Saturday, 16 June 2012

उपन्यास



मित्रो, मेरे इस चल रहे धारावाहिक उपन्यास परतें  पर आपकी टिप्पणियां पाकर मैं अभिभूत हो जाती हूं। आपका यह स्नेह-प्यार मुझे इस समय मेरी बीमारी की अवस्था में संजीवनी की भाँति काम कर रहा है…मैं अपना दु:ख, अपनी तकलीफ़ भूल जाती हूँ, भले ही कुछ समय के लिए भूलूँ…

उपन्यास की सातवीं किस्त आपके समक्ष है… पढ़ें, समय निकाल कर और लिखें कैसी लगी…
-राजिन्दर कौर


परतें
राजिन्दर कौर

7

संदीप अपनी पढ़ाई में बहुत अच्छा चल रहा था। उधर रघुबीर के चाचा भी अलग अलग कोर्स कर रहे थे। कोई बिजनेस मैनेजमेंट कर रहा था तो कोई होटल मैनेजमेंट। उनकी बेटियाँ फैशन डिजाइनिंग और इंटीरीयर डेकोरेशन का कोर्स कर रही थीं।
      संदीप की स्कूल की पढ़ाई ख़त्म हुई तो आगे की पढ़ाई के लिए उसको इंग्लैंड या अमेरिका भेजने को लेकर घर में चर्चा चलने लगी। लेकिन, जस्सी संदीप को दूर भेजने के लिए रज़ामंद नहीं हुई। इसलिए उसने मुम्बई में ही एक कालेज में दाख़िला ले लिया।
      एक दिन जस्सी अपनी सहेलियों के साथ किट्टी पार्टी के सिलसिले में एक रेस्तरां में गई तो उसने संदीप को एक लड़की के साथ बैठे देख लिया। वह हैरान-परेशान हो गई। वह तो अभी संदीप को बहुत छोटा-सा, मासूम-सा बच्चा ही समझती थी। संदीप ने भी जस्सी को देख लिया था और कुछ झेंप-सा गया था। वह कुछ देर बाद वहाँ से उठकर चला गया था। उस दिन पार्टी में जस्सी का मन उदास हो गया था। शुक्र था कि उसकी किसी सहेली ने संदीप को नहीं देखा था। घर पहुँच कर वह संदीप की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा करने लगी।
      शाम को जब रघुबीर घर पर आया तो जस्सी ने सारी बात बताई। वह ठहाका लगाकर हँसने लगा।
      ''यह सब तो स्वभाविक ही है। यही उम्र तो होती है, दोस्ती की, इश्क की।'' रघुबीर चहककर बोला।
      ''आप पर ही गया है।''
      ''क्या मतलब ?''
      ''क्यों भूल गए उस लड़की को? क्या नाम था उसका? हाँ, याद आया -ज्योति। इसी उम्र में वह आपके साथ घूमा करती थी।''
      रघुबीर एकदम चुप हो गया।
      ''वैसे आपकी वो ज्योति अब है किस देश में?'' जस्सी की आवाज़ में अजीब-सा व्यंग्य, कसैलापन तथा ईर्ष्या झलक रही थी।
      रघुबीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उठकर दूसरे कमरे में चला गया। जस्सी बड़ी हैरान थी। वह विचारों में खो गई। इस दौरान वह ज्योति के विषय में लगभग भूल ही गई थी।
      'क्या रघुबीर अभी तक ज्योति को भूला नहीं था? क्या मेरे याद दिलाने से उसके घाव हरे हो गए है? इस प्रश्न का उत्तर वह सहज होकर क्यों नहीं दे रहा?' जस्सी इन प्रश्नों में उलझ कर रह गई।
      कई बार रघुबीर जब मुम्बई से बाहर बहुत दिन लगाकर आता, उस समय भी जस्सी उससे अजीब सवाल किया करती।
      ''वहाँ कोई दूसरी तो नहीं रखी हुई? इतने दिन आपको मेरी याद नहीं सताती? होटलों में तो बहुत लड़कियाँ आती रहती हैं, कभी...।'' वह आँखों में शरारत भरकर रघुबीर से ऐसे प्रश्न पूछती रहती। रघुबीर कभी मुस्करा देता और कभी बात का रुख बदल देता। लेकिन, आज रघुबीर द्वारा ज्योति का नाम सुनकर यूँ गंभीर हो जाना, उसे बड़ा अजीब लगा।
      रात को संदीप घर देर से लौटा। उसने जस्सी के सवालों का जवाब टाल दिया।
      ''मम्मा, वह तो मेरे साथ पढ़ती है। मेरी दोस्त है। बस, और कुछ नहीं।''
      जस्सी चुप हो गई। लेकिन सारी रात उसे रघुबीर की ख़ामोशी कांटे की तरह चुभती रही। उसने मन में ठान लिया कि वह ज्योति का पता ज़रूर लगाएगी। एक दिन असवर पाकर वह कोलीवाड़े वाले घर में पहुँची। पता चला कि ज्योति के माँ-बाप यह घर छोड़कर बांद्रा चले गए थे। आस-पड़ोस वाले उनके विषय में ज्यादा कुछ नहीं जानते थे। वह गांधी मार्केट, कपड़े की दुकान पर गई। वहाँ बहुत कुछ बदल गया था। उसके हाथ कोई ख़बर न लग सकी।
