मित्रो, आप सबको 64 वें गणतंत्र दिवस की बधाई और शुभकामनाएँ। एक बार फिर
आपके सम्मुख हूँ। मेरे पिछले उपन्यास ‘परतें’ को आपने
धारावाहिक रूप में पढ़ा और अपनी बहुमूल्य राय से मुझे अवगत कराते रहे। साथ ही मेरी
हौसला-अफ़जाई भी करते रहे। यह उसी हौसला-अफ़जाई का ही नतीजा है कि मैं पुन: अपने
दूसरे उपन्यास ‘तेरे लिए नहीं’ के हिंदी अनुवाद के साथ आपके समक्ष हूँ। यह
उपन्यास पंजाबी में वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ था और पंजाबी पाठकों द्बारा सराहा
गया था। आज के दिन यानी 26 जनवरी, 13 (गणतंत्र दिवस) से हिंदी के सुहृदय पाठकों के
सम्मुख धारावाहिक रूप में इसका शुभारंभ कर रही हूँ। आशा है आप,पहले की तरह अपनी
बेबाक टिप्पणी से मुझे अवगत कराते रहेंगे।
-राजिन्दर कौर
तेरे लिए नहीं
राजिन्दर कौर
1
स्वाति ने फोन
पर बहुत आग्रह किया कि हम बबली की शादी पर अवश्य आएँ। रात की बारात थी। इन्द्र दिल्ली
से बाहर गया हुआ था। मैंने अमृता और सिमर को संग लेकर जाने का विचार बनाया। उस रात
आकाश में बादल बेहद काले और घने थे। पिछले कई दिन से लगभग प्रतिदिन ही बारिश हो रही
थी। विकास पुरी का इलाका मेरे लिए नया था। हमने यही फैसला किया कि ऑटो-रिक्शा लेकर
जाएँगे। शगुन देकर शीघ्र ही लौट आएँगे। यही सोचकर हम घर से जल्दी निकल पड़े।
बैंकुइट हॉल ढूँढ़ने में हमें अधिक
दिक्कत नहीं हुई। वहाँ पहुँचे तो घर-परिवार के सदस्यों के सिवाय अभी अधिक लोग नहीं
आए थे।
स्वाति हमें देखकर बहुत खुश हुई।
''भाभी जी, बहुत अच्छा किया, आप आ गए।'' वह
बड़ी गर्मजोशी से मेरे गले मिली।
''तुम बहुत सुंदर लग रही हो।''
मैंने कहा।
उसके चेहरे पर शर्म और खुशी के
मिले-जुले भाव उभर आए। वह आगे बढ़कर अमृता और सिमर से मिली।
''सिमर की शक्ल बिल्कुल अपने दादा
पर गई है। वही नैन-नक्श... क्या ख़याल है भाभी जी ?''
मैंने हल्का-सा मुस्करा कर 'हाँ' कर दी।
''सब कहते हैं कि यह इन्द्र की
कॉपी है।'' अमृता बोली।
''इन्द्र अपने डैडी की कॉपी है,
इसलिए।'' स्वाति चहक कर बोल रही थी।
मैं स्वाति की बड़ी दीदी माला को
मिलने के लिए आगे बढ़ गई। मैंने उन्हें बधाई दी। उन्होंने सिल्क-जार्जेट की बड़ी सुंदर
साड़ी पहन रखी थी। जूड़े का स्टाइल भी बदला हुआ था। सफेद फूलों का गजरा जूड़े में शोभित
था। गले का मंगलसूत्र भी चमक रहा था। वह अपनी आयु से बहुत कम लग रही थी।
सिमर जगमग करती रोशनियाँ देखकर
बड़ी खुश थी। उसको स्वाति के परिवार के सदस्य बारी-बारी से उठाकर प्यार कर रहे थे।
तभी मेरी दृष्टि सुजाता पर चली
गई। मैं उसे आश्चर्य से देखती ही रह गई। लगता था कि वह ब्यूटी-पॉर्लर से तैयार होकर
आई है। उस पर पहली नज़र पड़ी तो मैंने उसे पहचाना ही नहीं। वह मुस्कराती हुई मेरी ओर
ही आ रही थी। ऐसी खिली हुई मुस्कान तो मैंने कभी भी उसके चेहरे पर नहीं देखी थी। वह
मेरे गले में बांहें डालकर मुझसे बड़े स्नेह से मिली। पहले वह जब भी मिला करती थी,
नमस्ते कहकर आँखों से ओझल हो जाया करती थी।
आज मैंने उसे गौर से देखा। उसके
नयन-नक्श में एक गहरा आकर्षण था। वह भी स्वाति की तरह दुबली-पतली थी। घर में वह सदैव
