रहा था।
''जस्सी, यहीं पास ही हम एक होटल में ठहरे थे। तौबा ! सारी रात वहाँ खटमल ही काटते रहे। हमारा बहुत बड़ा परिवार एक साथ ही कश्मीर की सैर करने आया था - दादा दी, दादी जी, सारे चाचा, बुआ... सच, बड़ा मज़ा आया।'' रघुबीर दूर डल-लेक पर खड़े शिकारों की ओर देखकर बता रहा था।
''किसका मज़ा आया ? खटमलों का ?'' जस्सी हँसते हुए बोली।
''नहीं-नहीं, मेरा मतलब है कि सारा परिवार इकट्ठा आया था। खटमलों के कारण हमने दूसरे दिन ही वह होटल छोड़ दिया था और एक शिकारे में रहने के लिए आ गए थे। शिकारे में रहने का अपना अलग ही आनन्द था।'' रघुबीर चहककर बता रहा था।
''इसबार हम शिकारे में क्यों नहीं ठहरे ?'' जस्सी ने रघुबीर के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
''इसबार सब मना कर रहे थे। कहते हैं कि अब पुरानी बातें नहीं रहीं। पहले की तरह ईमानदारी नहीं रही। पिछले वर्ष मेरे कुछ दोस्त शिकारे में आकर ठहरे थे। एक का कैमरा चोरी हो गया था, दूसरे के पैसे और तीसरे के कुछ कपड़े। कश्मीर में गरीबी भी बहुत है।''
''और कहाँ कहाँ गए थे?'' जस्सी ने रघुबीर का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा।
''श्रीनगर से हम पहलगाम चले गए थे। वहाँ टेंट लगाकर खिद्दर नदी के किनारे पर ठहरे थे। घोड़ों की खूब सवारी की। मेरी आँखों में उस समय की बर्फ़ से ढकीं चोटियाँ अभी तक समायी हुई हैं। देवदार और चीड़ के पेड़, नदी की बर्फ़ सरीखे ठंडे पानी का गर्जन...। जस्सी, पहलगाम चरवाहों की घाटी कहलाती है। यह समुन्दर से सात हज़ार फुट की ऊँचाई पर है।'' रघुबीर आकाश की ओर देखते हुए बता रहा था, ''कल ही हम पहलगाम के लिए चल पड़ेंगे। ठीक है?''
''क्या अब भी हम टेंट में ही रहेंगे?'' जस्सी ने मुस्कराते हुए पूछा।
''नहीं, होटल में रहेंगे। तब पता क्या हुआ था? एक रात तेज़ आँधी चली और टेंट नीचे आ गिरा। हममें से किसी को चोट तो नहीं लगी, पर बीजी और दादी जी बहुत घबरा गए थे। पहलगाम के बाद हम गुलमर्ग गए थे। जस्सी, कश्मीर में पहाड़ों की सैर, घोड़े की सवारी, गरम पानी के झरने... सब अच्छी तरह याद हैं। बचपन कितना मस्त होता है। न फिक्र, न चिंता...।''
''अब किस चीज़ का फिक्र है?'' जस्सी ने रघुबीर की ओर सीधा देखते हुए पूछा।
''मैं यूँ ही सहज स्वभाव में एक बात कर रहा था।'' वह जस्सी का हाथ पकड़ते हुए बोला।
''आपको ज्योति की याद तो रह रहकर आ रही होगी। आपको यह अहसास तो हो रहा होगा कि आज इन बांहों में मेरी जगह ज्योति को होना था?'' जस्सी रघुबीर की आँखों में आँखें डालकर एक अजीब मसख़री में बोली।
रघुबीर को जस्सी की इस व्यंग्यभरी दृष्टि ने अन्दर तक बेध डाला। जस्सी के गिर्द लिपटी उसकी बाहों की पकड़ अपने आप ढीली पड़ गई और वह डल-लेक के किनारे खड़ा दूर चलते शिकारों की ओर एकटक देखने लगा।
''क्यो? ज्योति का नाम सुनकर आपका मन इतना उखड़ क्यों ग्या?'' वह रघुबीर से चिपट कर खड़ी हो गई।
''ज्योति का नाम सुनकर नहीं, तुम्हारा रवैया देखकर। तुम्हें सब तो बता दिया था, शादी से पहले ही। भूल जाओ अब इस काण्ड को। अब तू और मैं एक बंधन में बंध गए हैं। कहते हैं न, संजोग ऊपर से बनकर आते हैं।'' रघुबीर दूर कहीं देखता हुआ चुप हो गया।
''ओह! इतना बुरा मान गए। सॉरी! मेरा मतलब नहीं था। मैं तो यूँ ही मज़ाक कर रही थी।'' यह कहते हुए जस्सी ने आगे बढ़कर रघुबीर का हाथ पकड़ लिया और उसे लेकर आगे चलने लग पड़ी।
जस्सी रघुबीर को इस मूड में से बाहर निकालने के लिए खाना खाते समय चुटकुले सुनाने लग पड़ी-
''सुनो, आपको एक बात सुनाऊँ?''
