Sunday, 15 April 2012

उपन्यास




मित्रो, ‘परतें’ उपन्यास के पहले दो चैप्टर मेरे इस ब्लॉग पर छपे और आपने पढ़कर अपनी राय से मेरी हौसला-अफ़जाई की, मैं आपकी शुक्रगुजार हूँ। दूसरे चैप्टर को पढ़कर जिन्होंने अपनी राय मुझ पहुँचाई, उनमें संगीता स्वरूप, अशोक आन्द्रे, प्रियंका, वन्दना, रश्मि प्रभा, शशि वैद्य, कुसुम, डा जेन्नी शबनम और रूप सिंह चंदेल जी का मैं धन्यवाद करती हूँ। आशा है, आप भविष्य में भी अपने राय से मुझे अवगत कराते रहेंगे और मेरा उत्साहवर्धन करते रहेंगे…
प्रस्तुत है, ‘परतें’ उपन्यास की अगली किस्त… यानी चैप्टर-3…
-राजिन्दर कौर

परतें
राजिंदर कौर



3
भारत-पाक विभाजन के पश्चात् रघुबीर सिंह का परिवार कुछ समय अमृतसर में रहा। फिर लुधियाना में धक्के खाता रहा। लेकिन, उनका काम कहीं भी न जम पाया। रघुबीर के दादा सरदार जैमल सिंह लायलपुर से अक्सर ही बम्बई अपने कपड़े की दुकान के लिए माल खरीदने जाते रहते थे। उनके दो साले देश विभाजन से पूर्व ही बम्बई में आ बसे थे।
एक दिन सरदार जैमल सिंह भी परिवार को लेकर अपनी किस्मत आजमाने के लिए बम्बई आ गए। लेकिन, रवाना होने से पूर्व उन्होंने अपनी पंद्रह-सोलह वर्षीय बेटी का विवाह लुधियाना में ही अपने एक परिचित परिवार में कर दिया। सरदार जैमल सिंह का बड़ा बेटा मनजीत सिंह विवाहित था और उसका पुत्र रघुबीर उस समय नौ-दस बरस का था। मनजीत सिंह से छोटे दोनों भाई लायलपुर से दसवीं पास करके अपने मामा के पास सरगोधा चले गए थे। उनके मामा की वहाँ बर्तनों की दुकान थी। मनजीत सिंह अपने पिता सरदार जैमल सिंह के साथ बजाजी की दुकान पर बैठता था।
जब देश का बँटवारा हो गया तो दोनों छोटे भाई सरगोधा से लायलपुर अपने माता-पिता के पास आ गए। देश के नेता यकीन दिला रहे थे कि किसी की जान-माल का कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन, देश के कितने ही हिस्सों में से क़त्ले-आम के समाचार लायलपुर पहुँचे। सब के दिल सहमे हुए थे। जान सूली पर टंगी हुई थी। रघुबीर के दादा जी पिछली बार जब बम्बई माल खरीदने गए थे तो वहाँ से एक रेडियो खरीद लाए थे। रेडियो द्वारा सारे देश की ख़बरें पहुँचती रहतीं।
महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के नाम अक्सर ही घर में सुने जाते।
अब रघुबीर का घर से बाहर निकलना बन्द हो गया था। गली में शाम को अक्सर ही वह दूसरे लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा, कंचे, छिप्पन-छिपाई खेलता था। अब वह घर में कैद होकर रह गया था।
रघुबीर की पंद्रह-सोलह वर्षीय बुआ सतनाम जिसे घर में सब 'सत्ती' कहकर बुलाते थे, वह भी सामने वाले घर में रहती अपनी सहेली अम्बों को मिलने नहीं जा सकती थी। बचपन में सत्ती अम्बो के साथ 'गुड़िया-गुड्डे' और 'घर-घर' के खेल खेला करती थी। अपनी गुड़िया का विवाह वह अम्बो के गुड्डे के साथ रचाती थी। गीटे खेलती थी। 'किकली' डालती थी। लेकिन अब घर में सत्ती के विवाह की चर्चा होने लग पड़ी थी। उसके दहेज का सामान घर में अभी से एकत्र होना शुरू हो गया था। आठ जमात पास करने के पश्चात् वह सिलाई-कढ़ाई तथा क्रोशिए का काम सीख रही थी। सुबह-शाम नियम से गुरवाणी का पाठ करती थी। कुछ महीने पहले तक वह अपने बीजी तृप्त कौर के साथ गुरुद्वारे भी जाती रही थी। प्रत्येक शाम गुरुद्वारे में भाई 'साखियाँ' सुनाते। कई साखियाँ सुनकर वह भावुक हो जाती और उसकी आँखें सजल हो उठतीं।
सरदार जैमल सिंह देश के बिगड़ते हालात के विषय में सुनते तो बड़े मायूस हो जाते।
''बहुत सारे लोग लायलपुर छोड़कर अमृतसर जा रहे हैं। हमें भी कुछ सोचना चाहिए। कई लोगों का कहना है कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा और जा लोग गए हैं, वे लौट आएँगे।''