      मन ही मन वह बहुत बेचैन हो गई थी। उसे ज्योति के बारे में जानने की हमेशा उत्सुकता बनी रहती थी लेकिन वह रघुबीर के सामने ज्योति का नाम लेने से डरती थी। एक दिन बांद्रा वाले घर का पता उसे मिल ही गया। वहाँ जाने पर उसे मालूम हुआ कि ज्योति पिछले कई वर्षों से मुम्बई में ही थी। दुबई से लौट कर आए उसे एक अरसा बीत गया था। उसकी एक बेटी थी जो किसी कालेज में पढ़ती थी। ज्योति आजकल अंधेरी में सात बंगले के आसपास किसी एक फ्लैट में रहती थी।
      जस्सी सोचती कि रघुबीर को अवश्य मालूम होगा कि ज्योति कहाँ रहती है। शायद उसका उसके साथ सम्पर्क भी हो। दूसरे पल ही वह सोचती, वह तो साधारण-सी लड़की है। मेरे जैसी सुन्दर पत्नी के होते हुए वह किसी अन्य स्त्री की ओर कैसे आकर्षित हो सकता है। यूँ भी रघुबीर का ज्यादा समय तो गोवा में बीतता है।
      जस्सी स्वयं ही अपने आप से सवाल करती और स्वयं ही उनके उत्तर ढूँढ़ लेती।
      कई बार वह अपने करोड़पति बाप-दादा के विषय में सोचने लगती। उनके कारण ही रघुबीर के परिवार का होटल व्यापार इतना आगे बढ़ पाया है। रघुबीर को तो उसका शुक्रगुजार होना चाहिए। लेकिन ज्योति तो उसका 'पहला प्यार' थी। और कहते हैं कि पहला प्यार कभी भूलता नहीं।
      इन वर्षों के दौरान वह ज्योति को लगभग भूल-सी गई थी लेकिन आजकल उस पर एक ही भूत सवार रहता कि वह ज्योति के बारे में पता लगाए। वह रघुबीर की जेब, उसका पर्स, डायरी सभी जगह सुराग ढूँढ़ने का यत्न करती।
      एक दिन वह बोली -
      ''पता चला है कि ज्योति आजकल मुम्बई में ही रहती है।''
      ''फिर?''
      ''आप जानते हैं?''
      ''हाँ।''
      ''आपसे कभी मुलाकात हुई?''
      ''तुम यह सब क्यूँ पूछ रही हो?''
      ''जब से मुझे पता चला है कि वह इसी शहर में है, मुझे डर-सा लगने लगा है।''
      ''वह तो बहुत सालों से इधर ही है।''
      ''आपने कभी बताया नहीं।'' बड़ी चुभती हुई निगाहों से वह रघुबीर की ओर देखकर बोली।
      ''इसमें बताने वाली क्या बात है? तुम देखती हो, सुबह से शाम तक काम ही काम... अपनी सुध तो है नहीं। और तुम व्यर्थ के सवाल पूछती रहती हो।'' रघुबीर ने दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी पगड़ी संवारी और हेयर ड्रायर से दाढ़ी सुखाने लगा।
      जस्सी ख़ामोश रघुबीर की ओर देखती रही। उसके जाने के पश्चात् वह शीशे के सामने खड़ी होकर स्वयं को निहारने लगी। अपना निरीक्षण करने लगी। उसके बाल सलीके से क्लिप से बंधे हुए थे। आँखों के नीचे पड़ी झुर्रियों को दूर करने के लिए वह लगातार ब्यूटी-पॉर्लर जाती थी।
      ''मुझमें क्या कमी है? वह क्यों बेगानी नांद में मुँह मारेगा।'' लेकिन वह 'बेगानी' शब्द पर एकदम चौंक गई। पहले तो ज्योति ही उसकी अपनी थी। 'बेगानी' तो मैं ही हूँ।
      वह बड़ी उलझन में फँस गई थी। तभी उसने ज्योति की शक्ल याद करने की कोशिश की। वह सूखी-पतली-सी लड़की। उसमें क्या आकर्षण हो सकता है भला! वह आदमकद शीशे के सामने खड़ी थी। तभी उसे अहसास हुआ कि उसका वज़न बहुत बढ़ गया है। उसकी कमर और कमर का निचला भाग बहुत बढ़ गया था। रघुबीर उसे कई बार वज़न कम करने के लिए कह चुका है लेकिन उसने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। उसने उसी समय एक फ़ैसला लिया कि वह जिम में जाना शुरू करेगी। और अपना वज़न कम करेगी। वह उसी समय टेलीफोन डॉयरेक्टरी में से आसपास के जिम का फोन नंबर तलाशने लग पड़ी।
      फिलहाल, ज्योति का ख़याल उसके दिमाग से निकल गया था।
(जारी…)

