जीवन में किस पल क्या हो जाए, कुछ पता नहीं। परंतु, वक़्त बड़े-बड़े ज़ख़्म भर
देता है और ज़िन्दगी फिर अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है। उपन्यास ‘परतें’
के अन्तिम अध्याय में आप ऐसा ही कुछ पाएंगे। मुझे खुशी है कि आपने मेरे इस उपन्यास
को बड़े धैर्य के साथ धारावाहिक रूप में पढ़ा और अपनी प्रतिक्रियाओं के द्वारा मेरी
हौसला-अफ़जाई करते रहे। मैं आप सबका दिल से आभार व्यक्त करती हूँ।
शीघ्र ही, एक नये उपन्यास के साथ आपसे फिर मुखातिब होऊँगी।
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिन्दर कौर
19
अब ज़िन्दगी फिर
से अपनी रफ्तार से चल पड़ी थी। जस्सी ज्योति के घर जाकर रश्मि और जसप्रीत से मिल आती।
उनके घर जाकर वह पहले की भाँति तनाव-ग्रस्त न होती। उसके संग मिलकर खाना खाती। हँसती-चहचहाती।
उनके अपने परिवार में भी सब कुछ सहज हो गया था। संदीप और रघुबीर फिर से जस्सी के साथ
खुलकर बातें करते।
मुंबई में होटल उद्योग से संबंधित
एक बहुत बड़ी कांफ्रेंस होने वाली थी। दूर देशों के प्रतिनिधि आ रहे थे। रघुबीर का सारा
होटल बुक हो चुका था। इसलिए रघुबीर, संदीप और अन्य सभी का रात
में घर लौटने का समय निश्चित नहीं होता था।
दूसरे होटल में जयपुर से किसी
मारवाड़ी की बारात आकर ठहरी हुई थी। उन्होंने तीस कमरे बुक करवा रखे थे। तीसरे होटल
में ज्वैलिरी की प्रदर्शनी थी। वहाँ बड़े-बड़े व्यापारियों की पत्नियों, माँओं, बेटियों की आवाजाही लगी हुई थी।
एक रात घर वापसी पर संदीप ने रघुबीर
से कहा, ''पापा, जसप्रीत ज़रा बड़ा हो जाए
तो रश्मि को भी अपने काम में अपने संग लगाना चाहता हूँ। वह भी कुछ करना चाहती है। हमें
भी काम करने वाले कुछ और हाथों की ज़रूरत है। क्या ख़याल है पापा?''
''ख़याल तो नेक है ! पर अभी तो
जसप्रीत को उसकी अधिक ज़रूरत है।''
''पापा, आपने मम्मी को अपने साथ काम पर क्यों नहीं लगाया ?''
''बेटा, तब इसकी ज़रूरत नहीं समझी जाती थी। तब हालात ही कुछ और थे। फिर तेरी मम्मी ने
कोई इच्छा भी नहीं ज़ाहिर की, काम करने की।''
एक दिन खाने की मेज़ पर सब इकट्ठा
हुए तो लगभग सभी ने कहा कि अब जसप्रीत को ले आना चाहिए। निर्णय हुआ कि संदीप एक-दो
दिन में उसको ले आएगा। नानी के घर रहते हुए उसको करीब दो महीने हो गए थे।
एक शाम काम से फुर्सत पाकर वह
सीधा ज्योति के घर रश्मि को लेने के लिए चल पड़ा। ज्योति ने बहुत कहा कि वह खाना खाकर
जाएँ, पर संदीप नहीं माना। उसने कहा, ''आज डिनर अपने होटल में खाकर जाएँगे। जसप्रीत को आज अपना होटल दिखा दें।''
''घर में सब प्रतीक्षा कर रहे
होंगे।'' रश्मि बोली।
''कोई बात नहीं, मैं घर में फोन कर देता हूँ, मम्मी को।''
होटल में पहुँचे तो वहाँ काम करने
वाले सभी कर्मचारी जसप्रीत काके को देखकर गदगद हो गए। सबने उसका स्वागत किया।
जसप्रीत रश्मि की बाहों में बड़ी-बड़ी
आँखों से सबको देख रहा था। उसकी सेहत, उसके सुन्दर नयन-नक्श देख
