मित्रो, यह आपका प्यार ही है जो मुझे अपने उपन्यास ‘परतें’
को किस्त-दर-किस्त आपके समक्ष प्रस्तुत करने की शक्ति और हौसला दे रहा है। अब तक 14
किस्तें आप पढ़ चुके हैं, अब
15वीं किस्त आपके सम्मुख है। ‘आपका’ हुंकारा ही इसकी निरन्तरता को बनाए हुए है और
भविष्य में भी बनाए रखेगा, ऐसी मुझे आशा है। अपनी राय से अवश्य अवगत कराइएगा।
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिन्दर कौर
15
संदीप और रश्मि
हनीमून से लौटे तो उनके चेहरे खुशी में चमक रहे थे। वे परिवार के सभी सदस्यों के लिए
कुछ न कुछ सौगात लेकर आए थे। वह नई देखी जगहों के बारे में बड़े उत्साह से बता रहे थे।
ज्यादा बोलने वाला तो संदीप ही था, पर रश्मि
भी बीच बीच में कुछ न कुछ बता रही थी।
दूसरे दिन उन्होंने रश्मि के मायके
जाने का कार्यक्रम बना दिया था। ज्योति का फोन आया था कि मम्मी, पापा को संग लेकर आएँ। पर जस्सी ने जाने से साफ़ इंकार कर दिया था। उसके न कर
देने पर रघुबीर ने भी न जाने का कोई बहाना खोज लिया था।
कुछ दिन पश्चात् ज्योति के घरवालों
ने रघुबीर के पूरे परिवार को खाने पर बुलाया - दादा, दादी,
चाची, चाचा और उनके बच्चे ! जस्सी उस दिन भी न
जाने का बहाना खोजने लग पड़ी थी, पर प्रेम ने डांट दिया था और
उसको जाना पड़ा।
वहाँ पहुँचकर वह आगे बढ़कर ज्योति
से नहीं मिली। बस, यूँ ही रस्मी-सा हाथ हिला दिया और रुपिंदर
चाची के पास बैठ कर हँस-हँस कर बातें करती रही। जस्सी के इस व्यवहार पर लगभग हर किसी
की नज़र पड़ी। संदीप और रश्मि ने भी देख लिया था। रात को घर आए तो संदीप ने मम्मी को
कुछ नहीं कहा परन्तु पापा से उसने अवश्य कहा-
''पापा, आज मम्मी वहाँ रश्मि के परिवार के साथ कितना रूखा सलूक कर रही थीं।''
''बेटा, फिक्र न कर। धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। बस, मम्मी का
ख़याल रखना। रश्मि से भी कहना कि वह मम्मी की तरफ़ विशेष तौर पर ध्यान दे। उसका दिल जीत
ले।'' रघुबीर ने पुत्र को अपने सीने से लगाते हुए कहा।
कुछ दिन बाद संदीप रघुबीर के साथ
काम पर जाने लग पड़ा। रश्मि दोपहर को जस्सी के पास आकर बैठ जाती। जस्सी रश्मि से कोई
एक आध बात करती और जानबूझ कर किसी काम का बहाना बनाकर वहाँ से उठ जाती। रश्मि अपनी
समझ के अनुसार हर प्रकार से जस्सी का दिल जीतने की कोशिश करती, पर जस्सी ने तो रश्मि के विरुद्ध मन में गाँठ बाँधी हुई थी। मौका-बेमौका कोई
न कोई चुभती बात कह देती। कभी व्यंग्य में ताना दे देती। रश्मि रुआंसी हो उठती,
परन्तु कहती कुछ नहीं थी।
कुछ दिन बाद उसने जस्सी के कमरे
में जाना बन्द कर दिया। कभी कभी वह संदीप की दादी प्रेम के पास जाकर बैठ जाती। वहाँ
कई अवसरों पर स्वर्ण और रुपिंदर चाची भी आ जातीं। उनके बच्चे भी आ जाते। वे सब रश्मि
के साथ खूब लाड़ जताते। रश्मि को गाने के लिए फरमाइश करते रहते। वहाँ उसका समय हँसते-खेलते
बीत जाता। जस्सी को भी सन्देशा भेजा जाता, आने का, पर वह सिर दर्द का या कोई और बहाना बना देती। संदीप, रघुबीर और प्रेम किसी न किसी ढंग से जस्सी को समझाने का यत्न करते,
पर उसके कानों पर जूं न रेंगती।
धीरे धीरे रश्मि अपने कमरे में
सिकुड़ कर रह गई। संदीप के जाने के बाद वह कुछ समय योगा करती। कुछ देर के लिए टी.वी.