सूती साड़ी में लिपटी हुई, रसोई-घर में व्यस्त दिखाई देती। मुझे
उसके साथ बात करने का कभी अवसर ही नहीं मिला।
''सुजाता, तुम बहुत सुंदर लग रही हो।''
वह खिलखिला का हँस पड़ी और उसने
मुझे फिर से अपने गले से लगा लिया। उसके जूड़े में लगे ताजे फूलों के गजरे की महक ने
मुझे भीतर तक महका दिया।
मैंने उसका परिचय अमृता से करवाया।
वे दोनों आपस में बातें करने लगीं। हॉल में चल रहे तेज़ संगीत के कारण मैं उनकी बातों
का विषय न जान सकी। उनके खिले चेहरों को देखकर कयास लगाया जा सकता था कि वे दोनों बहुत
ही रोचक बातें करके प्रसन्न हो रही हैं।
स्वाति ने बताया था कि सुजाता
दीदी बहुत बोलती है। प्रारंभ में थोड़ा हिचकिचाती है, परंतु पहचान
हो जाने के बाद वह लगातार बोलने लग जाती है। उसने अमृता से पहचान बनाने में ज़रा भी
देर नहीं लगाई।
स्वाति ने यह भी बताया था कि सुजाता
दीदी पचास पार कर चुकी हैं। वह पुनर्विवाह करना चाहती हैं इसलिए स्वाति ने उसके तलाक
के लिए कोर्ट में आवेदन पत्र डाल दिया है।
आज तो सुजाता अपनी उम्र से बहुत
कम लग रही थी।
मैं सुजाता और अमृता के साथ जाकर
बैठ गई। सिमर हॉल के इस शोर में भी अमृता की गोदी मे सो गई थी।
''सुजाता, तुमने तो बबली को पाला है, उसे बड़ा किया है। उसका जाना
तुम्हें भी उतना ही महसूस होगा, जितना उसकी मम्मी को।''
मैंने कहा।
वह हँसने लगी। कुछ देर बाद बोली,
''बबली के घर की देखभाल कौन करेगा ? वह तो अभी
बच्ची ही है और फिर आगे बच्चा...। यह सब मुझे ही करना है।''
मुझे उसकी बात कुछ समझ में न आई।
मैंने घड़ी की ओर देखा और अमृता से कहा कि अब हमें चलना चाहिए। बारात का अभी कुछ अता-पता
नहीं था। बबली भी अभी तक पॉर्लर से तैयार होकर नहीं आई थी। बारातों का वक्त तो निश्चित
नहीं होता। मुझे इस बात पर बड़ी खीझ हुआ करती है।
''विवाह मराठी रस्मों से होगा
या पंजाबी ?'' अमृता ने सुजाता से पूछा।
''क्या फर्क पड़ता है। फेरे तो
पंडित जी ही कराएँगे। माला दीदी ने बंगाली लड़के से शादी की थी।'' वह फीका-सा मुस्कराई।
''सुजाता दीदी, क्या आपने मराठी रस्मों से शादी होते हुए देखी है ?'' अमृता ने पूछा।
''अरे हाँ, मेरी अपनी शादी मराठी रस्मों से हुई थी, पर...।''
वह अचानक उदास हो गई थी। मैं चाहती थी कि अमृता सुजाता से इस प्रकार
के प्रश्न न ही पूछे। मैंने सुजाता के विषय में अमृता को कभी कुछ नहीं बताया था। मैं
बात का रुख मोड़ने के विषय में सोच ही रही थी कि सुजाता बोली-
''हमारी रस्में अजीब हैं। लड़की
के माता-पिता शादी नहीं देखते। शादी के बाद, मंत्रों के उच्चारण
के बाद देख सकते हैं। फेरों से पूर्व कन्यादान करके पिता वहाँ से चला जाता है। लड़की
तीन फेरों में लड़के से आगे और बाकी चार फेरों में लड़के के पीछे चलती है। प्रत्येक फेरे
में पैरों से चावल और सुपारी गिराती है। हाँ सच ! शुरू में लड़का और लड़की दोनों अलग-अलग
चौकियों पर खड़े होते हैं। उनके बीच एक कपड़ा जिसे अन्तरपाट कहते हैं, डाल दिया जाता है। कुछ मंत्रों के उच्चारण के पश्चात् उसे हटा देते हैं। फिर
वे दोनों एक दूसरे को माला पहनाते हैं।''
''आप लोगों में मंगलसूत्र अवश्य पहनते हैं न ?''
