Saturday, 15 December 2012

उपन्यास



जीवन में किस पल क्या हो जाए, कुछ पता नहीं। परंतु, वक़्त बड़े-बड़े ज़ख़्म भर देता है और ज़िन्दगी फिर अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है। उपन्यास परतें के अन्तिम अध्याय में आप ऐसा ही कुछ पाएंगे। मुझे खुशी है कि आपने मेरे इस उपन्यास को बड़े धैर्य के साथ धारावाहिक रूप में पढ़ा और अपनी प्रतिक्रियाओं के द्वारा मेरी हौसला-अफ़जाई करते रहे। मैं आप सबका दिल से आभार व्यक्त करती हूँ।
शीघ्र ही, एक नये उपन्यास के साथ आपसे फिर मुखातिब होऊँगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

19

अब ज़िन्दगी फिर से अपनी रफ्तार से चल पड़ी थी। जस्सी ज्योति के घर जाकर रश्मि और जसप्रीत से मिल आती। उनके घर जाकर वह पहले की भाँति तनाव-ग्रस्त न होती। उसके संग मिलकर खाना खाती। हँसती-चहचहाती। उनके अपने परिवार में भी सब कुछ सहज हो गया था। संदीप और रघुबीर फिर से जस्सी के साथ खुलकर बातें करते।
      मुंबई में होटल उद्योग से संबंधित एक बहुत बड़ी कांफ्रेंस होने वाली थी। दूर देशों के प्रतिनिधि आ रहे थे। रघुबीर का सारा होटल बुक हो चुका था। इसलिए रघुबीर, संदीप और अन्य सभी का रात में घर लौटने का समय निश्चित नहीं होता था।
      दूसरे होटल में जयपुर से किसी मारवाड़ी की बारात आकर ठहरी हुई थी। उन्होंने तीस कमरे बुक करवा रखे थे। तीसरे होटल में ज्वैलिरी की प्रदर्शनी थी। वहाँ बड़े-बड़े व्यापारियों की पत्नियों, माँओं, बेटियों की आवाजाही लगी हुई थी।
      एक रात घर वापसी पर संदीप ने रघुबीर से कहा, ''पापा, जसप्रीत ज़रा बड़ा हो जाए तो रश्मि को भी अपने काम में अपने संग लगाना चाहता हूँ। वह भी कुछ करना चाहती है। हमें भी काम करने वाले कुछ और हाथों की ज़रूरत है। क्या ख़याल है पापा?''
      ''ख़याल तो नेक है ! पर अभी तो जसप्रीत को उसकी अधिक ज़रूरत है।''
      ''पापा, आपने मम्मी को अपने साथ काम पर क्यों नहीं लगाया ?''
      ''बेटा, तब इसकी ज़रूरत नहीं समझी जाती थी। तब हालात ही कुछ और थे। फिर तेरी मम्मी ने कोई इच्छा भी नहीं ज़ाहिर की, काम करने की।''
      एक दिन खाने की मेज़ पर सब इकट्ठा हुए तो लगभग सभी ने कहा कि अब जसप्रीत को ले आना चाहिए। निर्णय हुआ कि संदीप एक-दो दिन में उसको ले आएगा। नानी के घर रहते हुए उसको करीब दो महीने हो गए थे।
      एक शाम काम से फुर्सत पाकर वह सीधा ज्योति के घर रश्मि को लेने के लिए चल पड़ा। ज्योति ने बहुत कहा कि वह खाना खाकर जाएँ, पर संदीप नहीं माना। उसने कहा, ''आज डिनर अपने होटल में खाकर जाएँगे। जसप्रीत को आज अपना होटल दिखा दें।''
      ''घर में सब प्रतीक्षा कर रहे होंगे।'' रश्मि बोली।
      ''कोई बात नहीं, मैं घर में फोन कर देता हूँ, मम्मी को।''
      होटल में पहुँचे तो वहाँ काम करने वाले सभी कर्मचारी जसप्रीत काके को देखकर गदगद हो गए। सबने उसका स्वागत किया।
      जसप्रीत रश्मि की बाहों में बड़ी-बड़ी आँखों से सबको देख रहा था। उसकी सेहत, उसके सुन्दर नयन-नक्श देख देखकर सब खुश हो रहे थे।
      खाना खाने के बाद वह बाहर निकले। एक ड्राइवर कार की चाबी लेकर उनकी कार गेट तक ले आया।
