Friday, 31 August 2012

उपन्यास


मित्रो, परतें उपन्यास की बारहवीं किस्त आपके समक्ष है। धीरे-धीरे यह उपन्यास अब अपनी समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। आगे क्या होगा? यह जानने की उत्सुकता हर पाठक में होती है। यह उत्सुकता ही उपन्यास में गति पैदा करती है और पाठक को बांधे रखने में सफल होती है… खैर, आप मेरे इस उपन्यास में इतनी गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं, यह जानकर मुझे सचमुच बेहद खुशी हो रही है। पहले की भांति आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी मुझे।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

12

घूम घामकर संदीप रात में जब होटल लौटा तो माँ और पिता के चेहरे देखकर सब समझ गया।
      'आज पापा ने मम्मी के साथ बात कर ही दी है। हवा गरम है। अगर आज मैं कुछ कहूँगा तो गरम हवा मुझे भी झुलसा देगी।' यह सोचकर वह अपने कमरे में चला गया। अभी वह शंशोपंज में कपड़े बदल ही रहा था कि मम्मी कमरे में आ गई। मम्मी की आँखें सूजी हुई थीं और लाल थीं।
      ''मम्मी, तबियत तो ठीक है न ?'' वह चिंतित होकर बोला।
      ''तू मेरी तबियत को मार गोली। जो मैं पूछूँ, सब सच बताना।''
      ''आप बैठो तो सही। अब बोलो।'' उसने मम्मी को कंधों से पकड़ अपने साथ बिठाते हुए कहा।
      ''तू इस रश्मि से कहाँ मिला था ?''
      ''कालेज में।''
      ''कब ?''
      ''जब मैं वहाँ पढ़ रहा था।''
      ''किसने मिलवाया ?''
      ''एक ड्रामे में उस लड़की ने बहुत अच्छा रोल किया था। मुझे बहुत पसन्द आया तो मैं उसकी प्रशंसा करने लग पड़ा। फिर आहिस्ता आहिस्ता...।''
      ''तू जानता था कि वह किसकी बेटी है ?''
      ''नहीं, वो तो अब पता चला है, सारी बात का।''
      ''उसको पता था कि तू किसका बेटा है ?''
      ''नहीं, उसको कैसे पता चलता ? मैं उनके घर तो गया था दो बार, अन्य लड़के-लड़कियों के संग। उसकी मम्मी ने कभी पूछा ही नहीं था कि मैं कौन हँ। यह तो सब बायचांस ही हो गया है। सच मम्मी! विश्वास करो। इसमें पापा का या उसकी मम्मी का कोई हाथ नहीं।''
      फिर एक लम्बी चुप छा गई। संदीप ने माँ का हाथ अपने हाथ में पकड़ा हुआ था। अचानक जस्सी ने अपना हाथ छुड़ा कर कहा-
      ''तेरी शादी उस लड़की से हर्गिज़ नहीं हो सकती।'' उसकी आवाज़ में बड़ी तल्ख़ी थी।
      ''पर क्यों मम्मी ?''
      ''क्योंकि वह ज्योति की बेटी है।''
      ''पर कोई कारण...''
      ''हाँ, मुख्य कारण तो यही है। तेरे पापा और ज्योति...।''
      ''मुझे सब पता है। पर वह तो कब का बीत चुका है। बहुत पुरानी बात है। उसका वर्तमान से कोई संबंध नहीं। वर्तमान से तो सिर्फ़ मेरा और रश्मि का संबंध है।''
      ''लेकिन मैं उस अतीत का फिर से ज़िन्दा होना कभी भी बर्दाश्त नहीं करूँगी।''
      ''आपको वहम है, मम्मी। आप इतना असुरक्षित क्यों महसूस करते हो। मम्मी, पापा की नज़रों में तुम्हारा जो स्थान है, उसे कोई दूसरा नहीं ले सकता।''
      ''मुझे तेरा भाषण नहीं सुनना। समझे! यह विवाह तो नहीं हो सकता। पक्की गांठ बांध ले आज से। लगा ले, ऐड़ी-चोटी का ज़ोर। लगता है, तू और तेरे पापा मेरे विरुद्ध मिल गए हो। मैं भी देखती हूँ...।''