देखकर सब खुश हो रहे थे।
खाना खाने के बाद वह बाहर निकले।
एक ड्राइवर कार की चाबी लेकर उनकी कार गेट तक ले आया।
''आज जसप्रीत को थोड़ी-सी बीच की
सैर भी करा दें।'' संदीप बड़े मूड में था।
''पर इतने छोटे बच्चे को बीच पर
इस वक्त ले जाना ठीक नहीं। घर ही चलते हैं।'' रश्मि ने कहा।
''अरे ! समुंदर की ठंडी हवा का
मजा इसको भी लेने दे। बस, एक चक्कर... कार में ही। बाहर लेकर
नहीं जाएँगे।''
संदीप ने ज़ोर दिया।
वे अभी कुछ ही दूर गए थे कि एक
मोड़ पर एक वैन ने आकर संदीप की कार को ओवर टेक करने की कोशिश की और वैन कार से टकरा
गई। उस तरफ़ रश्मि जसप्रीत को लेकर बैठी थी। वैन वाले ने भागना चाहा, पर उसकी वैन भी उलट गई।
उस वक्त बीच के उस हिस्से में
इक्का-दुक्का ही लोग थे। फिर भी कुछ लोग दौड़कर हादसे की जगह पर पहुँच गए। बड़ी मुश्किल
से संदीप को कार में से निकाला गया। वह बेहोश था। तब तक पुलिस भी आ गई। लोगों की भीड़
को हटा दिया गया। रश्मि और बच्चे को कार में से निकालते-निकालते समय लग गया क्योंकि
कार का दरवाज़ा टक्कर से जाम हो गया था। एम्बूलेंस जब तक उन सबको अस्पताल लेकर पहुँची
तब तक किसी ने उनके घर भी ख़बर कर दी थी।
ख़बर मिलते ही जस्सी और रघुबीर
अस्पताल पहुँच गए। उधर, ज्योति के घर भी ख़बर पहुँचा दी गई। ज्योति
और जसदेव भी जितनी जल्दी हो सकता था, अस्पताल पहुँच गए।
आई.सी.यू. में से सबसे पहले डॉक्टर
जसप्रीत को बाहर लेकर आए। वह बिलकुल ठीक था। संदीप और रश्मि अभी बेहोश ही थे।
सारी रात यूँ ही बीत गई। ज्योति,
जस्सी रो रोकर बेहाल थीं। हाथ जोड़-जोड़ कर परमात्मा से दुआ मांगतीं। रश्मि
और संदीप मुंबई के सबसे अच्छे अस्पताल में बड़े योग्य डॉक्टरों की देख-रेख में थे। किसी
चीज़ की कमी नहीं थी।
दूसरे दिन शाम को रश्मि दम तोड़
गई। डॉक्टर ने उसको रीवाइव करने की बहुत कोशिश की, पर वह इतने
ही साँस लिखवाकर आई थी।
संदीप अभी भी बेहोश था। बीच-बीच
में उसकी बेहोशी टूटती तो वह कुछ बुदबुदाता। ज्योति की हालत देखी न जाती। रश्मि का
पोस्टमार्टम होना था।
तीसरे दिन दोपहर में संदीप को
होश तो आ गया, पर वह उठ नहीं सकता था। उसकी टांग और बांह में
फ्रेक्चर था। पागलों जैसी हालत थी उसकी। वह रश्मि और जसप्रीत का नाम ले लेकर बेहाल था। शाम को जसप्रीत से उसको मिला दिया गया।
उसको यही बताया गया कि रश्मि साथ वाले रूम में है।
पूरा परिवार बेइंतहा पीड़ा से गुज़र
रहा था। रश्मि की मौत की ख़बर आख़िर संदीप से कब तक छिपाई जा सकती थी। यह ख़बर सुनकर वह
एकदम सुन्न हो गया। पत्थर की तरह। उसके पास जसप्रीत को लाया गया, पर तब भी वह पत्थर की मूर्ति बना रहा।
ज्योति को दिलासा देने वाले शब्द
झूठे लगते। किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि कोई क्या करे। जस्सी और रघुबीर का एक
पैर अस्पताल में होता, दूसरा ज्योति की तरफ़ ! जसप्रीत को तो रुपिंदर