      ''आज जसप्रीत को थोड़ी-सी बीच की सैर भी करा दें।'' संदीप बड़े मूड में था।
      ''पर इतने छोटे बच्चे को बीच पर इस वक्त ले जाना ठीक नहीं। घर ही चलते हैं।'' रश्मि ने कहा।
      ''अरे ! समुंदर की ठंडी हवा का मजा इसको भी लेने दे। बस, एक चक्कर... कार में ही। बाहर लेकर नहीं जाएँगे।''
      संदीप ने ज़ोर दिया।
      वे अभी कुछ ही दूर गए थे कि एक मोड़ पर एक वैन ने आकर संदीप की कार को ओवर टेक करने की कोशिश की और वैन कार से टकरा गई। उस तरफ़ रश्मि जसप्रीत को लेकर बैठी थी। वैन वाले ने भागना चाहा, पर उसकी वैन भी उलट गई।
      उस वक्त बीच के उस हिस्से में इक्का-दुक्का ही लोग थे। फिर भी कुछ लोग दौड़कर हादसे की जगह पर पहुँच गए। बड़ी मुश्किल से संदीप को कार में से निकाला गया। वह बेहोश था। तब तक पुलिस भी आ गई। लोगों की भीड़ को हटा दिया गया। रश्मि और बच्चे को कार में से निकालते-निकालते समय लग गया क्योंकि कार का दरवाज़ा टक्कर से जाम हो गया था। एम्बूलेंस जब तक उन सबको अस्पताल लेकर पहुँची तब तक किसी ने उनके घर भी ख़बर कर दी थी।
      ख़बर मिलते ही जस्सी और रघुबीर अस्पताल पहुँच गए। उधर, ज्योति के घर भी ख़बर पहुँचा दी गई। ज्योति और जसदेव भी जितनी जल्दी हो सकता था, अस्पताल पहुँच गए।
      आई.सी.यू. में से सबसे पहले डॉक्टर जसप्रीत को बाहर लेकर आए। वह बिलकुल ठीक था। संदीप और रश्मि अभी बेहोश ही थे।
      सारी रात यूँ ही बीत गई। ज्योति, जस्सी रो रोकर बेहाल थीं। हाथ जोड़-जोड़ कर परमात्मा से दुआ मांगतीं। रश्मि और संदीप मुंबई के सबसे अच्छे अस्पताल में बड़े योग्य डॉक्टरों की देख-रेख में थे। किसी चीज़ की कमी नहीं थी।
      दूसरे दिन शाम को रश्मि दम तोड़ गई। डॉक्टर ने उसको रीवाइव करने की बहुत कोशिश की, पर वह इतने ही साँस लिखवाकर आई थी।
      संदीप अभी भी बेहोश था। बीच-बीच में उसकी बेहोशी टूटती तो वह कुछ बुदबुदाता। ज्योति की हालत देखी न जाती। रश्मि का पोस्टमार्टम होना था।
      तीसरे दिन दोपहर में संदीप को होश तो आ गया, पर वह उठ नहीं सकता था। उसकी टांग और बांह में फ्रेक्चर था। पागलों जैसी हालत थी उसकी। वह रश्मि और जसप्रीत का नाम ले लेकर बेहाल था। शाम को जसप्रीत से उसको मिला दिया गया। उसको यही बताया गया कि रश्मि साथ वाले रूम में है।
      पूरा परिवार बेइंतहा पीड़ा से गुज़र रहा था। रश्मि की मौत की ख़बर आख़िर संदीप से कब तक छिपाई जा सकती थी। यह ख़बर सुनकर वह एकदम सुन्न हो गया। पत्थर की तरह। उसके पास जसप्रीत को लाया गया, पर तब भी वह पत्थर की मूर्ति बना रहा।
      ज्योति को दिलासा देने वाले शब्द झूठे लगते। किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि कोई क्या करे। जस्सी और रघुबीर का एक पैर अस्पताल में होता, दूसरा ज्योति की तरफ़ ! जसप्रीत को तो रुपिंदर चाची ही संभाल रही थी। जस्सी काके जसप्रीत को लेकर भी ज्योति की तरफ़ जाती, पर ज्योति को बहलाना बहुत ही कठिन कार्य था। ज्योति कभी विलाप कर कर रोती और कभी पत्थर बन जाती।