विभिन्न प्रकार के कपड़ों से भरी बजाजी की दुकान, हवेलीनुमा भरा हुआ घर उनकी आँखों के सामने घूम जाता - क्या यह सब यहीं छूट जाएगा ? वह अपने तीनों बेटों, बेटी, बहू और पोते को देखते तो मन दु:खी हो जाता। फिर सोचते, जो होगा, सबके साथ होगा।
अभी वह इसी उधेड़बुन में ही थे कि एक दिन शहर के डिप्टी कमिश्नर ने ऐलान कर दिया कि सभी सिख परिवार शहर खाली कर दें। शाम के चार बजे से पहले शहर से बाहर नहर के उस पार खालसा कालेज में बनाए शरणार्थी कैम्प में चले जाएँ। यदि उन पर हमला हो गया तो उसकी जिम्मेदार सरकार नहीं होगी। घरों में ताले लगाकर सभी लोग घरों से बाहर निकल आए और काफ़िले की भीड़ में शामिल हो गए। एक के बाद एक सड़क पार करते हुए वे नहर के किनारे-किनारे पुल पार करके खालसा कालेज जा पहुँचे।
नहर पार करते हुए रघुबीर को इस नहर के किनारे मनाई पिकनिक याद हो आई। पिछले साल की ही तो बात थी। श्रावण के महीने हर वर्ष कई परिवार मिलकर, तांगों में सवार होकर यहाँ आए थे। घने शीशम के दरख्तों की छांव में बैठकर पूड़े, छोले, पूरियाँ खाते, झूले झूलते, आम चूसते, नहर के ठंडे पानी में नहाकर अपनी गरमी दूर करते। अब उसी नहर के किनारे पुलिस खड़ी थी।
रघुबीर को अभी तक याद था कि खालसा कालेज के एक बरामदे में वे फ़र्श पर सोये थे। न नीचे बिछाने के लिए कोई चादर थी, न ऊपर ओढ़ने को कोई कपड़ा।
वे कितने कठिन दिन थे ! भरे पूरे घर को छोड़कर खाली मैदान में सोना, न पीने के पानी का प्रबंध, न रोटी का जुगाड़। आठ-दस दिन यूँ ही जैसे-तैसे गुज़रे थे। रघुबीर को समझ में नहीं आता था कि सत्ती बुआ को सबकी नज़रों से छिपाकर क्यों रखा जा रहा था। उसके सिर पर से ज़रा-सा दुपट्टा सरक जाता तो परिवार का कोई भी सदस्य उसे तुरन्त घुड़क देता - 'सिर ढक।'
कैम्प में रोज़ नई ख़बरें आतीं - शरणार्थियों की भरी हुई गाड़ी में होते क़त्लेआम, छुरेबाजी की ख़बरें... शरणार्थियों के काफ़िलों पर होते हमलों की ख़बरें।
''लोग पागल हो गए हैं। धर्म के नाम पर वहशी हरकतें कर रहे हैं।'' जैमल सिंह दु:खी होकर कहते।
''हम घर कब वापस जाएँगे, दादा जी ?'' रघुबीर अपनी मासूम आवाज़ में पूछता। वह रुआँसे होकर पोते को सीने से लगा लेते।
मनजीत सिंह कहता, ''भापा जी, हमें यहाँ से निकलने का कोई रास्ता निकालना चाहिए।''
कैम्प में जैमल सिंह ने इधर-उधर से खोज-ख़बर लगानी प्रारंभ कर दी। पता चला कि भारतीय फौज के ट्रक प्रत्येक जीव के लिए पाँच-पाँच सौ रुपया लेकर वाहगा सरहद पार करवा रहे हैं। जैसे-तैसे जुगाड़ होता गया, पैसे वाले लोग पैसा देकर ट्रकों पर सीमा पार जाने लगे। जिनके पास पैसे नहीं थे, वे काफ़िलों के साथ चल पड़े। अपनी ही फौज के अफ़सर और जवान मुसीबत में फँसे अपने ही भाई-बँधुओं से यूँ पैसे वसूल करेंगे, यह तो सोचा ही नहीं जा सकता था। लेकिन, मरता क्या न करता। प्रश्न किसी भी तरह जान बचाने का था।
रघुबीर ने बाद में कालेज में देश के बँटवारे के विषय में बहुत कुछ पढ़ा था। लेकिन उसके बालमन में जो छवि बन गई थी, वह कभी मिटाई नहीं जा सकती थी। उसने लायलपुर नहर के किनारे जो लाशें देखी थीं, अमृतसर से आते हुए उसने ट्रकों ओर काफ़िलों में लोगों की जो हालत देखी थी, वह दहशत उसके मन से कभी न निकल सकी। लाखों की संख्या में शरणार्थियों की अदला-बदली, लाखों लोगों का बेघर होना, लाखों औरतों की इज्ज़त-आबरू का लुटना, यह सब मनुष्य इतिहास की बहुत बड़ी त्रासदी थी।
