मित्रो, आपने मेरे उपन्यास ‘परतें’ के प्रारंभिक तीन
चैप्टर पढ़े। पिछ्ली बार की तरह इस बार भी कुछ मित्रो ने अपनी राय से मुझे अवगत
कराया। मेरे लिए एक एक टिप्पणी बहुमूल्य है। बढ़ती उम्र और अस्वस्थता के कारण अधिक
देर कंप्यूटर के सामने बैठना संभव नहीं हो पाता, पर फिर भी थोड़ा-बहुत समय निकालने
का यत्य करती हूँ और मित्रों की टिप्पणियां देखने और उनका धन्यवाद करने की पूरी
कोशिश करती हूँ। उपन्यास का चैप्टर- 4 आपके समक्ष रखते हुए फिर वही आशा मन में
संजोये हूँ कि आप इसे पढ़कर अपनी राय से मुझे अवगत कराएँगे और मेरा उत्साहवर्धन करेंगे…
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिंदर कौर
4
सरदार जैमल सिंह
अपना पुराना बजाजी का व्यवसाय ही करना चाहते थे। उन्हें इसी काम का अनुभव था। कपड़े
की थोक मार्किट जो मूल चन्द जेठा मार्किट के नाम से जानी जाती थी, में उनकी बहुत जान-पहचान थी। वह लायलपुर से अक्सर ही इस मार्किट
से माल लेने आया करते थे। परन्तु अब पल्ले में पूंजी न होने के कारण मन मसोस कर रह
जाते।
उधर उनके बड़े बेटे मनजीत सिंह
ने अपने दोनों मामाओं के पास रेस्तराँ में काम करना शुरू कर दिया था। उसके मामा देश
के बँटवारे से पूर्व ही बम्बई में आ गए थे। इस समय उनका रेस्तराँ पंजाबी पकवानों के
लिए प्रसिद्ध हो गया था। मनजीत सिंह को जब इस काम में कुछ अनुभव प्राप्त हो गया तो
उसने कोलीवाड़े में एक पंजाबी ढाबा खोलने की सलाह की। जैमल सिंह भी मान गए। उन्हें तो
इस काम का कोई अनुभव नहीं था। मनजीत के मामाओं ने कुछ पूँजी लगाने का वायदा किया और
मनजीत सिंह ने अपने दो छोटे भाइयों के साथ मिलकर एक ढाबा खोल लिया। तीनों भाइयों में
लगन तथा हिम्मत बहुत थी। धीरे-धीरे ढाबा अच्छा चल निकला। ज्यों-ज्यों
आमदनी बढ़ती गई, ढाबे के कारोबार में विस्तार और सुधार
होता गया। काम करने वाले भी कई हाथ चाहिए थे। खाना बनाने वाले, बर्तन साफ करने वाले, परोसने वाले। ढाबे से अच्छा-खासा
मुनाफ़ा होने लगा। अब छोटे भाइयों के भी रिश्ते आने लगे। एक भाई की सगाई तो पाकिस्तान
में ही हो गई थी। इधर लड़की वाले शादी के लिए दबाव डाल रहे थे। जवान बेटियों को घर से
जल्दी विदाकर माँ-बाप निश्चिंत होना चाहते थे। जैसे ही आमदनी बढ़ती गई, जैमल सिंह ने अपने दोनों पुत्रों की शादी कर दी।
इन तीनों भाइयों को एक भागीदार
मिल गया था। उसके साथ मिलकर इन्होंने कल्याण में एक और ढाबा खोल लिया था। वहाँ भी बहुत
से शरणार्थी आकर बस गए थे। वहाँ पास ही सिंधी शरणार्थियों की एक नई बस्ती अस्तित्व
में आ रही थी- 'उल्हास नगर'।
जैमल सिंह की आमदनी बढ़ने के साथ-साथ
परिवार भी बढ़ रहा था। कोलीवाड़े के एक कमरे के फ्लैटों में इतने लोग समा नहीं सकते थे।
उन्होंने कोलीवाड़े की चाल छोड़ दी और खार की एक नई बिल्डिंग में तीन फ्लैट खरीद लिए,
बिल्कुल साथ-साथ एक ही मंज़िल पर। तृप्त कौर ने ही सलाह दी थी कि अब तीनों बहुओं को
अलग कर दिया जाए। सबके बच्चे बड़े हो रहे थे। सबकी खाने-पीने की आदतें और उनके स्वभाव