      संदीप को जब अस्पताल से घर लाया गया तो उसने एक ही रट लगा दी कि वह ज्योति मम्मी से मिलना चाहता है। रघुबीर और जस्सी, काके और संदीप को लेकर ज्योति के पास चले गए। वहाँ ज्योति और संदीप एक-दूसरे को देखकर फूट फूटकर रोये। लगता था कि यह रोना कभी ख़त्म नहीं होगा। सारी बिल्डिंग की दीवारें मानो हिल गई हों, मानो छत भी नीचे आ गिरेगी।
      जस्सी और रघुबीर की आँखें भी लगातार बरस रही थीं।
      जसप्रीत के रोने की आवाज़ ने सबका ध्यान बाँट दिया।
      ''मैं कुछ दिन ज्योति मम्मा के पास रहना चाहता हूँ।'' संदीप ने कहा।
      जस्सी बोली, ''बेटा, तेरी देखभाल तेरी ज्योति मम्मा से नहीं हो सकेगी। उनकी अपनी हालत भी ठीक नहीं।''
      ''फिर आप भी यहीं रह जाओ, जसप्रीत को लेकर।''
      जस्सी ने तुरंत यह बात मान ली।
      ''सारा कसूर मेरा है। रश्मि ने तो बहुत मना किया था। मैं ही उसको सी-बीच पर ले गया।'' संदीप बार-बार यही कहता रहता।
      घर के सदस्य उसको तसल्ली देते, ''जब आई हो तो बहाना बनना होता है। ईश्वर ने उसकी इतनी ही लिखी थी।''
      पर संदीप के मन को चैन न आता।
      ''मैंने अब रश्मि को तहेदिल से स्वीकार कर लिया था, पर मुझे यह साबित करने को मौका ही नहीं मिला।'' जस्सी मन ही मन सोचती और अपने आप को कोसती।
      रघुबीर अधिकतर चुप ही रहता। बहुत परेशान होता तो बीजी के पास जाकर बैठ जाता। अब वह होटल के कामों में बहुत कम दिलचस्पी लेता।
      एक रश्मि के जाने के बाद सारा घर उजड़ गया था। घर की सारी रौनक रश्मि अपने संग ले गई थी। किसी के चेहरे पर चमक नज़र न आती। भापा जी अरदास करने के समय भावुक हो जाते। उनकी आवाज़ भारी हो जाती। अरदास में रश्मि की आत्मा को वाहेगुरु के चरणों में स्थान देने की बात करते और बाद में सभी को इस असीम दुख को सहने की शक्ति देने के लिए अरदास करते।
      जस्सी तो जैसे बांवली हुई पड़ी थी।
      वह तो अपना बहुत सारा समय जसप्रीत को लेकर ज्योति के संग ही बिताती। उसको अपनी सहेलियाँ, किट्टी पार्टियाँ, महफ़िलें, मेकअप, गहने-जेवर सब कुछ भूल चके थे।
      ज्योति भी जसप्रीत को देख देखकर कुछ संभल रही थी। रश्मि के पिता जसदेव ने लंबे अरसे बाद फिर से काम पर जाना प्रारंभ कर दिया था।
      समय बहुत बलवान है। वह सबके ज़ख्मों को भरने का पूरा यत्न करता है। ज़िन्दगी जीने की प्ररेणा देता है।
      एक दिन भापा जी ने घर के सभी सदस्यों को इकट्ठा किया और इस दुख में से उभरने के लिए प्रोत्साहित किया।
      ''काम में लगा आदमी अपने दुखों को कुछ हद तक भूल जाता है।'' भापा जी ने ज़ोर देते हुए कहा।
      उधर बच्चे की किलकारियों ने ज्योति और जस्सी को अपने साथ बाँध लिया था।
      अब संदीप की दादी प्रेम और रुपिंदर चाची संदीप के लिए कोई योग्य लड़की तलाशने की योजनाएँ बनाने लगी थीं।
-समाप्त-

Saturday, 1 December 2012

उपन्यास