रघुबीर ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
''एक आदमी डॉक्टर के पास गया और पूछने लगा, डॉक्टर साहब, मैं और चालीस साल जी सकूँगा? डॉक्टर ने उसकी ओर हैरानी से देखा और पूछा - तुम अपने मित्रों के साथ मौज मस्ती करते हो? आदमी ने 'न' में सिर हिला दिया। क्या तुम बाहर जाकर कभी पानीपूरी, समोसे, आलू-टिक्की, बरगर और पिज्जा वगैरह खाते हो? आदमी ने कहा- नहीं, कभी नहीं।''
''क्या तुम सिगरेट-बीड़ी पीते हो या तम्बाकू खाते हो? आदमी ने कानों को हाथ लगाकर कहा- तोबा! मैं तो इन चीज़ों के पास भी नहीं फटकता।''
''अच्छा, शराब कितनी पीते हो?''
''मैं तो छूता भी नहीं।''
''तेरी प्रेमिकाएँ कितनी हैं?''
''एक भी नहीं।'' उसने ज़ोर देकर कहा।
''फिर कोठे-वोठे पर तो जाता ही होगा?''
आदमी कुर्सी पर से एकदम उछल पड़ा और बोला, ''डॉक्टर साहब, भगवान का नाम लो। आप मुझसे यह ऊट-पटांग से सवाल क्यों पूछ रहे हो?''
डॉक्टर ने कहा, ''मेरी तो यह समझ में नहीं आ रहा कि तुम और चालीस वर्ष जीकर क्या करोगे?'' जस्सी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। रघुबीर ने शायद पूरी बात सुनी भी नहीं थी। वह उसे हँसते देखकर हँसने की कोशिश करने लगा, पर उसे ज्यादा सफलता नहीं मिली। सारी शाम रघुबीर का मूड उखड़ा ही रहा। रात को नींद भी टूट टूट कर आती रही।
रघुबीर की जस्सी के साथ सगाई हुई तो जस्सी ने स्वयं फोन करके रघुबीर को मिलने पर ज़ोर दिया था। जस्सी मैरिन लाइन्स के सामने वाली लाइन में 'भारत-महल' में रहती थी। रघुबीर खार रोड में रहता था। तब उसके पास अपनी अलग कार भी नहीं थी। वह लोकल गाड़ी पकड़कर चर्च गेट पहुँच गया था। जस्सी अपने भाई की कार ड्राइव करके रघुबीर को 'गेट-वे-ऑफ इंडिया' ले गयी। वहाँ लोगों की बड़ी भीड़ थी। कुछ देर वे दोनों वहाँ बैठे रहे। समुद्र की लहरों को दीवार से टकराते देखते रहे। वहाँ से वे 'फ्लोरा फाउन्टेन' के एक रेस्तरां में चाय-कॉफी पीने बैठ गए। इधर-उधर की बातों के बाद जस्सी ने पूछा, ''यह ज्योति कौन है ?'' रघुबीर एकदम चौंक गया। वह बड़े गौर से जस्सी की ओर देखने लगा। जस्सी के माथे पर पड़ी भृकुटि से कुछ अन्दाज़ा लगाने की कोशिश करने लगा।
''किस सोच में पड़ गए? मैंने आपसे पूछा है कि ज्योति कौन है?''
