मित्रो, धारावाहिक उपन्यास ‘परतें’ की आठवीं किस्त
आपके समक्ष रख रही हूँ, इस उम्मीद और विश्वास के साथ कि आपको यह किस्त भी पसन्द
आएगी और आप अपने विचार मुझसे नि:संकोच साझा करेंगे।
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिन्दर कौर
8
जस्सी की किट्टी
पार्टी वाली सहेलियाँ हर महीने कोई न कोई प्रोग्राम बनाती रहतीं। कभी फिल्म, कभी पिकनिक, कभी मुम्बई से बाहर लोनावाला
या खंडाला...। इस महीने उन्होंने ताज महल होटल में लंच का कार्यक्रम रखा था और रास्ते
में जहांगीर आर्ट गैलरी में पेंटिंग्ज़ की प्रदर्शनी को देखने का उनका इरादा भी था।
सभी किट्टी सदस्यों को न तो चित्रकला की समझ थी और न ही प्रदर्शनी देखने की वे शौकीन
थीं। लेकिन सबके साथ चलना उनको आता था। जहांगीर आर्ट गैलरी में दो चित्रकारों के चित्रों
की प्रदर्शनी लगी हुई थी। एक गणेश कुलकरणी की और दूसरी चित्रकार थी - ज्योति मरवाह।
''मरवाह तो पंजाबी होते हैं''
एक सदस्य ने दूसरी से कहा।
इस किट्टी पार्टी की सभी सदस्या
हाल में दायें-बायें फैल गईं। किसी चित्र को देखकर कभी 'वाह,वाह' करतीं और कभी 'एक्सलेंट'
कहतीं। कहीं चुपचाप आगे बढ़ जातीं। कई चित्रों का विषय उनको बिलकुल समझ
में नहीं आता। जस्सी ने 'ज्योति' नाम पढ़ा
तो उसका माथा ठनका। वह जब ज्योति को मिलने कोलीवाड़ा में गई थी तो वह एक चित्र बना रही
थी।
''हुँह ! वह भला इतनी बड़ी चित्रकार
कहाँ हो गई होगी कि वह अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगा सके। उसके नाम के साथ 'मरवाह' लिखा है। न जाने उसका विवाह किसके साथ हुआ है।''
जस्सी चित्र देखना छोड़ हॉल में
ज्योति को ढूँढ़ने लगी। काफी भीड़ थी। गणेश कुलकरणी को उसने आसानी से ढूँढ़ लिया था। वह
एक ग्रुप को अपने चित्रों के विषय में कुछ बता रहा था। उसने ज्योति को देखा तो उसे
बड़े ध्यान से निहारती रही। उसने कॉटन की साड़ी बड़े सलीके से पहन रखी थी। पतली,
लम्बी, तीखे नयन-नक्श वाली। न रंग गोरा था,
न साँवला। वह किसी दर्शक को अपनी एक पेंटिंग के विषय में कुछ बता रही
थी। उसके चेहरे पर हल्की-हल्की मुस्कान खेल रही थी। क्या यह वही ज्योति है ?
इतने बड़े अन्तराल के पश्चात् ज्योति को देखकर वह पहचान नहीं पा रही थी।
उसके दिल की धड़कन बढ़ गई थी। कोलीवाड़ा
में देखी ज्योति के नैन-नक्श धुँधले हो गए थे। ज्योति के पास ही एक लड़की खड़ी थी। शायद
यह उसकी बेटी थी। शक्ल-सूरत मिल रही थी। उसको पता चला था कि ज्योति की एक बेटी भी है।
उसके दिल की धड़कन और अधिक बढ़ गई। उसकी सभी सहेलियाँ चित्र देखने में व्यस्त थीं। परन्तु
वह पत्थर बनी केवल ज्योति को देखती जा रही थी। उसने ज्योति के पास जाकर उससे बात करने
की सोची लेकिन वह अपने प्रशंसकों से घिरी हुई थी। उन सब के चेहरों पर एक मुस्कान बिखरी
हुई थी। ज्योति की मुस्कान भी बड़ी दिलकश लग रही थी। थोड़ा हटकर एक सरदार जी के साथ खड़ी
एक लड़की उनसे बातें करती हुई खिलखिला कर हँस रही थी। हो सकता है, यह सरदार ज्योति का पति हो और वह लड़की उसकी बेटी। सरदार बहुत स्मार्ट दिख रहा
था। लगता है, ज्योति अपने परिवार में खुश है। यदि यह ज्योति वही
ज्योति है और अपने परिवार में खुश है तो वह भला रघुबीर को क्यों मिलेगी ? यह सब मेरे मन का वहम है। रघुबीर तो बहुत ही व्यस्त रहता है। वह अधिकतर दौरे
पर रहता है। फिर उसे ज्योति से मिलने की फुर्सत कहाँ !