समय के साथ-साथ बदल रहे थे। इससे पहले कि परिवार में कोई मनमुटाव या परस्पर कोई रंजिश
वगैरह हो, सबको अलग कर देना ही ठीक था।
जैमल सिंह और तृप्त कौर का घर
में बड़ा दबदबा था। उनके सामने तीनों बेटों तथा बहुओं में से किसी की भी ऊँची आवाज़ में
बात करने की हिम्मत न होती थी। इन दोनों ने अपने बेड़े बेटे मनजीत सिंह के साथ रहना
पसन्द किया था। तृप्त कौर अब दो समय गुरुद्वारे जाती। जपुजी साहब का पाठ करती। संध्या
समय 'रहिरास' का पाठ ऊँचे स्वर में करती।
वह चाहती थी कि घर के सभी सदस्यों के कानों में गुरुवाणी का अमृत पहुँचे। अड़ोस-पड़ोस
की स्त्रियों में तृत्प कौर का बड़ा असर-रसूख था। लोग इनके घर की एकता तथा प्यार का
उदाहरण देते।
कोलीवाड़े में जब पहला गुरुद्वारा
बना तो उस गुरुद्वारे को बनाने में जैमल सिंह ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जब कल्याण का
ढाबा चल निकला तो जैमल सिंह ने आसपास रहते सिक्खों को संगठित करके एक गुरुद्वारे की
नींव रखी। जैमल सिंह का परिवार जब खार में आकर बस गया तो वहाँ के गुरुद्वारे में भी
उनका बड़ा मान-सम्मान था। अब जैमल सिंह अपने पुत्रों के होटल कारोबार में ज्यादा रुचि
नहीं लेते थे। वह गुरुद्वारों तथा शिक्षण-संस्थाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते,
जबकि वह स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। देश के विभाजन से पूर्व वह अपने बजाजी
के कारोबार के सिलसिले में लगातार बम्बई, अहमदाबाद तथा अन्य शहरों
की यात्रा करते रहते थे। इसलिए उन्हें ज़िन्दगी का गहरा अनुभव था।
जैमल सिंह का पोता रघुबीर सिंह
देश-विभाजन के बाद कोलीवाड़ा, बम्बई के गुरु नानक स्कूल में पढ़ने
लगा था। इस स्कूल की स्थापना का सीधा संबंध कराची में बनी गुरु नानक शैक्षिक सोसायटी
के साथ था। इस स्कूल की स्थापना कराची से आए कुछ शराणार्थी अध्यापकों ने की थी। यह
स्कूल भी सैनिकों के लिए बनी बैरकों में शुरू किया गया था। पहले तीन वर्ष शरणार्थी
इस स्कूल में उर्दू और फारसी की पढ़ाई करते रहे क्योंकि देश-विभाजन के पूर्व पंजाब में
उन्हें उर्दू पढ़ाई जाती थी। फिर, धीरे-धीरे उर्दू की जगह हिंदी
तथा संस्कृत ने ले ली। गुरु नानक शैक्षिक संस्थान में जैमल सिंह भी बड़े उत्साह से हिस्सा
लेते।
पैसे में बड़ी ताकत होती है। पैसे
के कारण जैमल सिंह तथा उसके बेटों की प्रतिष्ठा बढ़ गई। अब वे बम्बई की पंजाबी एसोसिएशन
के भी सदस्य थे। तीनों बेटों के पास अपनी- अपनी कारें थीं।
रघुबीर ने गुरु नानक स्कूल से
पढ़ाई बहुत अच्छे अंकों से पास कर ली तो उसने समीप ही गुरु नानक खालसा कालेज में प्रवेश
ले लिया। इस कालेज की स्थापना माटूंगा में सन् 1937 में हुई थी।
डॉक्टर भीमराव अम्बेदकर के कहने पर सिक्खों ने इस कालेज की स्थापना की थी। डॉ. अम्बेदकर
का कहना था कि पिछड़ी जाति के लोग सिक्ख धर्म अपना लेंगे। परन्तु जब उन्हें पता चला
कि सिक्ख धर्म में भी जात-पात के बंधन हैं तो उन्होंने पिछड़ी जातियों को सिक्ख धर्म
