मनुष्य-मन भी कैसा है। इस पल कुछ, अगले पल कुछ। जीवन भर मनुष्य को अपने आप
से मुलाकात करने की फुसरत ही नहीं मिलती। वह अपने अन्दर झांकने का समय ही नहीं
निकाल पाता और न ही अपने आप से बात कर पाता है। ऐसा भी संभव है कि वह अपने भीतर के
अंधेरों, बुराइयों से डरता हो और कन्नी काटता रहता हो, इस आमने-सामने से ? ‘परतें’ की पात्रा जस्सी भी तो यही करती रही। जब उसने अपने आप से मुलाकात की,
अपने भीतर झांका और बातें की, तो उसे अपनी कमज़ोरियों का अहसास हुआ। हमें जीवन की
भाग दौड़ में अपने आप से मुलाकात अवश्य करते रहना चाहिए।
उपन्यास ‘परतें’ की 18 वीं किस्त आपके समक्ष है। आशा है, आप पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय
से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिन्दर कौर
18
हजूर साहिब पहुँच
कर जस्सी की आँखों के आगे हर वक्त काके की प्यारी-सी शक्ल घूमती रहती। उसके नरम-नरम
हाथ-पैर ! वह नींद में से कई बार हड़बड़ाकर उठ बैठती। प्रेम तो मुंबई जाने का अभी नाम
ही नहीं लेना चाहती थी। उन्होंने सब गुरुद्वारों के दर्शन कर लिए थे। वे पाठ करतीं।
पाठ सुनतीं। कीर्तन का आनन्द लेतीं। जस्सी का मन अक्सर उखड़ जाता। वह मुंबई फोन करके
बच्चे का हाल पूछती रहती।
''बीजी, अब वापस चलना चाहिए। काके के बगैर मेरा दिल नहीं लग रहा। जब से वह पैदा हुआ
है, मेरे पास ही रहता था। पता नहीं, रश्मि
उसको कैसे संभालती होगी।'' जस्सी ने बीजी को वापस जाने के लिए
मनाने की कोशिश की।
''रश्मि की मम्मी भी है न! संभालने
दे उसको कुछ दिन। अब आए हैं तो कुछ दिन और यहाँ रह लें। कहाँ रोज़-रोज़ घर से निकलना
होता है।'' बीजी ने जस्सी के दोनों हाथ पकड़ कर कहा।
जस्सी चुप लगा गई।
एक दिन प्रेम ने कहा,
''जस्सी बेटा, तूने मेरी एक इच्छा तो पूरी कर
दी है। एक इच्छा और पूरी कर दे।'' बेहद अनुनय करते हुए वह बोली।
''आपका मतलब ?'' जस्सी ने हैरान होकर पूछा।
''यहाँ नज़दीक ही औरंगाबाद है।
वहाँ मेरा भतीजा रहता है। मेरे स्वर्गवासी भाई की निशानी।'' बीजी
का स्वर भारी हो गया था।
''मेरी इच्छा है, मैं उसको मिलती हुई जाऊँ। इतनी दूर आई हूँ। फिर कहाँ आना होगा मेरा इस तरफ़।
अब तू मेरे संग आई है तो साथ तो पूरा निभाना पड़ेगा। ना मत करना।''
जस्सी ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
औरंगाबाद जाकर जस्सी का मन खूब
लग गया। बीजी के भतीजे के बच्चे बहुत ही रौनक लगाने वाले थे। वह जस्सी को अजंता-एलोरा
की गुफाएँ दिखाने ले गए। बीजी ने कहा, ''मैं अपनी जवानी में यहाँ
के सभी स्थल देख चुकी हूँ। अब तो मैं इतना चल नहीं सकती, तू जा,
देखकर खुश होगी।''
वे दो दिन के लिए औरंगाबाद का
प्रोग्रोम बनाकर आए थे, पर बीजी का भतीजा, उन्हें वहाँ से हिलने ही नहीं दे रहा था। कल, आज करते
सप्ताह निकल गया।
जस्सी ने संदीप को फोन करके कहा
कि उसके मुंबई पहुँचने से पहले वह रश्मि और काके को जाकर ले आए।
जस्सी और प्रेम जब मुंबई पहुँचीं
तो रश्मि अभी भी मायके में थी। वह बहुत झुंझलाई पर, संदीप ने
कहा, ''अभी वह अपनी मम्मी के पास कुछ दिन और रहना चाहती है तो
रहने दो, मम्मी। अब आप कुछ दिनों के लिए आराम करो। जसप्रीत की
नानी को सेवा करने का अवसर मिला है तो करने दो।''
जस्सी चुप रही।
उसने अपनी कुछ सहेलियों को फोन
किए। एक सहेली से मिलने भी गई। लेकिन उसका दिल कहीं नहीं लगा।
एक दिन वह रुपिंदर चाची के पास
जा बैठी। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद बातों का विषय रश्मि और जसप्रीत पर
केन्द्रित हो गया।
''तू इतनी उदास है, तो जाकर मिल आ उनसे।'' रुपिंदर चाची ने कहा।
''पर वहाँ वो माँ-बेटी भी तो होंगी।''
अकस्मात् जस्सी के मुँह से निकल गया। रुपिंदर आश्यर्चचकित-सी जस्सी की
ओर देखती रह गई। जस्सी एकदम झेंप गई।
''तो क्या अभी भी उनके लिए तेरे
दिल में कड़वाहट है ? घर में मैंने किसी को कहते सुना था कि तू
हर वक्त जसप्रीत को अपने कब्ज़े में इसलिए रखती है ताकि तू ज्योति और रश्मि से बदला
ले सके। मैंने यह बात मानी नहीं थी। परन्तु आज अचानक तेरे मुँह से यह जो निकला है...