मनुष्य-मन भी कैसा है। इस पल कुछ, अगले पल कुछ। जीवन भर मनुष्य को अपने आप से मुलाकात करने की फुसरत ही नहीं मिलती। वह अपने अन्दर झांकने का समय ही नहीं निकाल पाता और न ही अपने आप से बात कर पाता है। ऐसा भी संभव है कि वह अपने भीतर के अंधेरों, बुराइयों से डरता हो और कन्नी काटता रहता हो, इस आमने-सामने से ? परतें की पात्रा जस्सी भी तो यही करती रही। जब उसने अपने आप से मुलाकात की, अपने भीतर झांका और बातें की, तो उसे अपनी कमज़ोरियों का अहसास हुआ। हमें जीवन की भाग दौड़ में अपने आप से मुलाकात अवश्य करते रहना चाहिए।



उपन्यास परतें की 18 वीं किस्त आपके समक्ष है। आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर


18

हजूर साहिब पहुँच कर जस्सी की आँखों के आगे हर वक्त काके की प्यारी-सी शक्ल घूमती रहती। उसके नरम-नरम हाथ-पैर ! वह नींद में से कई बार हड़बड़ाकर उठ बैठती। प्रेम तो मुंबई जाने का अभी नाम ही नहीं लेना चाहती थी। उन्होंने सब गुरुद्वारों के दर्शन कर लिए थे। वे पाठ करतीं। पाठ सुनतीं। कीर्तन का आनन्द लेतीं। जस्सी का मन अक्सर उखड़ जाता। वह मुंबई फोन करके बच्चे का हाल पूछती रहती।
      ''बीजी, अब वापस चलना चाहिए। काके के बगैर मेरा दिल नहीं लग रहा। जब से वह पैदा हुआ है, मेरे पास ही रहता था। पता नहीं, रश्मि उसको कैसे संभालती होगी।'' जस्सी ने बीजी को वापस जाने के लिए मनाने की कोशिश की।
      ''रश्मि की मम्मी भी है न! संभालने दे उसको कुछ दिन। अब आए हैं तो कुछ दिन और यहाँ रह लें। कहाँ रोज़-रोज़ घर से निकलना होता है।'' बीजी ने जस्सी के दोनों हाथ पकड़ कर कहा।
      जस्सी चुप लगा गई।
      एक दिन प्रेम ने कहा, ''जस्सी बेटा, तूने मेरी एक इच्छा तो पूरी कर दी है। एक इच्छा और पूरी कर दे।'' बेहद अनुनय करते हुए वह बोली।
      ''आपका मतलब ?'' जस्सी ने हैरान होकर पूछा।
      ''यहाँ नज़दीक ही औरंगाबाद है। वहाँ मेरा भतीजा रहता है। मेरे स्वर्गवासी भाई की निशानी।'' बीजी का स्वर भारी हो गया था।
      ''मेरी इच्छा है, मैं उसको मिलती हुई जाऊँ। इतनी दूर आई हूँ। फिर कहाँ आना होगा मेरा इस तरफ़। अब तू मेरे संग आई है तो साथ तो पूरा निभाना पड़ेगा। ना मत करना।''
      जस्सी ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
      औरंगाबाद जाकर जस्सी का मन खूब लग गया। बीजी के भतीजे के बच्चे बहुत ही रौनक लगाने वाले थे। वह जस्सी को अजंता-एलोरा की गुफाएँ दिखाने ले गए। बीजी ने कहा, ''मैं अपनी जवानी में यहाँ के सभी स्थल देख चुकी हूँ। अब तो मैं इतना चल नहीं सकती, तू जा, देखकर खुश होगी।''
      वे दो दिन के लिए औरंगाबाद का प्रोग्रोम बनाकर आए थे, पर बीजी का भतीजा, उन्हें वहाँ से हिलने ही नहीं दे रहा था। कल, आज करते सप्ताह निकल गया।
      जस्सी ने संदीप को फोन करके कहा कि उसके मुंबई पहुँचने से पहले वह रश्मि और काके को जाकर ले आए।
      जस्सी और प्रेम जब मुंबई पहुँचीं तो रश्मि अभी भी मायके में थी। वह बहुत झुंझलाई पर, संदीप ने कहा, ''अभी वह अपनी मम्मी के पास कुछ दिन और रहना चाहती है तो रहने दो, मम्मी। अब आप कुछ दिनों के लिए आराम करो। जसप्रीत की नानी को सेवा करने का अवसर मिला है तो करने दो।''
      जस्सी चुप रही।
      उसने अपनी कुछ सहेलियों को फोन किए। एक सहेली से मिलने भी गई। लेकिन उसका दिल कहीं नहीं लगा।