''हाँ, लड़का लड़की को पहनाता है। शुरू में उल्टा पहनते हैं। पाँच दिन बाद सीधा करते हैं।''
''वह क्यों ?'' अमृता हैरानी से पूछ रही थी।
''यह सब तो पता नहीं। लेकिन रिवाज़ ऐसा ही है।''
मैंने बात की दिशा बदलने के लिए सुजाता से उसकी छोटी बहन अंजली के बारे में पूछा।
स्वाति ने बताया था कि उसकी तीसरे नंबर की बहन अंजली यू.पी. में किसी छोटे से शहर में
रहती है।
मेरा सीधा सम्पर्क तो स्वाति से ही था। लेकिन उसकी बड़ी बहन माला और सुजाता से मैं
कईबार मिल चुकी थी। स्वाति कभी-कभी अपने तीसरे नंबर की बहन अंजली के विषय में भी बताती
रहती थी।
''अंजली पूरे परिवार के साथ आई है। उसका पति राम प्रसाद यादव भी आया है।'' सुजाता ने हॉल में नज़र
घुमाई और बोली, ''तीन बच्चे तो खाने वाले स्टालों पर हैं। बड़ी लड़की अनु, बबली के साथ पॉर्लर गई
हुई है। अंजली आपके बायीं तरफ अपनी बेटियों को लेकर बैठी है।''
मैंने दृष्टि घुमाई। लम्बी, पतली, सांवली-सी एक स्त्री मुझे चमकदार साड़ी में लिपटी दिखाई दी। उसकी शक्ल-सूरत माला
से मिलती थी। उसने न तो कोई खास मेकअप किया हुआ था, न ही ज्यादा गहने पहन रखे थे। उसके पास सटकर एक लड़की
बैठी थी। शायद यही लड़की मंदबुद्धि थी। स्वाति ने बताया था कि वह बच्ची बचपन में एक
बार सिर के बल गिर पड़ी थी। छोटा-मोटा इलाज तो करवाया था लेकिन बड़े शहरों में जाकर बड़े
अस्पतालों में इलाज करवाना कोई आसान काम नहीं था। उसका जीजा राम प्रसाद यादव एक क्लर्क
ही तो था।
सुजाता ने मुझे अंजली की ओर देखते हुए देखा तो उसने उंगली के इशारे से बताया कि
नीली कमीज़, काली पैंट वाला लम्बा-ऊँचा, गोरा-चिट्टा व्यक्ति ही अंजली का पति है।
मैं सुजाता की ओर देखकर मुस्कराई और 'हाँ' में सिर हिला दिया।
तभी मेरे पीछे से आकर किसी ने मेरी आँखों पर हाथ रख दिए। मैं चौंक गई लेकिन जल्द
ही संभल गई।
''मम्मी, बताओ तो भला कौन है ?'' अमृता की आवाज़ में शरारत थी।
मैंने हाथों के स्पर्श से अंदाजा लगाने की कोशिश की लेकिन अनुमान न लगा सकी।
''भाभी जी, मान गए हार ?''