हाथ में ख़ास पूँजी ने होने के कारण कोई भी नया काम शुरू करना कठिन था। बहुत सारे शरणार्थियों ने छोटे-मोटे काम करके रोजी-रोटी का साधन जुटा लिया था। लेकिन, जैमल सिंह छोटे-मोटे काम करना अपना अपमान समझते। अमृतसर से लुधियाना आकर भी उन्होंने पैर जमाने की कोशिश की, परन्तु सफलता नहीं मिली। लायलपुर में ही सत्ती के रिश्ते की एक जगह बात चल रही थी। सत्ती सुन्दर भी बहुत थी। सत्ती की दादी तृप्त कौर गहनों की एक पिटारी किसी तरह बचाकर ले आई थी। जवान लड़की को इन हालात में संभालना आसान नहीं था। इसलिए सत्ती की शादी लुधियाना में ही बहुत सादे ढंग से कर दी गई थी। सत्ती का जब पता चला कि उसके माता-पिता, भाई-भाभी सब दूर बम्बई शहर जा रहे हैं, तो वह बहुत रोई-चिल्लाई।
बम्बई में जैमल सिंह के कई रिश्तेदारों ने कोलीवाड़ा की बैरकों में डेरा जमाया हुआ था। जैमल सिंह का परिवार भी वहीं एक बैरक में आकर टिक गया।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान कल्याण, चैंबूर और कोलीवाड़ा में अंग्रेज सरकार ने कैम्प बनाए थे। इन बैरकों को फौजियों के लिए बनाया गया था। युद्ध समाप्त हुआ तो देश का बँटवारा हो गया। पाकिस्तान से उजड़कर आए शरणार्थियों को बसाने के लिए इन बैरकों में प्रबंध किया गया। कोलीवाड़ा में अधिकतर शरणार्थी पेशावर, हज़ारा तथा फ्रंटीयर इलाके से आकर बसे थे। सिन्धी शरणार्थी कल्याण तथा चैंबूर की बैरकों में आकर बसे थे।
कोलीवाड़ा में कोली जाति के मछुआरे रहते थे। उनकी झोपड़ियाँ, उनका रहन-सहन और लिबास देखकर लगता था कि वे बड़ी गरीबी की हालत में ज़िन्दगी बिताते हैं। कोली स्त्रियाँ कमर पर एक धोती लपेट कर रखतीं और उसी सूती धोती के एक पल्ले से अपनी छाती को ढक लेतीं। वे ब्लाउज नहीं पहनती थीं। उनकी टांगें भी नंगी होतीं। पंजाब से आए शरणार्थियों को उनका यह पहरावा बड़ा अजीब-सा लगता। पंजाबी स्त्रियाँ तो सिर से दुपट्टा उतारना भी बुरा समझती थीं। कई कोली स्त्रियाँ तो वक्ष को ढंकना भी आवश्यक न समझतीं। कोली लोग मछली पकड़ने, बेचने का काम तो करते ही थे, साथ में, वे बड़े-बड़े ड्रमों में शराब भी बनाते। शाम को वे स्वयं भी वह शराब पीते और चोरी छिपे बेचते भी। रात को कोली इलाके में शराब की गंध सारे वातावरण में मिल जाती और जबरन नाक में आ घुसती। शराब पीकर मर्द-औरतें मिलकर खूब नाचते-गाते।
वैसे कोली समूह के लोग बम्बई के मूल निवासी थे। वे सिर्फ क़ोलीवाड़ा में ही नहीं रहते थे। उनकी बस्तियाँ कोलाबा, चौपाटी, वर्ली, माहिम, बांद्रा, डांडा और वर्सोवा में भी थीं। इनमें से कुछ इलाके पहले पुर्तगालियों के अधीन हो गए थे और कुछ अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन। 1858 के बाद ये सारे इलाके भारत के दूसरे प्रदेशों की तरह सीधे अंग्रेजी सरकार के अधीन हो गए थे।
जैसे-जैसे बम्बई शहर का विकास होता गया, वह बहुत बड़ा व्यावसायिक और औद्योगिक केन्द्र बनता चला गया। कोली लोग कुछ विशेष बस्तियों तक ही सीमित होकर रह गए।
शरणार्थी कोली लोगों को हैरानी से देखते तो कोली भी उनको वैसे ही कोतुहल भरी नज़रों से देखा करते। कोली लोगों को एक लाभ यह हुआ कि उनकी मछली की बिक्री बढ़ गई। शरणार्थियों के कुछ लड़के उनकी बनाई शराब को भी छिपकर पीने लग पड़े थे।
कोलीवाड़ा में सड़कों की हालत बहुत खराब थी। बारिश के दिनों में चारों ओर पानी भर जाता। धीरे-धीरे सरकार ने शरणार्थियों के लिए चार-चार मंज़िल की इमारतों का निर्माण शुरू कर दिया। जिन शरणार्थियों को इन इमारतों में फ्लैट अलॉट हो गए, वे बैरकें छोड़कर इनमें आकर बस गए। फ्लैट में एक कमरा, बाल्कनी और एक रसोई थी। प्रत्येक मंज़िल पर सामुहिक शौचालय तथा स्नानघर बनाए गए थे। इनकी सफ़ाई की जिम्मेदारी कोई न लेता। इन सामुहिक शौचालयों तथा स्नानघरों की सफ़ाई को लेकर अक्सर इन लोगों में परस्पर लड़ाई हो जाती।
लेकिन, शरणार्थियों ने हालात के साथ समझौता कर लिया था। उनके हौसले पस्त नहीं हुए थे। वह जीने के नये रास्ते खोजने में जुट गए थे।
(जारी…)