      जस्सी ने रोना शुरू कर दिया। संदीप घबरा उठा। मम्मी का रोना वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह माँ को बांहों में लेकर बहुत देर तक शांत कराने की कोशिश करता रहा, पर जस्सी की सिसकियाँ और तेज़ होती चली गईं।
      ''मम्मी अब जाओ, सो जाओ। कल बात करेंगे।'' उसने माँ को बांहों से पकड़कर उठाया ओर दूसरे कमरे में छोड़ आया। वहाँ रघुबीर पहले ही विचारों में डूबा बैठा था।
      उस रात तीनों में से कोई भी नहीं सोया।
      दूसरे दिन जस्सी ने वापस जाने की जिद्द पकड़ ली। वह संदीप और रघुबीर के साथ कोई बात करने को तैयार नहीं थी।
      मुम्बई वापस लौटने के बाद जस्सी ने एक चुप धारण कर ली थी। वह दिन भर गुमसुम लेटी रहती। किसी काम में भी दिलचस्पी न लेती। सारा काम नौकरों के सहारे ही चल रहा था।
      रघुबीर की बीजी प्रेम ने एक दिन रघुबीर को समीप बिठाकर सारी बात उगलवा ली। पूरी बात सुनकर वह गंभीर हो गई। उसने इस बात का धुआँ भी रघुबीर के भापा जी के पास न पहुँचने दिया। एक दिन उसने संदीप को अपने कमरे में बुलाया और बहुत देर तक उसके साथ बातें करती रही।
      संदीप से ज्योति के घर का पता लेकर वह उसके घर पहुँच गईं। ज्योति को तो वह बहुत लम्बे अरसे के बाद देख रही थी। जब कोलीवाड़े में वे उनके पड़ोस में रहा करते थे, तब ज्योति अभी गुरु नानक स्कूल में ही पढ़ती थी। उसके बाद प्रेम का इधर से नाता ही टूट गया था। वह गई तो ज्योति को समझाने थी कि वह अपनी बेटी रश्मि को समझाए कि यह रिश्ता हो पाना कठिन है, पर ज्योति के घर में लगी पेटिंग्स, सलीके और सादगी से सजा हुआ अपार्टमेंट देखकर वह फूली न समाई। ज्योति का सीधा-सादा लिबास, कानों में छोटे-छोटे बुंदे, गले में छोटी-सी, पतली-सी चेन, एक हाथ में कड़ा, दूसरे में घड़ी। वह अपनी एक पेटिंग पूरी कर रही थी। रश्मि एक किताब पढ़ रही थी।
      'यह विवाह होकर रहेगा...।' यह वाक्य वह दिल ही दिल में दोहराती रही।
      घर वापस आई तो सीधे जस्सी के कमरे में चली गई।
      'कितना वजन बढ़ा लिया है। उस पर कितने गहनों का भार लाद रखा है। जिस्म थुल-थुल कर रहा है।' वह जस्सी को देखकर मन ही मन बुदबुदाती रही, लेकिन उससे बड़े प्यार से बोली-
      ''जस्सी बेटा, क्या हाल है ? क्या बात हो गई ? रघुबीर ने बताया कि तेरी तबीयत खराब हो गई ? डॉक्टर के पास गई ? ऐसे मायूस सी क्यों पड़ी है ?'' प्रेम जस्सी के सिर पर हाथ फेरते हुए सवाल पर सवाल कर रही थी।
      ''उठ बच्ची! तैयार हो। ज़रा बाहर ताज़ी हवा में चल। सब ठीक हो जाएगा। उठ मेरी बच्ची!''
      ये प्रेमभरे बोल सुनकर जस्सी फूट-फूटकर रोने लग पड़ी। उसका रोना थम ही नहीं रहा था। प्रेम उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दिलासा देती रही। ढाढ़स बँधाती रही। उसका माथा भी चूमा। उसके हाथ प्यार से दबाए। उठाकर उसका मुँह-हाथ धुलवाया और चाय बनाकर ले आई।
      उसने जस्सी को बाहर टैरेस पर ताजी हवा में अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया और सारी बात उससे उगलवा ली। सास को सारी बात बताकर वह हल्की हो गई। पूरी बात बता कर उसने एक लम्बा ठंडा नि:श्वास छोड़ा और चुप हो गई।
      प्रेम खामोश-सी सुनती रही।
      कुछ देर चुप रहने के पश्चात् जस्सी ने पुन: कहा, ''मुझे तो रघुबीर ने कभी प्यार किया ही नहीं। उसके दिल-दिमाग में तो ज्योति ही छाई रही...। बेटा भी बाप से मिल गया है। अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, मैं मर क्यों नहीं जाती...।''