मैंने एकदम आवाज़ पहचान ली। यह
तो मंजू शर्मा की आवाज़ थी।
उसने मेरी आँखों पर से हाथ हटा
लिए।
वह बड़े प्रेम से मेरे गले मिली।
मंजू के साथ उसका पति जयंत भी था। वह भी हमारे पास आकर खड़ा हो गया। इधर-उधर की बातें
होती रहीं। मैंने मंजू को बताया कि इन्द्र दिल्ली से बाहर गया हुआ है, इसलिए हम ऑटो लेकर आए हैं। बारिश का मौसम है। बारात पता नहीं कब आए। सिमर छोटी
है। हम वापस जाने की सोच रहे हैं।''
''भाभी जी, जाते हुए हम आपको ड्राप कर देंगे। चिंता न करो।'' जयंत
ने कहा।
''भाभी जी, कितनी मुद्दत के बाद तो मिले हैं हम। अभी रुक जाइए। बबली को तो मिलकर जाओ।''
मैंने अमृता की तरफ़ देखा। उसने
'हाँ' में सिर हिला दिया। तभी मैंने दूर
से डॉक्टर गुप्ता को देख लिया। उसके साथ उसकी पत्नी थी। वे स्वाति, उसके जीजा जी और माला से मिल रहे थे। बधाइयाँ दे रहे थे। वे बैठने के लिए इधर-उधर
झांक ही रहे थे कि उनकी दृष्टि हम पर पड़ी। वे हमारी ओर ही आ गए।
दीपक, मेरे
स्वर्गीय पति मुझे बताया करते थे कि डॉ. गुप्ता मंजू के बहुत प्रशंसक हैं। अस्पताल
में उससे मिलने का बहाना ढूँढ़ते रहते हैं। जिस दिन दिखाई न दे, बेचैन हो जाते हैं। अस्पताल में मंजू के नज़दीकी सहकर्मी इस बात के लिए उसे
छेड़ते रहते हैं। कभी वह हँसकर टाल देती है और कभी खीझ-सी जाती है। मंजू इस बात का थोड़ा
फायदा भी उठा लेती है। वह अपने प्रशंसक से कोई न कोई काम करवा लेती है।
''लड़कियाँ बड़ी तेज़ होती हैं...।''
दीपक हँसकर कहते थे।
धीरे-धीरे अस्पताल के कई अन्य
डॉक्टर तथा स्टॉफ मेंबर आ गए। इनमें से मैं कुछ को पहचानती थी। उनके साथ 'हैलो', 'नमस्ते' हुई, हालचाल पूछा। थोड़ी दूर डॉक्टरों का झुंड अपनी बातों में व्यस्त हो गया था।
अचानक मुझे स्वाति के 'बाबा' का ध्यान आ गया। वह अपने पिता को बाबा ही बुलाती
थी। उसका कहना था कि मराठी में पिता को 'बाबा', माँ को 'आई', बड़ी बहन को 'ताई' कहते हैं। लेकिन दिल्ली में रहने के कारण वह अपनी
बड़ी बहनों को ताई की जगह दीदी कहकर बुलाती थी।
उसके बाबा भी तो शादी में आए होंगे
? हो सकता है, वह बंगालन भी आई हो। मैं
तो उनको कभी मिली नहीं थी। हॉल में इधर उधर नज़र घुमाई, सुजाता
किसी से बात कर रही थी। मैं उसके पास चली गई और उससे बाबा के विषय में पूछा। उसने अगली
सीटों की तरफ संकेत किया। हमारी ओर उनकी पीठ थी। वे कुछ खा रहे थे। बाबा ने सिर पर
टोपी पहन रखी थी।