उफ्फ ! जस्सी तेरे से मुझे यह उम्मीद नहीं थी। दिल बड़ा कर। अपने दिल में से नफ़रत निकाल
दे। यह नफ़रत तुझे ही नुकसान पहुँचा रही है। रघुबीर का अपना परिवार है, ज्योति का अपना परिवार। दोनों ने बहुत पहले अपने अपने रास्ते अलग कर लिए थे,
परन्तु संयोग से रास्ते फिर आपस में मिल गए। पर उन्होंने तेरा कुछ नहीं
बिगाड़ा। तूने खुद ही संदीप और रघुबीर को अपने से दूर कर रखा है। मुझे तो लगता था कि
दादी बनने के बाद तू बदल गई है...।'' रुपिंदर चाची बहुत कुछ कहती
रही। जस्सी सब सुनती रही, बोली कुछ नहीं।
जस्सी को रुपिंदर की बातों ने
काफ़ी झिंझोड़ दिया था। वह अपने कमरे में आ गई। वह बहुत बेचैन हो गई थी। न कमरे में चैन,
न बाहर टैरेस पर। उसने टी.वी. ऑन किया। दिल नहीं लगा। कुछ देर की छटपटाहट
के बाद वह कार लेकर घर से बाहर निकल गई। बहुत देर तक यूँ ही कार में घूमती रही। उसे
पता ही न चला कि कब वह मैरीन लाइन्ज़ पहुँच गई थी। वहाँ वह दीवार पर जाकर बैठ गई। समुद्र
की उठती लहरों को देखती रही। उसके मन में एक तूफान मचा हुआ था। वह अपनी भावनाओं को
समझने की कोशिश कर रही थी।
''क्या घर के सभी सदस्य मेरे भीतर
उठते भावों को समझते थे, जानते थे ? क्या
मैं जसप्रीत को इतना प्यार इसलिए करती थी कि रश्मि को चोट पहुँचे। क्या मैं यह सब कुछ
जान-बूझकर कर रही थी या अनजाने में ?'' अपने मन की उथल-पुथल में
वह उत्तर तलाशने की कोशिश कर रही थी।
दूर क्षितिज पर सूर्य समुन्दर
में समा रहा था। वह बडे गौर से डूबते हुए सूर्य को देखती रही। आसपास जहाँ तक नज़र जाती,
आकाश में, पानी में लालिमा छाई थी। कुछ देर वह
उस बिखरे सिंदूरी रंग का आनन्द लेती रही। यह दृश्य वह पहली बार नहीं देख रही थी। परन्तु
जब भी वह इस दृश्य को देखती, उसका मन उदासी से भर जाता।
अँधेरा पसरने लग पड़ा था। कुछ देर
वह आँखें मूंदे बैठी रही। अचानक उसका ध्यान आसपास के लोगों की ओर गया। दूर-दूर तक दायें-बायें
लोग दीवार पर बैठे थे। कुछ युगल, कुछ बच्चों के संग, कुछ अकेले। कुछ हटकर एक नारियलवाला नारियल बेच रहा था।
जस्सी को एकाएक प्यास लग आई। वह
उठी और नारियल लेकर नारियल पानी हल्के-हल्के सिप करने लगी। सींगदाने वाला करीब से गुज़रा
तो उसने एक पैकेट खरीद लिया। उसे अपना पुराना ज़माना याद आ गया, जब वह कालेज की लड़कियों के साथ इसी तरह घूमने निकल जाती थी। लड़कियाँ कभी भेलपूरी,
कभी पाव-भाजी, भजिया(पकौड़े) या सींगदाना,
चना लेकर खाया करती थीं। वह समय कितना पीछे छूट गया था। वो सपनों की
दुनिया पता नहीं कहाँ लुप्त हो गई थी।
वह गुज़रे ज़माने की याद में ही
खोई हुई थी कि करीब ही एक भिखारिन ने उसकी बांह को छुआ। उसने एक बच्चा गोद में उठा
रखा था। दूसरे बच्चे को उसने उंगली लगा रखा था। वह कुछ मांग रही थी। उसकी आवाज़,
उसके हाव-भाव, सबमें मिन्नत-याचना भरी हुई थी।
कोई और समय होता तो वह डांट-डपट देती, पर आज उसके मन की स्थिति