''तुम्हें उसके बारे में किसने बताया?'' रघुबीर ने सर्तक होकर पूछा।
''उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?''
''फिर उसने यह भी बताया होगा कि ज्योति कौन है?''
''बस यही बताया है कि वह आपकी गर्लफ्रेंड...।'' रुक रुककर जस्सी बोली।
''फिर तुम क्या जानना चाहती हो?'' रघुबीर ने पूछा।
''क्या अब भी आप...?'' जस्सी ने बात पूरी नहीं की।
''देख जस्सी ! सही बात यह है कि मैं ज्योति को बचपन से जानता हूँ। उसके साथ शादी भी करना चाहता था, पर घर के लोग नहीं माने। अब ज्योति के साथ गर्लफ्रेंड वाली कोई बात नहीं रही।'' रघुबीर ने ठंडी आह को दबाते हुए अपने स्वर और चेहरे को बिलकुल सहज रखने की कोशिश करते हुए कहा।
''फिर भी आपके दिल में कसक तो होगी ही कि...।''
रघुबीर ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। वह कॉफी के छोटे-छोटे घूंट भरता रहा।
कुछ देर की चुप्पी के बाद जस्सी बोली, ''कल आओगे? कोई मूवी देखने चलेंगे।''
''कल तो डैडी के साथ एक काम के सिलसिले में जाना है। फिर कभी सही।''
''आपने कभी मैरीन-लाइन्ज़ में बैठकर समुद्र का आनन्द लिया है?'' जस्सी ने पूछा।
''एक अरसा हो गया है। कभी हम अपने दादा जी के साथ वहाँ जाते थे।''
''चलो, आपको ले चलूँ।'' जस्सी की आवाज़ में उत्साह था।
कुछ समय के लिए वे समुद्र के किनारे घूमते रहे। उन्होंने सींगदाने (मूंगफली) की दो पुड़ियाँ खरीदीं और दीवार पर बैठकर एक एक दाना चबाते रहे। उन्होंने आपस में बातचीत जारी रखने की बहुत कोशिश की लेकिन कोई भी बात आगे नहीं बढ़ सकी।
रघुबीर जस्सी से उसकी पढ़ाई के विषय में पूछने लगा। उसने राजनीति विज्ञान से बी.ए. की थी। वह एम.ए. भी इसी विषय से करना चाहती थी लेकिन पापा उसके विवाह के लिए जल्दी मचाने लगे।
''तुम्हें राजनीति में तो बहुत रुचि होगी?'' रघुबीर ने हँसते हुए पूछा।
''थोड़ी बहुत रुचि तो है ही। सुबह समाचार पत्र ज़रूर देखती हूँ।''
''बहुत खूब!''
मैरीन लाइन्ज़ पर लोगों की भीड़ लगातार बढ़ रही थी। कुछ लोग दीवार पर बैठे थे, कुछ दीवार के साथ बने फुटपाथ पर घूम रहे थे। सींगदाना, गुब्बारे और बच्चों के खिलौने बेचने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। सूर्य अस्त होने की तैयारी कर रहा था। वह धीरे-धीरे पानी में उतर रहा था। समुद्र का पानी लाल रंग में बदल रहा था।
''कितना सुन्दर दृश्य है !'' रघुबीर ने कहा।
''मैं तो यह दृश्य अक्सर ही अपनी खिड़की में से देखती रहती हूँ।''
''सच? और प्रात: सूर्योदय का?'' रघुबीर ने जस्सी की ओर देखते हुए पूछा।
''ऊँ हूँ । मैं लेट लतीफ हूँ। सुबह जल्दी नहीं उठती। मम्मी-डैडी सैर करने जाते हैं। वे मुझे उठाने की बहुत कोशिश करते हैं।'' जस्सी ने अपने होंठ काटते हुए कहा।
रघुबीर चुप रहा।
''मम्मी बहुत समझाती है कि अब देर से उठने की आदत छोड़ दूँ। विवाह के बाद यह नहीं चलेगा। सुना है, आपके दादी-दादा आपके पास ही रहते हैं। उनको सुबह देर से उठना पसन्द नहीं।''
''तुम्हें हमारे परिवार के विषय में बहुत कुछ पता है। कौन है, तुम्हें यह सब बताने वाला?'' रघुबीर ने हँसते हुए पूछा।