अपनाने से मना कर दिया। वैसे खालसा कालेज की इमारत का नक्शा डॉ. अम्बेदकर रोम,
इटली से बनवाकर लाए थे। इस कालेज की शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी प्रसिद्धि
थी। इस संस्था का नाम सम्मान से लिया जाता था।
रघुबीर और ज्योति भी पहले गुरु
नानक स्कूल और बाद में खालसा कालेज में इकट्ठे ही पढ़ते थे।
देश-विभाजन के पश्चात् रघुबीर
और ज्योति के परिवार कोलीवाड़ा में ही रहते थे। वे साथ-साथ खेलते-कूदते बड़े हुए थे।
दोनों परिवारों में बड़ी गहरी सांझ थी। रघुबीर का परिवार खार चले जाने के बाद दोनों
परिवारों की सांझ कम होती चली गई, लेकिन रघुबीर और ज्योति की
परस्पर सांझ में कोई कमी नहीं आई। वह बढ़ती ही गई। उन्होंने तो शादी के वायदे कर लिए
थे। परन्तु, हालात ने ऐसा मोड़ काटा कि दोनों ने टूटे दिलों से
एक-दूसरे से अलविदा ले ली।
इस अलविदा के कुछ दिन पश्चात्
रघुबीर का जन्मदिन था। ज्योति ने उसे कार्ड भेजा और अपनी मित्रता और प्रेम से जुड़ी
भावनाओं का इज़हार कुछ कविताओं में किया था। पत्र में उसने लिखा कि रघुबीर की दोस्ती
ने उसे जो खुशी दी थी, उसकी ज़िन्दगी में जो उत्साह भरा था,
उसकी खुशबू सदैव उसके साथ रहेगी। उसने लिखा - 'हमने मिलकर कई वर्ष एक-दूसरे की मैत्री का आनन्द प्राप्त किया, मिलकर हँसी बाँटी, आँसू बाँटे, एक-दूसरे का साहचर्य माना, अब दोस्ती निभाएंगे।'
'दोस्ती' और 'प्रेम' की छोटी-छोटी कविताएँ
पढ़कर रघुबीर भावुक हो गया।
ज्योति ने पत्र के अन्त में लिखा
था - 'तेरे प्यार ने मुझे कवि बना दिया...।'
रघुबीर को अपने एक हिंदी अध्यापक
की बात याद हो आई। वह कहते थे कि एक उम्र होती है जब प्रत्येक लड़की, लड़का प्यार में डूबता है, ठंडी आहें भरता है। या तो वह
फिल्मी गाने गाता है, उदासी के, जुदाई के,
दिल टूटने के या फिर स्वयं प्रेम कविता लिखने लग जाता है।
उस पत्र के उत्तर में उसने ज्योति
को एक पत्र लिखा-
'मैं चाहता हूँ, मैं तुम्हारा हर दु:ख, सारी पीड़ा (जो मैंने तुम्हें दी
है) पी लूँ। तुम्हारी आँखों के आँसू चूम चूम कर सुखा दूँ। तुम्हारे चेहरे पर सदैव कायम
रहने वाली मुस्कान ला सकूँ। तुम्हें बहुत 'मिस' करता हूँ, ज्योति। जब भी तुम्हें ज़रूरत हो, बुला लेना।'
पहली बार रघुबीर को अहसास हुआ
कि उसे तो प्रेम-पत्र लिखना भी नहीं आता। उसके पास अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए
पर्याप्त शब्द भी नहीं हैं।
(जारी…)
अपने स्वास्थ्य का खयाल रखिए .... उपन्यास अच्छा लग रहा है ...
ReplyDeleteउपन्यास में एक गति है जो पाठक को बोर नहीं होने देती, मुझे तो पढ़ते समय ऐसा ही लग रहा है…क्या इस उपन्यास को पाक्षिक की बजाय हर सप्ताह देना संभव नही है ? पता नहीं क्यों, एक बेसब्री सी हो रही है…
ReplyDeleteTHANX 4 SENDING DA 4TH CHAP---- OF PARATEN. BUT I DIDN'T READ DA FIRST THREE CHAP-------WHICH R MORE IMPORTANT TO KNOW DA WHOLE STORY. CAN U DO IT. HOPE U R FINE MRS KOUR. AGAIN THANX FOR UR IMMOTION.............