कुछ ऐसी थी कि उसने भिखारिन को नारियल लेकर दिया और कुछ पैसे भी दे दिए।
वह पुन: वहाँ बैठकर अपने बारे
में सोचने लग पड़ी।
''मैंने खुद ही अपने इर्दगिर्द
मकड़ी का जाला बुन लिया है और उसी में फंसी पड़ी हूँ...। मैंने स्वयं ही अपने पुत्र को
अपने आप से दूर किया है। रघुबीर भी मेरे बारे में क्या सोचता होगा।''
रात काफ़ी घिर आई थी। आसपास भीड़
कम हो रही थी। परंतु उसका दिल वहाँ से उठने को नहीं हो रहा था। हवा में सुखद ठंडक थी।
उसके मन को बड़ा सुकून मिल रहा था।
''मैं इस तरह बग़ैर बताये कभी घर
से बाहर तो रही नहीं। शायद, मेरी खोज शुरू हो गई हो। मुझे घर
लौट जाना चाहिए। घर में खबर कर देनी चाहिए। घर पहुँचने में भी तो वक्त लगेगा।''
लेकिन, जस्सी
न वहाँ से उठी और न ही उसने घर में फोन किया। इसी तरह कुछ समय और बीत गया।
अचानक उसको लगा कि वह बीच पर अकेली रह गई है। उसने दायें-बायें दृष्टि घुमाई तो दीवार
पर इक्के-दुक्के लोग ही बैठे थे। वह एकदम उठकर कार की ओर दौड़ पड़ी। राह में कई जगह ट्रैफिक
जाम होने के कारण घर पहुँचने में उसको काफ़ी समय लग गया।
घर पहुँची तो देखा, सारा परिवार हॉल में इकट्ठा हुआ पड़ा था। सबके चेहरों पर चिंता और घबराहट थी।
उसे देखकर सभी उससे कुछ न कुछ पूछने लग पड़े-
''कहाँ गई थी ? क्या हुआ ?''
''तबीयत तो ठीक है न ?''
उसको कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह
क्या उत्तर दे।
''मैं बिलकुल ठीक हूँ।''
वह चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट लाकर बोली।
रुपिंदर चाची उसके पास आकर बैठी
और धीमे स्वर में पूछा-
''मेरी बात का बुरा मान गई थी
?''
''नहीं, चाची जी। ऐसी कोई बात नहीं।'' उसने चाची का हाथ दबाते
हुए कहा।
सब लोग चले गए तो संदीप मम्मी
के पास आ बैठा, ''मम्मी, आप ठीक हो न ?''
''हाँ-हाँ, बिलकुल ठीक हूँ। वैसे ही आज ज़रा समुन्दर के किनारे चली गई थी।''
''रश्मि भी बड़ी चिंता कर रही थी।
उसको मैंने फोन पर बता दिया है कि आप घर आ गए हो।''
''उसका नंबर मिला दे, मैं उसके साथ बात करती हूँ।''
बहुत सहजभाव ने जस्सी रश्मि से
बातें करती रही। काके का हाल पूछती रही। उसके बाद उसने ज्योति के साथ भी बड़ी देर तक
बात की।
घर के सभी सदस्यों ने राहत की
साँस ली। रघुबीर अपने कमरे में आया तो जस्सी को अपने आलिंगन में लेते हुए बोला,
''तुमने तो हमें डरा ही दिया था।'' उस रात वे इस
तरह मिले जैसे बरसों से बिछड़े हों।
(जारी…)
kisht bahut achchi lagi ...upnyas aage padhne ki jigyasa jagi ...is blog par aaee tab tk mai nahi janti thi ki mai ek suvikhyayat lekhika se mil rahi hoon ...vadhaiyan...
ReplyDeleteबहुत अच्छा लग रहा है जस्सी का यूं अपने भीतर झांकना और अपने किए हुए की समीक्षा करना। इस किस्त में भी पाठक को बांध लेने की भरपूर क्षमता दिखाई दी। बधाई !
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