मित्रो, हमारा देश भारत भिन्न-भिन्न पर्वों-त्योहारों का देश है। इन
पर्वों-त्योहारों को सभी जातियों, वर्गों के लोगों द्बारा जब एक साथ मनाते देखती
हूँ तो भीतर एक खुशी की लहर दौड़ जाती है। दो दिन पूर्व ही दीपपर्व दीपावली का
त्योहार मनाया गया। अंधेरे से लड़ने की ताकत देता यह रौशनी का त्योहार छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको
एक कर देता है। सोचती हूँ,
त्योहारों को मनाने की बात जब सोची गई होगी, उसके पीछे शायद यही मंतव्य रहा होगा
कि समाज का हर प्राणी, चाहे वह किसी भी जाति का हो, रंग का हो, छोटा हो, बड़ा हो,
सबको एक ही खुशी के सूत्र में पिरोना है। पर एक दिन हम भेदभाव मिटा कर रंगों की
होली खेल लेते है, एक दिन परस्पर मिल बैठ कर रौशनी का पर्व दीपावली मना लेते है,
पर वर्ष के शेष दिनों में यह परस्पर प्रेम, सौहार्द की भावना हमारे भीतर नहीं
रहती। हमारे भीतर से ये नफ़रत, द्बेष,
ईर्ष्या, ऊँच-नीच का भाव हमेशा हमेशा के लिए निकले तभी सच्ची दीवाली है, सच्ची
होली है।
उपन्यास ‘परतें’ की 17 वीं किस्त आपके समक्ष है। आशा है, आप
पहले की भाँति इस बार भी अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे। मुझे खुशी होगी।
-राजिन्दर कौर
परतें
राजिन्दर कौर
17
एक दिन डॉक्टरों
ने सीज़ेरियन करने का फ़ैसला कर लिया। सारा परिवार अरदास कर रहा था। प्यारा-सा, गुलगुला-सा बच्चा इस दुनिया में आ गया। उस समय जस्सी भी अस्पताल
में ही थी। नर्स ने सबसे पहले बच्चे को जस्सी की गोदी में दे दिया। वह खुशी में फूली
नहीं समा रही थी। उसके अन्दर ममता की लहरें उमड़-उमड़ पड़ रही थीं। उसकी आँखें खुशी के
आँसुओं से छलछला आईं। उसने लपक कर रश्मि का माथा चूम लिया, एक
बार नहीं, तीन-चार बार। दूर खड़ी ज्योति को उसने कसकर बांहों में
भर लिया।
''हूबहू मेरे संदीप पर गया है...''
वह बार-बार यही वाक्य दुहरा रही थी। पूरा परिवार भी जस्सी के इस उमड़ते
प्यार पर बहुत खुश था।
रश्मि नर्सिंग होम से घर आई तो
जस्सी दिन-रात बच्चे को अपने पास ही रखती। बस, दूध पिलाने के
लिए वह बच्चे को रश्मि की गोद में देती। बच्चे की मालिश करना, उसे नहलाना-धुलाना, सब उसने अपने ऊपर ले लिया। वह टी.वी.
सीरियल, किट्टी पार्टियाँ, ब्यूटी पार्लर,
सहेलियों के साथ गप्प-शप्प, सबकुछ भूल गई थी। अब
घर में उसके गुनगुनाने की आवाज़ें, लोरियों के स्वर गूंजते रहते।
इतना खुश जस्सी को कम ही किसी ने देखा था।
बच्चा चालीस दिन का हुआ तो परिवार
ने अखंड पाठ का भोग घर में रखवाया। पहला अक्षर 'ज' निकला। लड़के की पड़दादी यानी प्रेम ने कहा, ''बच्चे का
नाम जसप्रीत रखो।''
पास खड़ा संदीप बोला,
''दादी जी, आजकल छोटे नाम रखने का रिवाज़ है।''
''ठीक है, तू जस बुला लिया करना। नहीं तो प्रीत। लड़के की पड़दादी को जसप्रीत नाम पसन्द
है तो यही ठीक है। इसी नाम की अरदास कर दो।'' रघुबीर बोला।
''रश्मि की सलाह भी ले लो।''
पास से रुपिंदर चाची भी बोली।
''जो बड़े कहें, सिर माथे पर...।'' रश्मि मुस्करा कर बोली।
रात में डिनर अपने होटल में ही
रखा गया। खाना, पीना, नाचना। देर रात तक
जश्न मनाया गया। इस सारे जश्न के दौरान जस्सी ने काके जसप्रीत को अपनी गोदी से अलग
नहीं किया।
रुपिंदर ने प्रेम से पूछा,
''आपने काके का नाम जसप्रीत क्यों रखा है। कोई खास कारण है ?''