पर अपनी पसंद का कोई प्रोग्राम देखती। उसको रोने-धोने वाले कार्यक्रम पसंद नहीं थे।
दोपहर को खाना खाने के पश्चात् वह कोई किताब लेकर बैठ जाती। साथ ही, मद्धम स्वर में कोई गाना लगा लेती। संदीप दिन में तीन-चार बार फोन करके उसका
हाल-चाल पूछता रहता। उसकी मम्मी का फोन भी दिन में एक बार अवश्य आता या फिर वह स्वयं
कर लेती। शाम को कई बार वह घर से बाहर निकल जाती। बुक-सेंटर से कुछ पत्रिकाएँ खरीद
लाती। रात में खाने के बाद संदीप के साथ बीच पर लंबी सैर के लिए निकल जाती। वहाँ वे
अपनी पसंद की आइसक्रीम खाते और चहलकदमी करते हुए घर लौट आते। संदीप काम के सिलसिले
में जब मुंबई से बाहर जाता तो कई बार रश्मि को संग ही ले जाता।
जस्सी यद्यपि रश्मि की शक्ल देखकर
मुँह मोड़ लेती, पर फिर भी बाहर जाने से पहले रश्मि जस्सी को बताकर
जाती।
विवाह के बाद शुरू-शुरू में वह
मम्मी के इस तरह के व्यवहार से दुखी हो जाती। कई बार अकेले में रो भी पड़ती,
पर धीरे-धीरे उसने हालात से समझौता कर लिया था। समय बीतने पर उसने अपने
आप को एक गैर-सरकारी समाज सेवी संस्था से जोड़ लिया था। वहाँ वह ज़रूरतमंद लोगों के लिए
काम करके बहुत संतुष्ट रहती थी।
सप्ताह में दो बार वह सेमी-क्लासिकल
संगीत सीखने चली जाती।
''रश्मि बेटी, तू कौन सी संस्था में काम करने जाती है ? ज़रा समझा तो।''
एक दिन प्रेम ने प्रेम से उसका सिर सहलाते हुए उसको करीब बिठाकर पूछा।
''दादी जी, यह संस्था बेघर, अनाथ बच्चों के लिए काम कर रही है। मैं
भी वहाँ जाकर उनका हाथ बंटाती हूँ। मुझे यह काम बहुत अच्छा लगता है।''
''इसका तुझे क्या लाभ है ?''
''मेरी आत्मा को सुख मिलता है।
मेरे पास वक्त है। साधन हैं। वहाँ जाकर देखो तो पता चलता है कि अनाथ होने का क्या अर्थ
है, गरीबी क्या है। उनका दुख-दर्द देखकर, सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।''
''तू तो बेटा, बड़ा नेक काम कर रही है। परमात्मा तुझे सुख दे। तू खुश रहे। पर तू कभी किसी
किट्टी पार्टी या ताश क्लब में क्यों नहीं जाती? आजकल तो सभी
लड़कियों की दिलचस्पी इन्हीं चीजों में अधिक है। फिर हर हफ्ते पार्लर जाना, शॉपिंग करना...।''
रश्मि समझ गई कि दादी जी का इशारा
जस्सी की ओर है।
''ये तो अपने-अपने शौक हैं,
दादी जी।'' रश्मि ने सहज भाव से कहा।
''मुझे तेरे शौक बहुत पसंद हैं
बेटी। जीती रह। खुश रह।''
उस शाम प्रेम ने घर के सभी सदस्यों
को खुशी-खुशी रश्मि की इन रुचियों के बारे में बताया।
रघुबीर रश्मि के प्रति अपना स्नेह
जस्सी की अनुपस्थिति में ही जतलाता। रश्मि इस बात को समझ गई थी।
संदीप के दादा जी सं. मनजीत सिंह
कभी-कभी रश्मि को पास बिठा लेते और उससे इन संस्थाओं के बारे में पूछते। कभी वह संगीत
के विषय में भी पूछ लेते।
''तू गुरबाणी के शबद भी गाने सीख
ले। फिर हम घर में ही एक रागी जत्था तैयार कर लेंगे। क्या ख़याल है ?'' वह हँसते हुए कहते।
''ख़याल तो बहुत अच्छा है। कुछ
शबद तो मैंने मम्मी से बचपन में सीखे थे। अभी भी याद हैं।''