      एक दिन वह रुपिंदर चाची के पास जा बैठी। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद बातों का विषय रश्मि और जसप्रीत पर केन्द्रित हो गया।
      ''तू इतनी उदास है, तो जाकर मिल आ उनसे।'' रुपिंदर चाची ने कहा।
      ''पर वहाँ वो माँ-बेटी भी तो होंगी।'' अकस्मात् जस्सी के मुँह से निकल गया। रुपिंदर आश्यर्चचकित-सी जस्सी की ओर देखती रह गई। जस्सी एकदम झेंप गई।
      ''तो क्या अभी भी उनके लिए तेरे दिल में कड़वाहट है ? घर में मैंने किसी को कहते सुना था कि तू हर वक्त जसप्रीत को अपने कब्ज़े में इसलिए रखती है ताकि तू ज्योति और रश्मि से बदला ले सके। मैंने यह बात मानी नहीं थी। परन्तु आज अचानक तेरे मुँह से यह जो निकला है... उफ्फ ! जस्सी तेरे से मुझे यह उम्मीद नहीं थी। दिल बड़ा कर। अपने दिल में से नफ़रत निकाल दे। यह नफ़रत तुझे ही नुकसान पहुँचा रही है। रघुबीर का अपना परिवार है, ज्योति का अपना परिवार। दोनों ने बहुत पहले अपने अपने रास्ते अलग कर लिए थे, परन्तु संयोग से रास्ते फिर आपस में मिल गए। पर उन्होंने तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा। तूने खुद ही संदीप और रघुबीर को अपने से दूर कर रखा है। मुझे तो लगता था कि दादी बनने के बाद तू बदल गई है...।'' रुपिंदर चाची बहुत कुछ कहती रही। जस्सी सब सुनती रही, बोली कुछ नहीं।
      जस्सी को रुपिंदर की बातों ने काफ़ी झिंझोड़ दिया था। वह अपने कमरे में आ गई। वह बहुत बेचैन हो गई थी। न कमरे में चैन, न बाहर टैरेस पर। उसने टी.वी. ऑन किया। दिल नहीं लगा। कुछ देर की छटपटाहट के बाद वह कार लेकर घर से बाहर निकल गई। बहुत देर तक यूँ ही कार में घूमती रही। उसे पता ही न चला कि कब वह मैरीन लाइन्ज़ पहुँच गई थी। वहाँ वह दीवार पर जाकर बैठ गई। समुद्र की उठती लहरों को देखती रही। उसके मन में एक तूफान मचा हुआ था। वह अपनी भावनाओं को समझने की कोशिश कर रही थी।
      ''क्या घर के सभी सदस्य मेरे भीतर उठते भावों को समझते थे, जानते थे ? क्या मैं जसप्रीत को इतना प्यार इसलिए करती थी कि रश्मि को चोट पहुँचे। क्या मैं यह सब कुछ जान-बूझकर कर रही थी या अनजाने में ?'' अपने मन की उथल-पुथल में वह उत्तर तलाशने की कोशिश कर रही थी।
      दूर क्षितिज पर सूर्य समुन्दर में समा रहा था। वह बडे गौर से डूबते हुए सूर्य को देखती रही। आसपास जहाँ तक नज़र जाती, आकाश में, पानी में लालिमा छाई थी। कुछ देर वह उस बिखरे सिंदूरी रंग का आनन्द लेती रही। यह दृश्य वह पहली बार नहीं देख रही थी। परन्तु जब भी वह इस दृश्य को देखती, उसका मन उदासी से भर जाता।
      अँधेरा पसरने लग पड़ा था। कुछ देर वह आँखें मूंदे बैठी रही। अचानक उसका ध्यान आसपास के लोगों की ओर गया। दूर-दूर तक दायें-बायें लोग दीवार पर बैठे थे। कुछ युगल, कुछ बच्चों के संग, कुछ अकेले। कुछ हटकर एक नारियलवाला नारियल बेच रहा था।
      जस्सी को एकाएक प्यास लग आई। वह उठी और नारियल लेकर नारियल पानी हल्के-हल्के सिप करने लगी। सींगदाने वाला करीब से गुज़रा तो उसने एक पैकेट खरीद लिया। उसे अपना पुराना ज़माना याद आ गया, जब वह कालेज की लड़कियों के साथ इसी तरह घूमने निकल जाती थी। लड़कियाँ कभी भेलपूरी, कभी पाव-भाजी, भजिया(पकौड़े) या सींगदाना, चना लेकर खाया करती थीं। वह समय कितना पीछे छूट गया था। वो सपनों की दुनिया पता नहीं कहाँ लुप्त हो गई थी।