ReplyDeleteRANJANA SRIVASTAVA
EDITOR-SRIJANPATH
SILIGURI
रंजना जी, आप मेरे उपन्यास के शुरूआती चैप्टर इस पोस्ट के नीचे दिए गए 'ओल्डर पोस्ट आइकॉन' पर क्लिक करके पढ़ सकती है…।
ReplyDelete-राजिन्दर कौर
रघुबीर की जीवन-यात्रा को जानने के साथ ही उपन्यास को आगे पढ़ने की उत्कंठा बढती जाती है. शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteडॉ. जेन्नी शबनम
aapke upanyaas ki yeh kadii bhii achchha prabhav chhod rahii hai ab utsuktaa bad rahii hai agle anshon ko padne ke liye.
ReplyDeleterajinderji
ReplyDeletejaise jaise kahaani aage bad rahi hai vaise vaise utsuktaa bhi badati jaa rahi hai kya hoga jyoti aour raghubeer ke prem ka -sath hi sath purani mumbai ka sajeev chitar bhi ankhon ke samne khinchta chala ja rahaa hai yeh sab jagah meri dekhibhali hain --bahut nbaar gandhi market gaye huye hain khas ker jab chole bhature khane hon to wahin jaate hain aour woh faluda kulafi --aap ne sab ki yaad dila di
i m enjoing very much --eagerly waiting for next apisode
प्रिय राजिन्दर जी ,
ReplyDeleteसत्सिरी अकाल,
सब से पहले तो एक शिकायत है कि अगली किश्त जल्दी जल्दी नहीं मिलाती याने सात दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता है .… पर चलो देर आये ,दुरुस्त आये । अब आगे आपकी कहानी का एक-एक शब्द ऐसा लगता है कि मेरी नज़र उस मंज़र को देख भी रही है क्यों की १९६८ में मैं भी उसी कोलीवाडा की चाल में अपने दो छोटे-छोटे बचों के साथ रहती थी। मेरे माता-पिता विले परले में बड़े से घर में रहते थे । पर किसी कारणवश मेरे पति उनके साथ नहीं रहना चाहते थे, पर हम महंगा घर नहीं ले सकते थे इसलिए एक बालकोनी में रेंट पर रहते थे… उस वक़त ६० रु रेंट देते थे और ५ रु बिजली का…बस २ महीने ही रहे…हम ने माँ को भी नहीं बताया था कि हम किस तरह से रह रहे हैं। एक दिन माँ को पता चल गया तो वो मिलने चली आई और देख कर रो पड़ी। मेरे पति को हाथ जोड़ कर बोली - इतना बड़ा घर होते हुए आप यहाँ… चलिए, अपने घर। पता नहीं कैसे वो मान गए और हम माँ के साथ विले पार्ले चले गए। आज भी वो गुरुद्वारा…वो सनातन धर्म मंदिर, वो गन्दी-सी सड़कें और वो मार्केट याद है मुझे…फिर कुछ दिनों बाद हमने अपना फ्लैट ले लिया अँधेरी वेस्ट में… मैं टीचर थी… मेरा स्कूल अन्धेरी ईस्ट में था - श्री घनश्यामदास पोद्दार… वहां मैंने ३६ साल तक काम किया… जनवरी २००० में मेरे पति का देहांत हो गया और २००० सितमबर में मैं रिटायर्ड हो गई। एक बेटा यू के ही था तो उसके पास चली आई। फिर यहीं की हो गई। फिर भी अपने वतन की एक-एक दिन की याद भुलाए नहीं भूलती… उस पर कोई ऐसी कहानी दिल के तारों को छेड़ जाती है और मन को शांति मिलाती है … आप की आभारी हूँ कि आपकी परतों ने मेरे दिल की परतों को छू लिया l
दिल ढूँढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन… बैठे रहे तस्वुरे जाना किए हुए…। आप लिखती रहें, हम पढ़ते रहें तो मज़ा जीने का और भी आत्ता है …
भूल चूक माफ़
-शशि वैद
vaid.shashi@gmail.com