चाची ही संभाल रही थी। जस्सी काके जसप्रीत को लेकर भी ज्योति की तरफ़ जाती, पर ज्योति को बहलाना बहुत ही कठिन कार्य था। ज्योति कभी विलाप कर कर रोती और
कभी पत्थर बन जाती।
संदीप को जब अस्पताल से घर लाया
गया तो उसने एक ही रट लगा दी कि वह ज्योति मम्मी से मिलना चाहता है। रघुबीर और जस्सी,
काके और संदीप को लेकर ज्योति के पास चले गए। वहाँ ज्योति और संदीप एक-दूसरे को देखकर
फूट फूटकर रोये। लगता था कि यह रोना कभी ख़त्म नहीं होगा। सारी बिल्डिंग की दीवारें
मानो हिल गई हों, मानो छत भी नीचे आ गिरेगी।
जस्सी और रघुबीर की आँखें भी लगातार
बरस रही थीं।
जसप्रीत के रोने की आवाज़ ने सबका
ध्यान बाँट दिया।
''मैं कुछ दिन ज्योति मम्मा के
पास रहना चाहता हूँ।'' संदीप ने कहा।
जस्सी बोली, ''बेटा, तेरी देखभाल तेरी ज्योति मम्मा से नहीं हो सकेगी।
उनकी अपनी हालत भी ठीक नहीं।''
''फिर आप भी यहीं रह जाओ,
जसप्रीत को लेकर।''
जस्सी ने तुरंत यह बात मान ली।
''सारा कसूर मेरा है। रश्मि ने
तो बहुत मना किया था। मैं ही उसको सी-बीच पर ले गया।'' संदीप
बार-बार यही कहता रहता।
घर के सदस्य उसको तसल्ली देते,
''जब आई हो तो बहाना बनना होता है। ईश्वर ने उसकी इतनी ही लिखी थी।''
पर संदीप के मन को चैन न आता।
''मैंने अब रश्मि को तहेदिल से स्वीकार कर लिया था, पर मुझे यह साबित करने
को मौका ही नहीं मिला।'' जस्सी मन ही मन सोचती और अपने आप को कोसती।
रघुबीर अधिकतर चुप ही रहता। बहुत परेशान होता तो बीजी के पास जाकर बैठ जाता। अब
वह होटल के कामों में बहुत कम दिलचस्पी लेता।
एक रश्मि के जाने के बाद सारा घर उजड़ गया था। घर की सारी रौनक रश्मि अपने संग ले
गई थी। किसी के चेहरे पर चमक नज़र न आती। भापा जी अरदास करने के समय भावुक हो जाते। उनकी आवाज़ भारी हो जाती।
अरदास में रश्मि की आत्मा को वाहेगुरु के चरणों में स्थान देने की बात करते और बाद
में सभी को इस असीम दुख को सहने की शक्ति देने के लिए अरदास करते।
जस्सी तो जैसे बांवली हुई पड़ी थी।
वह तो अपना बहुत सारा समय जसप्रीत को लेकर ज्योति के संग ही बिताती। उसको अपनी
सहेलियाँ, किट्टी पार्टियाँ, महफ़िलें, मेकअप, गहने-जेवर सब कुछ भूल चके थे।
ज्योति भी जसप्रीत को देख देखकर कुछ संभल रही थी। रश्मि के पिता जसदेव ने लंबे
अरसे बाद फिर से काम पर जाना प्रारंभ कर दिया था।
समय बहुत बलवान है। वह सबके ज़ख्मों को भरने का पूरा यत्न करता है। ज़िन्दगी जीने
की प्ररेणा देता है।
एक दिन भापा जी ने घर के सभी सदस्यों को इकट्ठा किया और इस दुख में से उभरने के
लिए प्रोत्साहित किया।
''काम में लगा आदमी अपने दुखों को कुछ हद तक भूल जाता है।'' भापा जी ने ज़ोर देते हुए
कहा।
उधर बच्चे की किलकारियों ने ज्योति और जस्सी को अपने साथ बाँध लिया था।
अब संदीप की दादी प्रेम और रुपिंदर चाची संदीप के लिए कोई
योग्य लड़की तलाशने की योजनाएँ बनाने लगी थीं।
-समाप्त-