      वह गुज़रे ज़माने की याद में ही खोई हुई थी कि करीब ही एक भिखारिन ने उसकी बांह को छुआ। उसने एक बच्चा गोद में उठा रखा था। दूसरे बच्चे को उसने उंगली लगा रखा था। वह कुछ मांग रही थी। उसकी आवाज़, उसके हाव-भाव, सबमें मिन्नत-याचना भरी हुई थी। कोई और समय होता तो वह डांट-डपट देती, पर आज उसके मन की स्थिति कुछ ऐसी थी कि उसने भिखारिन को नारियल लेकर दिया और कुछ पैसे भी दे दिए।
      वह पुन: वहाँ बैठकर अपने बारे में सोचने लग पड़ी।
      ''मैंने खुद ही अपने इर्दगिर्द मकड़ी का जाला बुन लिया है और उसी में फंसी पड़ी हूँ...। मैंने स्वयं ही अपने पुत्र को अपने आप से दूर किया है। रघुबीर भी मेरे बारे में क्या सोचता होगा।''
      रात काफ़ी घिर आई थी। आसपास भीड़ कम हो रही थी। परंतु उसका दिल वहाँ से उठने को नहीं हो रहा था। हवा में सुखद ठंडक थी। उसके मन को बड़ा सुकून मिल रहा था।
      ''मैं इस तरह बग़ैर बताये कभी घर से बाहर तो रही नहीं। शायद, मेरी खोज शुरू हो गई हो। मुझे घर लौट जाना चाहिए। घर में खबर कर देनी चाहिए। घर पहुँचने में भी तो वक्त लगेगा।''
      लेकिन, जस्सी न वहाँ से उठी और न ही उसने घर में फोन किया। इसी तरह कु समय और बीत गया। अचानक उसको लगा कि वह बीच पर अकेली रह गई है। उसने दायें-बायें दृष्टि घुमाई तो दीवार पर इक्के-दुक्के लोग ही बैठे थे। वह एकदम उठकर कार की ओर दौड़ पड़ी। राह में कई जगह ट्रैफिक जाम होने के कारण घर पहुँचने में उसको काफ़ी समय लग गया।
      घर पहुँची तो देखा, सारा परिवार हॉल में इकट्ठा हुआ पड़ा था। सबके चेहरों पर चिंता और घबराहट थी। उसे देखकर सभी उससे कुछ न कुछ पूछने लग पड़े-
      ''कहाँ गई थी ? क्या हुआ ?''
      ''तबीयत तो ठीक है न ?''
      उसको कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह क्या उत्तर दे।
      ''मैं बिलकुल ठीक हूँ।'' वह चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट लाकर बोली।
      रुपिंदर चाची उसके पास आकर बैठी और धीमे स्वर में पूछा-
      ''मेरी बात का बुरा मान गई थी ?''
      ''नहीं, चाची जी। ऐसी कोई बात नहीं।'' उसने चाची का हाथ दबाते हुए कहा।
      सब लोग चले गए तो संदीप मम्मी के पास आ बैठा, ''मम्मी, आप ठीक हो न ?''
      ''हाँ-हाँ, बिलकुल ठीक हूँ। वैसे ही आज ज़रा समुन्दर के किनारे चली गई थी।''
      ''रश्मि भी बड़ी चिंता कर रही थी। उसको मैंने फोन पर बता दिया है कि आप घर आ गए हो।''
      ''उसका नंबर मिला दे, मैं उसके साथ बात करती हूँ।''
      बहुत सहजभाव ने जस्सी रश्मि से बातें करती रही। काके का हाल पूछती रही। उसके बाद उसने ज्योति के साथ भी बड़ी देर तक बात की।
      घर के सभी सदस्यों ने राहत की साँस ली। रघुबीर अपने कमरे में आया तो जस्सी को अपने आलिंगन में लेते हुए बोला, ''तुमने तो हमें डरा ही दिया था।'' उस रात वे इस तरह मिले जैसे बरसों से बिछड़े हों।
(जारी…)