यही सब सोच कर वह सामने लगे चित्रों
को देखने लगी। लेकिन आँखों के आगे जैसे धुँध-सी छाई थी। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
तभी उसकी सहेलियों ने उसे आ झिंझोड़ा।
''क्या हुआ ? कहाँ खो गई हो ? मरवाह का कौन सा चित्र तुम्हें अच्छा
लगा ?'' उसकी सहेलियों ने बहुत से सवाल दाग दिए। एक स्त्री उसके
कंधों को पकड़कर खड़ी हो गई।
''थोड़ा सिर में दर्द हो रहा है।''
उसके मुँह से इतना ही निकला।
''अच्छा ! अब हम यहाँ से चल रहे
हैं। तुम्हें कोई चित्र खरीदना हो तो बताओ।''
''खरीदना ?''
''हाँ, हम
लोगों ने कुछ चित्र खरीदने के लिए बुक करवा दिए हैं।''
''आज तो कुछ सूझ नहीं रहा। तबीयत
ठीक नहीं। फिर कभी सही।''
''चलो ठीक है।''
वह पुन: ख़यालों में खोल गई। उनके
होटल में भी बड़े-बड़े चित्र लगे हुए थे। उसने कभी ध्यान नहीं दिया था। न ही उसने कभी
किसी चित्रकार का नाम ही पढ़ा था। उसके अपने घर के हॉल में भी दो चित्र लगे हुए थे...।
वह इन्हीं उलझनों में ही फंसी
थी कि उसकी सहेलियाँ वहाँ से चल पड़ीं। ताज महल होटल में उसका खाने में मन नहीं लग रहा
था। सब बारी-बारी से उसकी तबीयत के बारे में पूछती रहीं। उन सबकी बातों का विषय आज
की नुमाइश ही था। वे ताज महल होटल में लगे चित्रों की बातें भी कर रही थीं लेकिन जस्सी
की आँखों के सामने तो अँधेरा-सा था - उसे सब कुछ धुँधला-धुँधला-सा दिख रहा था।
जस्सी के बगल वाली कुर्सी पर बैठी
एक साथिन बोली, ''जस्सी, इन्दिरा गांधी
दुबारा चुनाव जीत गई है। क्या तुम अब भी उसे पत्र लिखती हो ?''
जस्सी ने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
इन्दिरा गांधी का नाम सुनकर वह
सदैव जोश में आ जाती थी और उसके बारे में बड़े उत्साह से बात करती थी। लेकिन आज वह ख़ामोश
थी।
''तुम्हारे पत्रों का उत्तर इन्दिरा
गांधी स्वयं थोड़ा ही देती है, उसके सेक्रेटरी आदि देते होंगे।''
''नीचे हस्ताक्षर तो इन्दिरा गांधी
के ही होते हैं। फिर वह जो लिखवाती होगी, वही जवाब आता होगा।
मेरे पत्र वह पढ़ती तो अवश्य होगी।'' जस्सी बोली।
''तुम उन पत्रों का क्या करती
हो ?''
''एक फाइल में लगा देती हूँ। सारे
खत मैंने संभाल कर रखे हैं।'' बड़े गर्व से जस्सी बोली। अब उसके
चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ था।
घर पहुँचकर सबसे पहले उसने हॉल
कमरे में लगी दोनों पेंटिंग्स को देखा। नीचे लिखे चित्रकार के नाम पढ़े। वहाँ ज्योति
से मिलते-जुले नाम बिल्कुल नहीं थे। उसे तसल्ली हो गई।
रात को रघुबीर काम से घर काफ़ी
देर से लौटा। जस्सी की आँखें नींद से भारी थीं। रघुबीर को देखकर वह उठकर बैठ गई। उसके
दिमाग में बहुत से प्रश्नों ने हड़कंप मचा रखी थी। लेकिन उस समय उसने कोई भी बात छेड़ना
उचित न समझा। यूँ तो अपने मन को काबू में रखना उसके लिए बहुत कठिन होता है,
परन्तु आज की रात उसने 'चुप ही भली' का सोच कर बात आगे नहीं बढ़ाई।
अगली सवेर रघुबीर बहुत देर से
उठा। चाय का कप लेकर वह पुन: लेट गया। वह फिर से ऊँघ गया था। शायद अभी वह कुछ देर और
सोया रहता लेकिन तभी उसके काम पर से फोन आने शुरू हो गए थे। जस्सी कमरे के कई चक्कर
लगा चुकी थी।
दोपहर को लंच के पश्चात् रघुबीर
पुन: लेट गया।
''आपकी तबीयत तो ठीक है न ?''