''अब जब खुले भोग का पाठ डालेंगे
तो तू शबद सुनाना।''
''जी ! ज़रूर ।''
''रश्मि बेटा, तूने खुश कर दिया है। परमात्मा तुझे भाग लगाए। आज तो आत्मा प्रसन्न हो रही
है।''
मनजीत सिंह रश्मि के सिर पर प्यार
से हाथ फेरते हुए बोले।
एक दिन छुट्टी वाले दिन पूरा परिवार
इकट्ठा हुआ बैठा था तो रघुबीर के भापा जी बोले-
''रघुबीर, तू बड़ा खुश किस्मत है जिसे इतनी सयानी और गुणवंती बहू मिली है। बड़ी सलीके वाली,
मीठा बोलने वाली। दूसरों के दुख बांटने वाली।''
फिर हर कोई एक-दूजे से बढ़कर उसकी
प्रशंसा के पुल बांधने लगा। जस्सी वहाँ से उठकर पता नहीं कब चली गई।
दूसरे दिन नाश्ते के बाद जब सभी
उठकर चले गए तो जस्सी रश्मि की ओर देखकर बोली-
''बड़ा इम्प्रैशन जमा लिया है सब
पर। पर इन बातों का मेरे पर कोई असर नही होने वाला।'' यह कहकर
दनदनाती हुई वह अपने कमरे में चली गई। रश्मि कुछ पल सुन्न-सी खड़ी रही। अचानक उसकी दृष्टि
खाना बनाने वाले लड़के पर पड़ी जो उस समय सहानुभूतिभरी नज़रों से उसको देख रहा था।
रश्मि नज़रें झुका कर अन्दर चली
गई।
(जारी…)
आपके उपन्यास की हर किस्त पढ़ रही हूँ। जस्सी का व्यवहार हैरत पैदा करता है। एक पढ़ी लिखी औरत भी शक-शुबह के चलते जीवन को कैसे नरक में बदलने के लिए उतारू है ! मुझे तो लगता है, लगता क्या, सच ही है, कि औरत ही औरत की दुश्मन है। अच्छा लग रहा है आपका यह उपन्यास पढ़कर…
ReplyDeletemain Kusum jee kii baat se sehmat hoon,baki upanyaas kii har kadi agle ank ke prati utsuktaa paida karti hai.
ReplyDeleteashok andre
respected Rajinder madam , meri aapse shikayat hai ki mujhey 12 kisht k baad aapki koi kisht nahi aayi is vejeh se mai kafi pichhey reh gayi , mai intjaar hi karti rehi khair koi nahi vo sab mainey aaj read kar li hai, bahut hi achha lega aapki health kaisi hai hope ab pehle se sudhar hoga....
ReplyDeleteaapki behter swasth ki dua k sath agli kisht ka mujhey besabri se intjaar rehyga....
respected madam. i am reading parathen. am a telugu writer staying at hyderabad. the novel is running very interestingly and very thoughtful. thank u. i wish to send my hindi translation of my poetry if ur postal address is made available madam. ..bhavani,hyderabad
ReplyDeleteजस्सी को रश्मि के साथ ऐसा सुलूक नहीं करना चाहिए, रश्मि का इन सब में दोष ही क्या है. पर होता है ऐसा. राजिंदर को कभी माफ जो न कर पाई. किस्मत का भी कैसा खेल है, जिससे दूर भागने की चेष्टा करो वो और भी करीब आता है. जस्सी के लिए दुःख भी होता है, आखिर शक ने उसकी पूरी ज़िंदगी खत्म कर दी. पर मानव स्वभाव है ऐसे रिश्तों में शक होता ही है भले जीवन उम्र ढल जाए. रघुबीर की स्थिति तो और भी कष्टप्रद है. अगली कड़ी की प्रतीक्षा में...
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