''भाभी जी, बंगाली औरतों के जादू के बारे में तो आपने कहानियाँ सुनी ही होंगी। बस,
उस जादूगरनी ने हमारे बाबा जी को हमसे छीन लिया। वह अपनी जिम्मदारियाँ
भूल गए। उन्होंने हमें भुला दिया...।'' स्वाति के कहे शब्द मेरे
कानों में गूंजने लगे। दिल में आया कि अगली पंक्ति में जाकर उस जादूगरनी की शक्ल एकबार
देख लूँ। अभी मैं यह सोच ही रही थी कि शोर मच गया।
''बबली पॉर्लर से आ गई है।''
मैंने देखा, सजी धजी, भारी लहंगा संभालती बबली अपनी हमउम्र लड़कियों
के साथ धीरे-धीरे हॉल में प्रवेश कर रही थी।
''सब कुछ पंजाबी रस्म-रिवाज के
मुताबिक हो रहा है।'' सुजाता चहक उठी थी। उसके चेहरे से बच्चों
जैसी मासूमियत झलक रही थी।
बबली बहुत-सी लड़कियों से घिरी
हुई थी। बाहर ढोल और बाजों के शोर से लग रहा था कि बारात आ गई है। बारात का स्वागत
करने के लिए परिवार के सभी सदस्य गेट की ओर बढ़ गए। अमृता सिमर को मेरी गोद में डालकर
बबली से मिलने चली गई। डॉक्टरों की टोली अभी भी स्टालों पर गोल-गप्पे और आलू की टिकियाँ
खाने में व्यस्त थी। स्वाति के बाबा उसी बंगालन के साथ बैठे जूस का आनन्द ले रहे थे।
सिमर के उठ जाने से मेरा ध्यान
भंग हुआ। वह आँखें खोले हैरानी से जगमग रोशनियों को देख रही थी। दूल्हा स्टेज पर आकर
बैठ गया था। वह भी हमउम्र लड़कों से घिरा हुआ था। कुछ लड़कियाँ रंग-बिरंगे, चमकीले वस्त्रों में स्टेज पर शोर मचा रही थीं।
जयमाला की रस्म के समय स्टेज पर
सब लड़के-लड़कियों में बड़ा उत्साह था। दोनों पक्षों के लोग शोर मचा रहे थे। लड़का छह फुट
लम्बा तथा शरीर से हृष्ट-पुष्ट था। बबली तो केवल पाँच फीट ही थी। बबली के हाथ लड़के
के गले तक नहीं पहुँच रहे थे। हँसी के फव्वारे फूट रहे थे। बहुत यत्न से बबली के एक
संबंधी ने बबली को उठा लिया और तालियों की गूंज में जयमाला की रस्म पूरी हो गई।
खाना खाने के पश्चात् हम काफी
लेट हो गए थे। बाहर तेज़ बारिश हो चुकी थी। बादल अभी भी गरज रहे थे। बिजली की चमक डरा
रही थी। सिमर मेरी छाती से चिपक गई थी।
रास्ते में अमृता धीरे से मेरे
कान में बोली, ''मम्मी, आपने बबली को ध्यान
से देखा ?''
''क्यों ? ऐसा क्या था, ध्यान से देखने वाला ?'' मैंने हैरानी से पूछा।
''उसका पेट...।''
''लहंगे के कारण... उफ्फ ! उसका
लहंगा कितना भारी था। ये लड़कियाँ इतना बोझ कैसे उठा लेती हैं। उसका दुपट्टा भी बहुत
भारी था।''
''भाभी जी, अमृता ठीक कह रही है।'' मंजू ने अमृता की बात सुन ली
थी।
''क्या मतलब ?''