जस्सी ने पूछा।
''थकावट बहुत लग रही है। पिछले
कई दिन से आराम नहीं मिला।'' वह अंगड़ाई लेते हुए बोला।
''आज काम पर न जाओ। फोन कर दो
और घर पर आराम करो।'' जस्सी ने सलाह दी।
''होटल में एक बहुत बड़ी पार्टी
आई है, कैनेडा से। उनके लिए सारा प्रबंध करना है।''
''यह काम किसी दूसरे को दे दो,
आज।'' वह रघुबीर के समीप बैठती हुई बड़े प्यार से
बोली।
''देखता हूँ...।'' कहकर रघुबीर फोन करने लग पड़ा।
कुछ देर आराम करने के बाद रघुबीर
तैयार होकर काम पर चला गया। जस्सी को ज्योति के विषय में पूछने का अवसर ही न मिला।
एक दिन दोपहर को संदीप घर आया
तो उसके साथ तीन-चार युवक-युवतियाँ भी थीं। उसने अपनी मम्मी से सभी को मिलवाया। अचानक
जस्सी की नज़र एक लड़की पर पड़ी तो उसको लगा कि यह तो वही लड़की है जो ज्योति मरवाह आर्टिस्ट
के पास खड़ी थी, जहाँगीर आर्ट गैलरी में। वह ठिठक कर खड़ी हो गई
और उस लड़की को गौर से देखने लग पड़ी। पहले भी संदीप के यार-दोस्त घर आते थे तो वह 'हैलो' कहने के बाद अन्दर से चाय-पानी का इंतज़ाम करवाकर
भेज देती। पर आज उसको इस तरह खड़ी देखकर संदीप को कुछ आश्चर्य-सा हुआ।
''क्या बात है मम्म ?''
जस्सी उस लड़की के पास आकर खड़ी
हो गई और बोली -
''तेरा क्या नाम है बेटी ?
लगता है, तुझे मैंने कहीं देखा है।''
वह लड़की मुस्करा पड़ी। उसकी मुस्कराहट
बड़ी प्यारी थी।
''मेरा नाम रश्मि है।''
वह बहुत ही मीठी आवाज़ में बोली।
''बड़ा प्यारा नाम है। तुझे मैंने
शायद जहाँगीर आर्ट गैलरी में देखा था, कुछ दिन पहले।''
उस लड़की की मुस्कराहट और भी ज्यादा
चमक उठी, ''हाँ, वहीं देखा होगा। मेरी मम्मी
आर्टिस्ट हैं। उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी थी। मैं भी वहाँ गई थी।''
''तेरी मम्मी बहुत अच्छी चित्रकार
है।'' जस्सी ने बात को आगे बढ़ाने के लिए कहा।
''तुम कहाँ रहते हो ? मैं तुम्हारी मम्मी से मिलना चाहती हूँ।''
''ज़रूर आंटी, ज़रूर। आओ हमारे घर...।''
''मम्मी, कोई चाय-वाय भिजवा दो। साथ में कुछ खाने को। बहुत भूख लगी है।'' संदीप उतावला-सा होकर बोला।
जस्सी तो बात की तह तक जाना चाहती
थी। परन्तु इतनी अधिक उत्सुकता दिखाना शायद ठीक नहीं था। वैसे भी, उस समय बच्चों के सामने।
जब सब लड़के-लड़कियाँ चले गए तो
उसने संदीप को अपने कमरे में बुला लिया और रश्मि के बारे में कितने ही सवाल करने लग
पड़ी।
''मम्मी, आप उस लड़की के बारे में जानने के लिए इतने उतावले क्यों हो ? आपको फिर मिलवा दूँगा, उससे। जो भी जानना हो,
पूछ लेना।'' वह माँ की घूरती नज़रों के सामने अपने
आप को बेआराम महसूस कर रहा था और झट ही कमरे में से बाहर निकल गया।
उस शाम रघुबीर समय से ही घर लौट
आया। वह टी.वी. के सम्मुख बैठा समाचार सुन रहा था। उसके चेहरे पर से लगता था कि वह
बड़े मानसिक तनाव में था।
''सब ठीक है न ?'' जस्सी उसके पास बैठती हुई बोली।
''बस, ठीक
ही है।'' वह बड़ी बुझी-सी आवाज़ में बोला। जब उसका जस्सी से बात
करने का मूड न होता, वह ऊँची आवाज़ में टी.वी. लगाकर ख़बरें सुनने
लग पड़ता। जस्सी रघुबीर के और करीब होकर बैठ गई और उसके घुटने पर हाथ रखकर बोली।
''मैं कुछ दिन पहले एक नुमाइश
देखने गई थी।''
''कपड़ों की या गहनों की ?''