6 comments:

  1. ज्योति को अब भी तलाश रही है जस्सी. हां, सच है, मन में डर तो रहेगा ही. आखिर पहला प्यार तो ज्योति ही थी न. अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी. शुभकामनाएं.
    डॉ. जेन्नी शबनम
    Jenny.Shabnam@gmail.com

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  2. kisii ne sach hee kaha hai ki pehla pyaar kabhee bhee bhula nahee pata hai,t-umr pichha karta hai.bahut sundar tareeke se prastut kiya hai is vishey ko.shubhkamnaon sahit.

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  3. परमात्मा से यही दुआ है कि आप जल्द से जल्द स्वस्थ हों…
    आपका यह उपन्यास रोचक लग रहा है… घर-परिवार के काम-धंधों से फुर्सत पाकर इसे पढ़ना अच्छा लगता है…
    -कुसुम

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  4. Respected Rajinder ji, aaj aapka yeh blog first time bahut hi achha laga , sari kistey mai ek baar main hi read kar gayi. aapki agli kisht ka wait karungi sath hi aapki health k liye bhi god se pray karungi ki aap jaldi achhi ho jaye. aap apna khayal rekhiyrga or jald hi agli kisht post karyga

    Pratibha Sharma

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  5. यह कड़ी भी कहानी को नया मूड दे रही दिख रही है.. अगली कड़ी का इन्तजार है.. सुन्दर रचना के लिए पुनः बधाई

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