''बबली को छठा महीना लगा हुआ है।''
मंजू बोली।
मैं स्तब्ध रह गई।
''लड़कियों को इतनी छूट नहीं देनी
चाहिए।'' मंजू बोल रही थी।
मुझे कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था।
''बहुत वर्ष हुए मैं ऐसे ही एक
विवाह में गई थी। लड़की को आठवां महीना था। लड़के वाले इंग्लैंड से यहाँ विवाह करने आए
थे। लड़का छुट्टी मनाने दिल्ली आया था। वह लड़की से विवाह का वायदा करके, उसे गर्भवती बनाकर वापस चला गया। लड़की ने एक लम्बी चिट्ठी लड़के के पिता को
लिखी। लड़के के माँ-बाप समझदार निकले। वे लड़के को लेकर आ गए। अब वह लड़की दो बच्चों की
माँ है। इंग्लैंड में रहती है। सब ठीक चल रहा है।'' मंजू बता
रही थी।
मुझे याद आया कि एक बार स्वाति
ने बताया था कि बबली कालेज से आती है तो उसके साथ कई लड़के-लड़कियाँ भी घर में आ जाते
हैं। सबको खूब खिलाती-पिलाती है। सुजाता दीदी को चाय-पकौड़े का आदेश देती रहती है। सुजाता
दीदी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि बबली को कुछ कह सके। उन लड़कों में से एक लड़के के पास
कार थी। वह कार में सबको घुमाने ले जाता। स्वाति ने सुजाता दीदी को कहा था कि वह माला
दीदी को सारी बात बता दे, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई।
मैंने स्वाति से कहा था कि वही
क्यों नहीं सब बता देती।
स्वाति ने कहा था, ''माला दीदी बबली के बारे में कुछ भी सुनना नहीं चाहती। आजकल बबली पहले वाली
बबली नहीं रही। मेरी बात का भी बुरा मना जाती है।''
एक और दिन स्वाति ने मुझे बताया
था, ''भाभी जी, आजकल एक लड़का घर में बहुत
आने लगा है। हम तो घर में होते नहीं। वह उस लड़के को बैडरूम में ले जाती है। वहाँ से
खूब हँसने की आवाज़ें आती हैं। एक दिन मैंने और सुजाता दीदी ने बबली को कहा कि वह उस
लड़के को अपने कमरे में लेकर न जाया करे। जानती हैं, भाभी,
उसने क्या कहा ? बोली, आपको
जलन होती है मुझसे। तुम दोनों तो...। भाभी जी, उसने बहुत बड़ी
बात कह दी। सुजाता दीदी उस दिन बहुत रोयी। मेरे दिल को भी बड़ी ठेस पहुँची। दो दिन मैं
और सुजाता दुखी होती रहीं, कलपती रहीं। आख़िर मैंने सारी बात माला
दीदी को बता दी। उनके चेहरे पर एक रंग आए, एक जाए। दीदी एकदम
गंभीर हो गई। घर में कई दिन तक तनाव रहा। बबली ने मुझसे और सुजाता दीदी से बात करना
बंद कर दिया''
मंजू बता रही थी, माला दीदी और जीजा जी ने बच्चा गिराने के लिए बहुत कहा था परंतु वह मानी नहीं
थी। जिद्द पर अड़ गई। अनिल ने अभी बी.काम की परीक्षा दी ही थी। वह अपने माता-पिता का
इकलौता बेटा था। शुक्र है, अनिल और उसके माता-पिता इस विवाह के
लिए राज़ी हो गए। लड़का पंजाबी, लड़की मराठी।
मैं हैरान थी कि स्वाति ने यह
बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई थी।
(जारी…)
आपको भी गणतंत्र दिवस की बधाई! इस अवसर पर आपके नए उपन्यास 'तेरे लिए नहीं' की पहली किस्त पढ़ी। पठनीय और बांध लेने वाली किस्त लगी। उत्सुकता जगा गई, आपके इस उपन्यास को नियमित पढ़ने की। बधाई !
ReplyDeleteअच्छी, रोचक शुरुआत है, बधाई।
ReplyDeleteनए उपन्यास के लिए आपको बधाई. विवाह स्थल के घटनाक्रम जीवंत लग रहे हैं. अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी. शुभकामनाएँ.
ReplyDelete-डॉ. जेन्नी शबनम
aapke naye upanyaas ansh ne bhee bahut aakarshit kiya hai,shubhkamnaon ke saath badhai deta hoon.
ReplyDelete