''मैंने एक जासूस छोड़ा हुआ है।'' जस्सी भी हँसकर बोली।
''फिर तो तुमसे बहुत डर कर रहना पड़ेगा।''
''बेशक।''
सामने सूर्य धीरे-धीरे सरक कर पानी में समा रहा था। पानी की लाली बहुत गहरी हो गई थी।
''चलो, नारियल पानी पियेंगे।'' जस्सी ने रघुबीर का हाथ पकड़कर उसे उठाते हुए कहा।
''ज़रा दाईं ओर देखो।'' जस्सी ने धीमे स्वर में रघुबीर से कहा।
एक युवा युगल एक दूसरे के मुँह से मुँह जोड़कर बैठा था। रघुबीर देखकर हल्का-सा मुस्कराया।
घर वापस जाते हुए वह बहुत सोचता रहा कि जस्सी को ज्योति के विषय में किसने बताया होगा, लेकिन उसको कुछ समझ में नहीं आया।
जारी…)
रोचक प्रस्तुति .... ज्योति के बारे मेन किसने बताया होगा ॥जिज्ञासा पैदा हो गयी है .... आगे का इंतज़ार है ...
ReplyDeleteaapke upanyaas ka pehla ansh pada kaphi sadhaa hua hai tatha aane wali kadion ke prati aashvasth karta hai.Badhai.
ReplyDeleteएक रोचक कथा...आप ने इसके आगे पढ़ने की जिज्ञासा जाग्रत कर दी है...। इंतज़ार रहेगा...।
ReplyDeleteप्रियंका
रोचक प्रस्तुति…………आगे का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteरोचक प्रस्तुत………आगे का इंतज़ार
ReplyDeleteCongratulations for the Blog and thanks a lot for sharing the first installment of your Novel...
ReplyDeleteGreat....!!
With regards,
KESRA RAM kesra.ram@gmail.com
अगले एपिसोड का इंतज़ार है
ReplyDeleteGreat Bhabhi, enjoyed reading Hindi after a long time. Waiting eagerly for the next part. Take care, Gudo.
ReplyDeleteVery good, thank you very much.
ReplyDelete-Darshan Darvesh jeedarveshjee@yahoo.com
bahut badiyaa flow hai, story line achhi chal rahi hai.....aaplki agli post ka intezaar rahegaa......Bloggers ki duniyaa me aapkaa hardik swaagat hai.
ReplyDeleteराजेन्द्र जी,
ReplyDeleteआपके उपन्यास ’परतें’ का पहला अंश पढ़कर एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई. पहला अंश आगे की कथा के प्रति आश्वस्ति पैदा कर रहा है. अगली किस्त की प्रतीक्षा रहेगी.
रूपसिंह चन्देल
जी, सप्ताहांत में पढने की कोशिश करूँगा
ReplyDeleteश्रद्धेय राजिंदर जी,
ReplyDeleteनमस्कार,
आपके ब्लॉग पर आपके उपन्यास 'परतें' की पहली किश्त देख कर अच्छा लगा. इस नई ओर शानदार शुरुआत के लिए आपको बधाई. बाकी पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया दूंगा.
शेष शुभ. आशा है आप सानंद होंगी.
Ramesh Chander Kapur
A-4/14, Sector-18, Rohini,
Delhi-110 089
Mobile : +91 98912 52314
Email : ramesh_kapur414@yahoo.co.in
rameshkapur414@gmail.com
bahut hi achhi shuruaat --abhi dekhate hain aage kya hota hai -
ReplyDeleteराजिन्दर जी,
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आने में देरी हो गई क्षमा चाहूंगी. 'परतें' की पहली किश्त पढ़ना बहुत अच्छा लगा. दूसरी किश्त अब पढ़ने जा रही हूँ. कहानी के अगले घटना-क्रम को जानने की उत्कंठा बढ़ गई है.