''तू समझ ही गई है।'' प्रेम ने मुस्करा कर कहा।
''पर फिर भी...।'' रुपिंदर ने सवालिया नज़रों से प्रेम की ओर देखा।
''जस्सी का प्यार देखा है तूने
काके के लिए ?'' प्रेम ने रुपिंदर की ओर घूरती आँखों से देखते
हुए पूछा।
''हाँ, वो
तो देख रही हूँ। वह सिर्फ़ दूध पिलाने के लिए रश्मि के पास ले जाती है बच्चे को।''
रुपिंदर कुछ सोचती हुई बोली।
''ज्योति ने काके को अपनी गोदी
में लेना चाहा तो जस्सी ने मुस्करा कर कुछ बहाना बना दिया। बाद में बस थोड़ी देर के
लिए उठाने दिया। ज्योति बेचारी मायूस होकर चुप-सी अलग होकर बैठ गई।'' प्रेम बोली।
''जस्सी को ऐसा नहीं करना चाहिए
था।'' रुपिंदर उदासी भरी आवाज़ में बोली।
कुछ दिन पश्चात् ज्योति ने फोन
करने शुरू कर दिए कि वह रश्मि और काके को लेने आना चाहती है। जस्सी कोई न कोई बहाना
बनाकर टाल देती। रश्मि ने भी मायके जाने की इच्छा प्रकट की, पर
जस्सी ने उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। विवश हो रश्मि ने संदीप से कहा तो संदीप
मम्मी से बोला,
''मम्मी, कुछ दिन के लिए रश्मि को मायके
छोड़ आते हैं। उसकी मम्मी भी बहुत कह रहे हैं।''
''अच्छा तो तू सिफारिश लाया है ? किसकी
है ? अपनी बीवी की या अपनी सास की ?''
संदीप माँ की आवाज़ में भरी कड़वाहट
को भाँप गया था।
'तो क्या मम्मी के मन में अभी
भी कड़वाहट है, रश्मि के लिए ? रश्मि की
मम्मी के लिए ? पर अब काके को लेकर वह तो बहुत खुश हैं। हर वक्त
चहकते रहते हैं। काके के पैदा होने के बाद से तो उनका रंग-ढंग, तौर-तरीका सब बदल गया है।'
उसने यही बात रघुबीर से की तो
वह बोले, ''रश्मि ने तेरी माँ से तुझे छीना है, अब उसने रश्मि का पुत्र उससे छीनकर हिसाब बराबर कर दिया है।''
''क्या मतलब ?'' संदीप के चेहरे पर परेशानी साफ़ झलक रही थी।
''बस, तेरी
मम्मी शुरू से ही काबिज़ स्वभाव की रही है।''
''पर रश्मि की मम्मी भी बच्चे
के साथ कुछ वक्त बिताना चाहती है।''
''कुछ सोचते हैं, घबरा नहीं बेटे।'' रघुबीर ने चेहरे पर मुस्कराहट लाने
की कोशिश करते हुए कहा।
कभी वो भी वक्त था जब अपनी हर
समस्या के लिए संदीप मम्मी की अदालत में जाकर अपील करता था, पर
अब मामला बिलकुल उलट था। मम्मी से उसके डायलॉग नपे-तुले होते। पर अपने पापा के साथ
उसका संबंध पिता-पुत्र वाला कम और दोस्तों वाला अधिक था।
उस रात काम से वापस आकर रघुबीर
अपनी बीजी के पास चला गया। सारी बात सुनकर बीजी हँसने लग पड़े।
''चलो, देखते
हैं। भेजेगी कैसे नहीं रश्मि को।'' थोड़ी देर के अंतरात के बाद
बीजी आँखों में शरारत भरकर बोले,
''कहे तो काके की नानी को यहीं ले आएँ।''
रघुबीर बीजी के इस मज़ाक पर बड़ा हैरान हुआ, पर बीजी को मुस्कराते देख वह भी मुस्करा पड़ा।
''आजकल बीजी भी मूड में हैं। पड़दादी का दर्जा जो मिल गया है।''
रघुबीर मंद मंद मुस्कराता अपने कमरे में आ गया।
दो-तीन दिन बाद प्रेम जस्सी के पास गई। काका सो रहा था। जस्सी चाय की चुस्कियाँ
भर रही थी।
कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद प्रेम बोली,
''जस्सी बेटा, क्या रश्मि की मम्मी ने
इसको मायके नहीं ले जाना ? कमाल है, काका
ढाई महीने का हो गया है, पर अभी तक वे लेने नहीं आए।''
''बीजी, उनके तो खूब सन्देशे आ चुके हैं।
मेरा ही मन नहीं मानता, बच्चे को अपने से अलग करने को।''
जस्सी के चेहरे को प्रेम गौर से देख रही थी। उसके चेहरे पर ममता के साथ-साथ
एक विजय-भाव भी था।
''जस्सी, मैंने एक मन्नत मांगी थी। हज़ूर
साहब के दर्शन करने की। तू मेरे साथ चल। हम वहाँ हफ्ता भर रहेंगी। साथ ही गुरू लंगर
की सेवा करेंगी। रघुबीर के भापा जी तो जाने को तैयार नहीं। लड़के कामकाज वाले हैं। देखना,
इंकार न करना। तेरे साथ ही जाने का मन है। रश्मि जब मायके जाए,
तब का प्रोग्राम बना लेंगे। जल्दी बताना।''
जस्सी सोच में पड़ गई- 'बीजी, मेरे
साथ ही क्यों जाना चाहते हैं ! वह तो बड़ा ज़ोर देकर कह रहे हैं ! मना कैसे करूँ ?
चलो, एक हफ्ते की ही तो बात है।'
उसने रश्मि को भेजने का प्रोग्राम बना लिया और बीजी के साथ हजूर साहिब जाने
की तैयारी करने लग पड़ी।
(जारी…)
nanhen bchche ka aagman kis tarah poore ghar ko apnee aur baandh leta hai,yahii mahatvpoorn hai is kadii men.sundar.
ReplyDeleteराजन्दिर जी, कुछ दिन घर से बाहर रही,इसलिए देर से पढ़ रही हूँ। मुझे तो आपके इस उपन्यास में आनन्द आ रहा है। औरत के क्या क्या रुप हो सकते हैं, दिख रहे हैं, आप की कलम में बांध लेने की शक्ति है। बधाई !
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