8 comments:

  1. देश के बँटवारे की त्रासदी का मार्मिक चित्रण ...

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  2. देश विभाजन का दंश और विस्थापितों की जिंदगी का दर्द बहुत अच्छी तरह वर्णित है. रघुवीर की जिंदगी न जाने कितने मोड़ों से गुजरेगी... अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी. आभार.

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  3. desh vibhajan ke samay kii trasdii par aapne ek achchhi kahani ka tana-banaa bunaa hai jise pad kar uss samay ke haalat kaa jaayjaa andar tak hilaa detaa hai uss samay log kis kadar desh bantvare ko jhel rahe the,ise padvane ke liye aapka aabhar.

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  4. बंटवारे की त्रासदी का बेहद मार्मिक चित्रण ।

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  5. आपका उपन्यास मुझे बहुत रोचक लग रहा है। अच्छी बात यह भी है कि चैप्टर बड़े नहीं हैं, छोटे छोटे हैं जो अधिक समय नहीं लेते पढ़ने में… कहानी में एक गति -सी है… आगे के बारे में जानने का कौतुहल भी पैदा कर रही है…

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  6. rajinder ji
    sat siri akaal
    wah kya smaan bandha hai --eak eak baat ankhon ke samne tasveer ki tarah khinch se gai -agali kishat ka besabari se intzaar hai
    wow bahut sunder

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  7. प्रिय राजिंदर जी ,
    एक एक नजारा आँखों के सामने आत्ता है … आप ने तो दुखती रग पर हाथ रख दिया…तीसरी किश्त ने तो विभाजन की तस्वीर को ताज़ा कर दिया… बिलकुल
    मैं तब ५ बरस की थी फिर भी सपने की तरह याद है। मेरे पिताजी अपने काम के सिलसले में वना में थे, मेरी माँ और छोटी बहन को मंदिबवाल्दीन में नाना-नानी के पास छोड़ दिया था…मेरे नाना जी स्टेशन मास्टर थे। वो समझते थे कि उनको कोई क्यों मरेगा ? पर रात को कट्टरपंथी तलवारें ले कर मारने आये जिसमें मेरे नाना जी का हाथ कट गया, खैर किसी तरह जान बच गई। बस रातों रात पूरे परिवार को ले कर कम से कम १२ लोग थे परिवार में, रिफूजी कैंप में चले आय। वहां भी जान का खतरा था… बड़ी लम्बी कहानी है… मुझे आज भी वो चारोँ तरफ खून ही खून नज़र आत्ता है तो दिल काँप जाता है… जब हम रावी नदी के किनारे पहुंचे तो पानी लाल था…चारों तरफ लाशें पड़ीं थीं… “परतें” में जो कुछ है, वही सब देखा है मैंने… तो दिल करीब लगी यह कहानी … आगे का बड़ी बेसब्री से इन्तजार है ।
    shashi vaid vaid.shashi@gmail.com

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  8. मार्मिक चित्रण...अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी...।
    प्रियंका

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