रघुबीर ने बग़ैर जस्सी की ओर देखे पूछा।
''पेंटिंग्स की।''
''तुझे पेंटिंग्स में कब से दिलचस्पी
हो गई ?'' टी.वी. की आवाज़ धीमी करके उसने हैरान होते हुए पूछा।
''बस, सहेलियों
के संग चली गई। वहाँ एक चित्रकार थी- ज्योति मरवाह। उसकी बेटी भी उसके साथ थी। आज वही
लड़की संदीप के साथ हमारे घर आई थी।''
रघुबीर ने हैरानी से जस्सी की
ओर देखा। जस्सी का हाथ अभी भी उसके घुटने पर था। जस्सी को उसके घुटने में कंपकंपी-सी
महसूस हुई।
कुछ पल बाद रघुबीर ने पूछा,
''फिर ?''
''फिर ? फिर क्या ! मेरी कई सहेलियों ने ज्योति की पेंटिंग्स भी खरीदीं पर,
मुझे तो कोई समझ में ही नहीं पड़ती कि कौन सी अच्छी है।''
''हूँ...।'' कहकर रघुबीर ने हल्का-सा सिर हिलाया। टी.वी. पर पंजाब के बिगड़े हालात के बारे
में समाचार आया। रघुबीर ने आवाज़ फिर ऊँची कर दी। पंजाब में एक शहर में बम फट गया था
और कई लोग मारे गए थे। आजकल रोज़ ही पंजाब और दिल्ली से बमों के धमाकों की खबरें आती
रहती थीं। वहाँ आतंकवाद ने पूरा जाल बिछा दिया था। जिनके रिश्तेदार पंजाब, हरियाणा और दिल्ली रहते थे, वे डरे-सहमे ही रहते। रघुबीर
की बुआ लुधियाना थी, पर परिवार, घर और कारोबार
छोड़कर जाने भी कहाँ।
जस्सी ज्योति के विषय में जानना
चाहती थी, उसके लिए हालात अब ठीक नहीं थे।
परिवार के लोग एक साथ बैठते तो
पंजाब के हालात के बारे में ही चर्चा होती रहती।
परिवार के दूसरी व्यस्तताओं के
कारण जस्सी की ज्योति को लेकर उत्सुकता भी मद्धम पड़ गई।
(जारी…)
Respected Rajinder Ji,
ReplyDeletebahut hi achha laga aapka post read kar kar , do minutes main hi read kar gayi , or abhi bhi man kar reha hai ki aagey kya hua read karu , aapney man main ek ajeed si utsukhta bana di hai aapki agli kisht ka besabri se intjaar karungi.
umeed hai ki aapki sehat paehle se kuch achhi hogi
राजिन्दर जी, अभी अभी नेट खोला और आपके ब्लॉग को यूँ ही क्लिक कर लिया कि देखूँ 15 दिन होने जा रहे हैं, नई पोस्ट आई है क्या, तो सच पूछो 'परतें' की आठवीं किस्त देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। सब काम छोड़कर एक ही साँस में पढ़ गई। औरत भी क्या है, उम्र हो जाने के बाद भी शक और ईर्ष्या का बीज उसके अन्दर से खत्म नहीं होता। बहुत रोचक लगी यह किस्त भी… आगे क्या होने वाला है, बेसब्री से इन्तज़ार है… और हाँ, आप स्वस्थ हैं ना… ईश्वर आपको सलामत रखे…
ReplyDeleteकुसुम
पिछली कडियाँ भी आज पढ पाई ……कुछ नही पढ पायी थी रोचक चल रही है कहानी अब आगे का इंतज़ार रहेगा
ReplyDeleteवन्दना
aapka yeh upanyaas ansh bhee kaphi rochak ban pada hai,vaise main Kusum jee kii baat se ittephak rakhtaa hoon ki kisii bhee umr kii dehleej par hee kyon n khadii hon apni mool pravriti se hat kar soch nahiin pati hain.sundar.
ReplyDeleterochak lag rahi hai yah kahaani ..aage ka intjaar rahega
ReplyDeleteबढ़ता चला जा रहा है , अच्छा है |
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