      ''अरे! पागल कहीं की। मरें तेरे दुश्मन! फिर दिल छोड़ने वाली बातें लेकर बैठी है। तू अब रोना-धोना, ठंडी आहें भरना छोड़ दे। उठ, शेरनी बन।'' प्रेम बोली।
      जस्सी ने एकदम आँखें पोंछते हुए, सीधा बैठकर बड़े उत्साह में भरकर कहा, ''बीजी, फिर आप मेरा साथ दोगी न ? शुक्र है, आप मेरी हालत को समझते हो।'' उसके चेहरे पर अचानक रौनक आ गई थी। वह आशा भरी नज़रों से प्रेम बीजी के चेहरे की ओर देखते हुए बोली।
      प्रेम कुछ पल जस्सी को गौर से देखती रही, फिर बोली, ''जस्सी बेटी, प्यार लेने के लिए प्यार देना पड़ता है। कुर्बानी करनी पड़ती है। तू संदीप को प्यार करती है न ? तेरा एक ही बेटा है। उसका दिल तोड़कर न तू खुश रहेगी, न रघुबीर और न ही संदीप। अगर दूसरी परायी लड़की घर में आएगी, शायद वो भी खुश न रह सके। बच्चों की खुशी में ही माँ-बाप की खुशी होती है। तू अपने मन को समझा...।'' प्रेम निरंतर जस्सी के चेहरे के हाव-भाव देख रही थी। कुछ देर चुप रहने के बाद प्रेम बीजी फिर बोली-
      ''रघुबीर और ज्योति को लेकर तेरे दिल में जो वहम हैं, उन्हें निकाल दे। संदीप और रश्मि का इसमें भला क्या दोष है ? वो भला क्यों सज़ा भुगतें ? अब ज़माना बदल गया है। ज्योति अपने घर में सुखी है। उसका पति बड़ा प्यार करने वाला व्यक्ति है। तू ज्योति की तरफ से कोई चिंता न कर। यह गारंटी मेरी है।''
      जस्सी कुछ देर साँसें रोककर सिर झुकाकर चुपचाप सुनती रही और फिर बोली-
      ''भापा जी भी तो नहीं मानने वाले। रघुबीर के समय भी तो वे घर छोड़कर चले गए थे।''
      ''वो ज़माना और था। अब सबकुछ मेरे पर छोड़ दे। संदीप के खुशी के लिए मैं सब करुँगी। बस, तू खुशी खुशी सब स्वीकार कर ले। रोना-धोना छोड़ दे। अपने आप को ठीक कर। दुनिया देख किधर जा रही है।''
      जस्सी चुपचाप सब सुनती रही।
      रुपिन्दर चाची, प्रेम को बुलाने आ गई तो प्रेम जाते जाते फिर से जस्सी का सिर सहलाने लगी। उसका माथा चूमा और फिर वहाँ से चली गई।
      'क्या बीजी उनके साथ मिल गए हैं ? वो भी उनका साथ दे रहे हैं। क्या बीजी मेरे से खुश नहीं ? क्या उन्हें अभी भी ज्योति को लेकर अफ़सोस है ?''
      रात का अँधेरा पसर रहा था और जस्सी टैरेस पर गुमसुम बैठी, सोच-विचार में डूबी हुई थी।
      कुछ देर बाद बीजी का संदेशा मिला। वह बड़ी बेदिली से उठी तो देखा सारा परिवार बाबा जी के कमरे में था। वहाँ 'रहिरास' का पाठ चल रहा था। वह भी वहाँ जाकर बैठ गई, पर उसका मन पाठ में ज़रा भी नहीं लग रहा था।
(जारी…)

2 comments:

  1. aapne rishton ko bade maheen treeke se prastut kiya hai jo kabile tareeph hai.bade log aksar apne jahan men purani baton ko sambhale reh kar bachchon kii khushee ko jadtaa pradaan karne ke chakkar men kuchh bhee soch lete hain,jise aapne iss upanyaas men bade saleeke se varnan kiya hai tatha saphal dishaa dene kii koshish kii hai,sundar.

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  2. जी, आपने सही लिखा, आपके उपन्यास में भी यह उत्सुकता बनी हुई है… रोचक लग रहा है…

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